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दृष्टि आईएएस ब्लॉग

भारतीय किसान को गरीबी के दुष्चक्र से कैसे बाहर निकाला जा सकता है

शाम को अपने परिवार के साथ बैठे सुरेंद्र को रेडियो पर एक खबर सुनाई पड़ती है- ‘पिछले साल खराब मानसून के कारण सूखे जैसे हालात थे और इस बार भी मानसून के अच्छे रहने के संकेत नहीं हैं।’ आय में लगातार हो रही कमी से सुरेंद्र को घर चलाने में पहले ही काफी मेहनत करनी पड़ रही थी, इस खबर ने तो उसका हौंसला ही पस्त कर दिया। वह सोच में डूबा जा रहा था क्योंकि कुछ महीने पहले ही उसने अपनी बेटी की शादी की थी और बड़े बेटे को पढ़ने के लिये बाहर भेजा था। और इन सबके लिये उसने गाँव के साहूकार और बैंक से काफ़ी कर्ज़ ले रखा था। उसने अपनी पत्नी से कहा कि वह सोच रहा है कि आत्महत्या कर ले जिससे कर्ज और अन्य मुसीबतों से छुटकारा मिल जाए। यहाँ सुरेंद्र कोई विशेष व्यक्ति नहीं है बल्कि कृषि संकट से जूझ रहे देश के लगभग सभी किसानों का प्रतिनिधि मात्र है।

भारत में कृषि क्षेत्र द्वारा विभिन्न उपलब्धियों को अर्जित करने के बावजूद किसान गरीबी के जाल में फँसे हुए हैं। सोचने वाली बात यह है कि भीषण अकालों से लेकर हरित क्रांति और उदारीकरण से बने बड़े बाज़ार में किसान कहाँ आते हैं, क्यों तमाम कोशिशों के बाद भी उनके हालात होरी और हल्कू जैसे ही बने हुए हैं। गौर से देखने पर पता चलता है कि इस दुष्चक्र का सबसे बड़ा कारण खेती की बढ़ती लागत है जिसने कृषि को घाटे का सौदा बना दिया है। बची कसर सरकार की नीतियाँ, बिचौलिए, साहूकार और कृषि के प्रति हमारा नज़रिया पूरा कर देता है। ऐसे में यह जानना बेहद ज़रूरी है कि आखिर किन तरीकों को अपनाकर देश के अन्नदाता को गरीबी के दुष्चक्र से बाहर लाया जा सकता है। तो चलिए जानते हैं-

किसानों के लिये ऋण की उपलब्धता

आज़ादी के बाद संस्थागत ऋण के लिये बैंको का राष्ट्रीयकरण करने के साथ-साथ नाबार्ड, क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक, किसान क्रेडिट कार्ड, ब्याज ऋण में छूट, प्राथमिकता प्राप्त क्षेत्र को उधार (Priority sector lending) देने जैसे कई प्रयास किए गए हैं, लेकिन वे संतोषजनक नहीं रहे। आज भी किसान अपनी कृषि ज़रूरतों के लिये काफ़ी हद तक असंस्थागत ऋण पर निर्भर है। और एक बार असंस्थागत ऋण के चक्र में फँसने के बाद किसान का इससे बाहर निकलना मुश्किल हो जाता है। इसलिए केंद्र और राज्य सरकारों को ऋण देने की प्रक्रिया व मानकों में बदलाव करना होगा जिससे छोटे किसानों को आसानी से कर्ज मिल सके और एक फसल चक्र की समाप्ति के बाद दूसरे फसल चक्र को शुरू करने में उन्हें असंस्थागत क्षेत्रों से कर्ज न लेना पड़े। साथ ही, बैंकों को ऋण देने में बड़े और छोटे किसानों के बीच के अंतर को समाप्त करना होगा।

कृषि का आधुनिकीकरण

भारत गाँवों का देश है इसलिए गाँवों को समृद्ध व सशक्त बनाए बिना विकसित भारत की कल्पना नहीं की जा सकती। और गाँव तब समृद्ध होंगे जब वहाँ रहने वाला किसान खुशहाल रहेगा। यह तभी संभव है जब सभी किसान खेती में आधुनिक तकनीकों का प्रयोग करें। आज भी बड़ी संख्या में किसान परंपरागत खेती पर निर्भर हैं जिससे उन्हें उत्पादन का समुचित लाभ नहीं मिल पाता। हालाँकि, सरकार और कई एग्री स्टार्टअप्स के द्वारा इस दिशा में बदलाव लाने की कोशिश की जा रही है। इसी का नतीजा है कि नवाचार, सूचना प्रौद्योगिकी, नैनो टेक्नोलॉजी और कृत्रिम बुद्धिमत्ता जैसी नई तकनीकियों के जरिये खेती अपने परंपरागत दायरे से बाहर निकलकर उद्यम के क्षेत्र में प्रवेश कर गई है। लेकिन चिंता की बात यह है कि इसका लाभ छोटे किसानों की बजाय बड़े किसानों और कंपनियों को ज़्यादा हो रहा है। इसलिए यह आवश्यक है कि इन नई तकनीकों की छोटे किसानों तक पहुँच सुनिश्चित करने के लिये सरकार उन्हें सहायता दे और उन्हें वैज्ञानिक तरीकों से खेती करने के लिये प्रोत्साहित करे। तभी सभी किसानों की तकदीर बदल सकेगी और वे भी समय के साथ कदमताल कर सकेंगे

फसलों की खरीद का दायरा बढ़ाने की ज़रूरत

केंद्र सरकार द्वारा किसानों की कुछ फसलों के लिए एक न्यूनतम कीमत तय की जाती है जिसे एमएसपी यानी न्यूनतम समर्थन मूल्य कहते हैं। एमएसपी इस आधार पर तय होती है कि किसानों को उनकी लागत का 50 फीसदी रिटर्न मिल जाए। लेकिन अक्सर देखने को मिलता है कि सही कीमत न मिलने पर किसान ने अपनी फसल को सड़कों पर फेंक दिया या जला दिया। इसका कारण सरकार की एमएसपी योजना में इन फसलों का शामिल न होना है। अभी सरकार द्वारा 23 फसलों पर एमएसपी दिया जाता है जिसमें गेहूँ और चावल की खरीद सबसे ज़्यादा होती है। सरकार को इसका दायरा बड़ा करना होगा जिससे फसल कटने के बाद किसान को उसे बेचने के लिये दर-दर की ठोकरें न खानी पड़ें।

कृषि का विविधीकरण

हरित क्रांति के परिणामस्वरूप गेहूँ और चावल जैसी कुछ लाभदायक फसलों की खेती को ही बढ़ावा दिए जाने के चलते अन्य फसलों के उत्पादन में गिरावट आयी और एकल फसल या मोनो कल्चर का चलन बढ़ गया। इससे मृदा की उर्वरता में गिरावट के साथ प्रति हेक्टेयर फसल का उत्पादन भी पहले की अपेक्षा कम हो गया। आज के समय में भी मृदा की उर्वरता बढ़ाने के लिये किसानों को ज़्यादा खाद की ज़रूरत पड़ रही है जिससे उनके बजट पर बुरा असर पड़ा है। कृषि के विविधीकरण से किसान एक साल में कई फसलें उगाकर अपनी आय बढ़ा सकते हैं।

नवीनतम कृषि गणना 2015-16 में, भारत में खेतों का औसत आकार 1.08 हेक्टेयर पाया गया है। जिससे स्पष्ट है कि कृषि का अपखंडन लगातार हो रहा है और कृषि से होने वाली आमदनी भी कम हो रही है। कृषि के विविधीकरण और सहायक गतिविधियों (जैसे- मछली पालन, झींगा पालन, वर्मी कंपोस्ट खाद बनाना और मुर्गी पालन) के उचित सुनियोजन से समृद्धि की तरफ बढ़ा जा सकता है।

खाद्य प्रसंस्करण गतिविधियों को बढ़ावा देना

खाद्य प्रसंस्करण उद्योग में किसानों की आय बढ़ाने साथ-साथ उन्हें गरीबी के दलदल से बाहर निकालने की क्षमता है। इसको बढ़ते शहरीकरण और बदलती जीवनशैली में खान-पान के तौर-तरीकों में हुए बदलावों ने साबित किया है। भारत में इस उद्योग के विकास की अच्छी संभावनाएँ हैं। इस उद्योग से जुड़े माँग और आपूर्ति, दोनों पक्ष काफ़ी मजबूत हैं। और अभी भारत के कुल खाद्य बाजार में यह उद्योग 32 प्रतिशत का योगदान देता है। सरकार को इस क्षेत्र में तेजी लाने के लिये संविदा कृषि (contract farming) को बढ़ावा देने के साथ कोल्ड स्टोरेज और परिवहन व्यवस्था को बेहतर करना होगा।

फसल बीमा की ज़रूरत

भारत में लगभग 86 प्रतिशत किसान सीमांत और लघु प्रकार के हैं। कई बार प्राकृतिक आपदाओं, बीमारियों, कीटाणुओं और स्थानीय आपदाओं के कारण फसलें बर्बाद हो जाती हैं। और अधिकतर किसान इस नुकसान को सहन करने में सक्षम नहीं होते हैं। हालाँकि इस समस्या के समाधान हेतु सरकार ने प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना के ज़रिये एक सकारात्मक पहल की है लेकिन योजना में शामिल किसानों की संख्या अभी भी बहुत कम है। फसल बीमा से किसान अपनी फसलों को सुरक्षा कवच प्रदान करने के साथ गरीबी के चंगुल में फँसने से बच सकते हैं।

किसानों को प्रत्यक्ष आय समर्थन

वर्तमान में केंद्र और राज्य सरकारें अलग-अलग योजनाओं के ज़रिए किसानों को प्रत्यक्ष आय समर्थन उपलब्ध करवा रही हैं। किसानों को ऋण के दुष्चक्र से बचाने में इन योजनाओं ने अपनी उपयोगिता सिद्ध भी की है। प्रत्यक्ष आय को ऋण माफी योजनाओं की तुलना में बेहतर माना गया है। ऋण माफी की योजनाएँ साख संस्कृति (credit culture) को खराब कर देती हैं जिसके कारण किसानों को हमेशा ऋण की समस्या बनी रहती है। इसे सामाजिक न्याय के एक उपकरण के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है।

बाज़ार की पहुँच को सुनिश्चित करना

कृषि विपणन प्रणाली के कमज़ोर होने के चलते किसानों को उनकी उपज का उचित मूल्य नहीं मिल पाता है। भंडारण क्षमता में कमी, बाज़ार संबंधी सूचनाओं का अभाव, परिवहन सुविधाओं की कमी, मंडियों की कम संख्या और बिचौलियों की अधिकता जैसी कमियों को दूर कर सभी किसानों के लिए बाज़ार की पहुँच को सुनिश्चित किए जाने की आवश्यकता है।

खेती के प्रति नज़रिए में बदलाव

खेती के प्रति हमारा नज़रिया हमेशा हेयता का रहा है। निम्न आय के चलते किसान भी अपने बच्चों को अन्य रोज़गारों के लिये प्रोत्साहित कर रहे हैं। यही कारण है कि भारत में खेती कर रहे अधिकतर लोगों की हालत मज़दूरों जैसी है, वे कौशलयुक्त नहीं हैं। हमने कभी कृषि को उद्यम बनाने का प्रयास ही नहीं किया, परिणामस्वरूप कृषि क्षेत्र में जो टैलेंट हमें मिल सकता था वह ब्रेन ड्रेन में तब्दील हो गया। पिछले कुछ वर्षों में कई युवा उद्यमियों ने बड़ी नौकरियाँ छोड़कर खेती में निवेश किया और मुनाफा भी कमाया। इससे युवा किसानों को कृषि को लेकर बेहतरी की उम्मीद जगी है। हमारे यहाँ एक प्रसिद्ध कहावत थी, ''उत्तम खेती मध्यम बान, करे चाकरी अधम स्नान'' अर्थात आजीविका का श्रेष्ठ साधन कृषि है, व्यापार और नौकरी का स्थान उसके बाद आता है। इसे पुनः चरितार्थ किए जाने की ज़रूरत है।

निष्कर्ष के तौर पर हम यह कह सकते हैं कि अगर उपर्युक्त उपायों को अमल में लाया जाए तो देश के किसानों को गरीबी के दलदल से बाहर निकाला जा सकता है। किसानों की समस्या को अलाभकारिता के संदर्भ से हटकर सामाजिक-राजनीतिक समस्या के रूप में देखा जाना चाहिए। इसके साथ ही, किसानों को भी हर दिन विकास के नये आयाम गढ़ रही इस दुनिया में अपना अंदाज बदलना होगा और मुनाफे वाली खेती के बारे में सोचना होगा।

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  शालिनी बाजपेयी  

शालिनी बाजपेयी यूपी के रायबरेली जिले से हैं। इन्होंने IIMC, नई दिल्ली से हिंदी पत्रकारिता में पीजी डिप्लोमा करने के बाद जनसंचार एवं पत्रकारिता में एम.ए. किया। वर्तमान में ये हिंदी साहित्य की पढ़ाई के साथ साथ लेखन का कार्य कर रही हैं।

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