कल्पना कर पाना ही सब कुछ है, कल्पना न कर पाना जीवन का अंत
- 25 Oct, 2021 | रोहित नंदन मिश्रा
कल्पना मानव मस्तिष्क की सृजनशीलता की पहली कड़ी है। कोई भी विचार, सिद्धांत, आविष्कार चाहे वह आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक, विज्ञान एवं तकनीकी, शिक्षा, मूल्य, दर्शन किसी से भी जुड़ा हो सभी वास्तविकता में आने से पूर्व व्यक्ति की कल्पना का हिस्सा होते हैं, तत्पश्चाप विभिन्न प्रयासों के द्वारा इन्हें मूर्त रूप दिया जाता है। युगों तक इन कल्पनाओं के मूर्त रूप का प्रभाव देखा जा सकता है। ये किसी विशेष व्यक्ति या विश्व के किसी विशेष हिस्से तक सीमित न रह कर प्रत्येक मनुष्य के जीवन का अंग भी बनती हैं।
नेपोलियन जो सेना में एक सैनिक के रूप में भर्ती हुआ था, ने न केवल कल्पनाओं के महत्व को समझा बल्कि उसने अपनी ‘विश्व विजेता’ की कल्पना के अनुरूप यूरोप के भूगोल को बदलकर इतिहास बनाया। इन्हीं से जुड़ी कल्पनाओं की ही अगली कड़ी थी जर्मनी व इटली का एकीकरण जिसने विश्व को पुनः नया भूगोल और वर्तमान स्वरूप दिया। इसी प्रकार सिकंदर महान की विश्व पर शासन की महत्वाकांक्षा साकार होने से पूर्व एक कल्पना ही थी। भारतीय उपमहाद्वीप पर एकछत्र राज वास्तविकता ग्रहण करने से पूर्व अशोक की कल्पना का ही अंश थी। समुद्री खोजों और उपनिवेशवाद की कल्पना ने विश्व इतिहास में एक अलग अध्याय जोड़ा जिसके प्रभाव आज भी देखे जाते हैं। भारत की आजादी के बाद यूरोप की तरह छोटे-छोटे राज्यों वाले खण्डित उपमहाद्वीप की प्रबल संभावनाओं के मध्य एकीकृत, अखण्ड व लोकतान्त्रिक भारत भी राष्ट्रवादी भारतीयों की एक दृढ़ कल्पना थी।
अगर दर्शन की बात करें तो उथले तौर पर सम्पूर्ण दर्शन एक कल्पना ही है, जिसके कुछ पक्ष वास्तविक जीवन से जुड़ते हैं तो कुछ अमूर्त रूप से जीवन मरण की विश्व जिज्ञासा का उत्तर देते हैं। कल्पनाओं से परिपूर्ण दर्शन ही विश्व व्यवस्था के मूल में है और इसी ने अनेक बार वैश्विक सभ्यताओं को उजाड़ा और बनाया है। भारतीय जन मानस के जीवन का आधार ‘भारतीय दर्शन’ की कल्पनाओं का महत्व तो इहलोक ही नहीं परलोक तक है। चार्वाक की कल्पनाओं से भौतिक दर्शन आया, तो बुद्ध के उपदेशों से बौद्ध धर्म। महात्मा गाँधी की अहिंसावादी कल्पनाओं ने वास्तविकता बनकर भारत की आजादी का मार्ग प्रशस्त किया तो नेहरू के गुट निरपेक्षता व समाजवादी विचारों ने भारत को विश्व में एक अग्रणी पहचान दी।
राष्ट्र राज्य की परिकल्पना के साथ ही फ्रांसीसी क्रांति से उपजे स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के तत्व ने लोकतंत्र की कल्पना को जन्म दिया। लोकतंत्र के अलावा आज जो दुनिया का सबसे बड़ा सच बनकर उभरा है वह है भूमंडलीकरण की अवधारणा। आज विश्व में सभी देश सांस्कृतिक आदान-प्रदान पर बल देते हैं। दुनिया एक ‘वैश्विक ग्राम’ का रूप ले चुकी है। सूक्ष्मता से देखें तो इसके बीज हमें प्राचीन काल में ही देखने को मिलते हैं। यह प्राचीन भारतीय दर्शन में उपस्थित ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ और यूनानी दार्शनिकों की ‘विश्व नागरिकता’ की कल्पना का साकार पक्ष ही हैं।
कल्पना का सर्वाधिक प्रभाव मानव पर वैज्ञानिक कल्पनाओं के आविष्कार रूप में आने से पड़ा है। हमारे वर्तमान जीवन की सामान्य दिनचर्या में, सुबह उठाने के लिए अलार्म घड़ी से लेकर सोने से पहले मनोरंजन के लिए देखे जाने वाले टेलीविज़न तक, सब कुछ विज्ञान की देन है। संचार के क्षेत्र में, किसी समय बादलों व हवाओं से अपनी बात कह सुदूर परिजनों तक पहुँचाने की कल्पनाएँ भी संचार उपग्रहों की सहायता से विश्व पर छा चुकीं हैं। सोशल नेट्वर्किंग साइटों की कल्पना को एक कॉलेज ड्रॉपआउट मार्क जुकरबेर्ग ने अद्भुत रूप से वैचारिक क्रांति व संपर्क के माध्यम में बदल दिया है। परिवहन के क्षेत्र में, मीलों दूरी तय कर एक देश से दूसरे देश ‘वर्षों’ के सफ़र को कम करने की कल्पनाएँ आज बुलेट ट्रेन व जेट प्लेन के माध्यम से ‘मिनटों’ तक पहुँच चुकी हैं। चिकित्सा के क्षेत्र में, स्टेथोस्कोप से लेकर टेलीकांफ्रेंसिंग और रोबोट द्वारा किया जाने वाले ऑपरेशन तक, शिक्षा के क्षेत्र में इन्टरनेट, मीडिया के क्षेत्र में समाचार प्रसारण से लाइव टेलीकास्ट तक, मनोरंजन में वीडियो गेम से लेकर थ्री-डी फ़िल्मों तक, सब वैज्ञानिक कल्पना का साकार रूप हैं जिन्होंने किसी देश विशेष की सीमाओं से परे प्रत्येक मनुष्य के जीवन में अपनी पैठ बना ली है। विज्ञान के योगदान स्वरूप ही, सदा से ही बच्चों और बड़ों की कल्पनाओं का केंद्र रहा अंतरिक्ष भी कल्पनाओं के शासन से अछूता नहीं रहा है। खगोलविज्ञानियों के प्रयासों से मनुष्य का चाँद पर पहुँचना, मंगल पर रोवर भेजना, अंतर्राष्ट्रीय स्पेस स्टेशन का निर्माण, भारत के चंद्रयान व मंगलयान मिशन इसी की परिणति हैं। वैज्ञानिक कल्पनाओं के वास्तविकता में बदलने के इतिहास को देखकर यह असंभव नहीं लगता की एक दिन अंतरिक्ष में एलियन की कल्पना भी सच हो जाएगी।
कल्पना की शक्ति को एडमंड बर्के ने इन शब्दों में व्यक्त किया है- “जब मनुष्य अपनी भावनाओं से प्रेरित होकर काम करता है तो उसके जुनून की एक सीमा होती है, परन्तु जब वह कल्पना से प्रेरित होकर काम करता है तो उसके जुनून की कोई सीमा नहीं होती”।
कल्पना मानव स्वभाव का अभिन्न अंग है। यह असीम व स्वछन्द है। किन्तु यह कैसी होगी यह मानव स्वभाव पर निर्भर करता है। यह रचनात्मक, कलात्मक, संरचनात्मक व उत्पादक तो हो ही सकती है परन्तु यह उतनी ही घातक एवं विध्वंसात्मक भी हो सकती है। इसके विनाशक रूप को पूरा विश्व दो बार ‘विश्व युद्धों’ के रूप में देख चुका है। जापान की पिछली पीढियाँ ही नहीं वर्तमान पीढियाँ भी ‘परमाणु बम’ की कल्पना को कोसती हैं। वैश्विक घटनाओं और परिदृश्य को देखते हुए कुछ विद्वान ‘तृतीय विश्वयुद’ की संभावना भी व्यक्त करते हैं, ऐसे में यथार्थ से अधिक कल्पना से डर लगने लगता है। इन्हीं संभावित परिणामों के डर से ‘संयुक्त राष्ट्र’ जैसी संस्था कल्पना में, तत्पश्चात अस्तित्व में, आई। आतंकवाद के पक्षों को देखें तो विश्व आत्मघाती हमलावरों और स्लीपर सेल जैसी कल्पनाओं का कोई तोड़ खोज पाने में पूर्णतः कारगर साबित नहीं हो सका है
कल्पना पूर्ण रूप से काल्पनिक भी हो सकती है, जिसका वास्तविक जीवन से कोई लेना देना न हो। वे कल्पनाएँ ही समाज में अपना योगदान दे पाती हैं जो वास्तविकता से जुड़ी हों, तर्क संगत हों व सार्थक प्रयासों से परिपूर्ण हों। साथ ही पूर्ण रूप से वास्तविकता से परे रहने वाली कल्पना भी उतनी ही मजबूती से अपने महत्व को बनाए हुए है। ये मनोविज्ञान में अपना महत्व रखती हैं। मानव के तनाव को कम करने, मनोरंजन करने, मानसिक संतुलन को बनाए रखने जैसे महत्वपूर्ण कार्यों द्वारा विश्व में मजबूती से स्थापित हैं। किसी ने सच ही कहा है कि-
“कल्पना कर पाना ही सब कुछ है, कल्पना न कर पाना जीवन का अंत”
रोहित नंदन मिश्र (लेखक मुख्य निर्वाचन अधिकारी कार्यालय, उत्तर प्रदेश में समीक्षा अधिकारी हैं) |