इंदौर शाखा पर IAS GS फाउंडेशन का नया बैच 11 नवंबर से शुरू   अभी कॉल करें
ध्यान दें:

दृष्टि आईएएस ब्लॉग

भारतीय सिनेमा का इतिहास और विभिन्न पुरस्कार

भारतीय सिनेमा का इतिहास अत्यंत समृद्ध और विविधतापूर्ण है, जिसमें विभिन्न भाषाओं, संस्कृतियों और कलात्मक अभिव्यक्तियों का सम्मिलन पाया जाता है। यद्यपि हिंदी सिनेमा ने वैश्विक स्तर पर व्यापक मान्यता और प्रसिद्धि प्राप्त की है, क्षेत्रीय भाषाओं की फिल्मों ने भी भारतीय सिने कथाक्रम की इस रंगारंग माला में समान रूप से योगदान दिया है।  

भारतीय सिनेमा की  शुरुआत

भारतीय सिनेमा की जड़ें बीसवीं शताब्दी के आरंभ में देखी जा सकती हैं। प्रथम पूर्ण-अवधि की भारतीय फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ का निर्देशन दादासाहेब फाल्के द्वारा किया गया था, जो वर्ष 1913 में प्रदर्शित हुई थी। भारतीय सिनेमा के जनक के रूप में समादृत फाल्के की इस फिल्म ने भारतीय सिनेमा की नींव रखी और भविष्य के फिल्मकारों को फिल्म के माध्यम से कथा-वाचन की संभावनाओं का अन्वेषण करने के लिये प्रेरित किया। 

हिंदी सिनेमा के आरंभिक वर्ष 

आरंभिक वर्षों में हिंदी सिनेमा पर रंगमंचीय प्रदर्शनों, लोककथाओं और धार्मिक विषयों का गहरा प्रभाव रहा था। आरंभिक फिल्में मूक या साइलेंट थीं, जब तक कि 1930 के दशक में ध्वनि का आगमन नहीं हुआ। प्रथम हिंदी सवाक फिल्म या टॉकीज़ ‘आलम आरा’ वर्ष 1931 में प्रदर्शित हुई, जो एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि थी। इस फिल्म ने भारतीय सिनेमा में संगीतमय कथा-वाचन की नींव रखी, जिसने आगे चलकर इस उद्योग की विशिष्ट पहचान का निर्माण किया। हिंदी सिनेमा के विकास के साथ-साथ क्षेत्रीय सिनेमा ने भी भारत के विभिन्न भागों में आकार लेना आरंभ किया। उदाहरणस्वरूप, बंगाली सिनेमा ने वर्ष 1917 में जे. जे. मदान द्वारा निर्देशित ‘बिल्वमंगल’ के प्रदर्शित होने के साथ अपनी पहचान बनानी शुरू की। यह बंगाली फिल्म उद्योग के उद्भव का प्रतीक थी, जो आगे अपने कलात्मक एवं साहित्यिक योगदानों के लिये प्रसिद्ध हुआ। तमिल सिनेमा में प्रथम मूक फिल्म ‘कीचक वधम’ वर्ष 1918 में प्रदर्शित हुई, जिसके पश्चात् वर्ष 1931 में पहली सवाक फिल्म ‘कालिदास’ का निर्माण हुआ। इसी अवधि में तेलुगु सिनेमा का भी उदय हुआ, जहाँ वर्ष 1931 में पहली सवाक फिल्म ‘भक्त प्रह्लाद’ प्रदर्शित की गई थी। 

भारतीय सिनेमा का स्वर्णिम युग (1940-1960 का दशक) 

1940 से 1960 के दशक को प्रायः भारतीय सिनेमा का स्वर्णिम युग कहा जाता है। यह काल कलात्मक प्रयोगों, प्रभावशाली फिल्म निर्देशकों के उद्भव और सामाजिक विषयों की खोज से परिपूर्ण था। इस अवधि के दौरान हिंदी सिनेमा में राज कपूर, गुरु दत्त और बिमल रॉय जैसे उल्लेखनीय निर्देशकों का उदय हुआ। राज कपूर की ‘आवारा' (1951) जैसी फिल्मों ने सामाजिक न्याय और आम आदमी के संघर्ष जैसे विषयों को प्रस्तुत किया, जो दर्शकों के बीच गहन आत्म-विचार उत्पन्न करने में सक्षम रही। गुरु दत्त की ‘प्यासा' (1957) और ‘कागज़ के फूल’ (1959) को प्रेम, आकांक्षा और अस्तित्ववाद की जटिलताओं को चित्रित करने वाली उत्कृष्ट फिल्में माना जाता है। बिमल रॉय की ‘दो बीघा ज़मीन’ (1953) जैसी फिल्मों ने गरीबी और भूमिहीनता जैसी सामाजिक समस्याओं को उजागर किया, जो हिंदी सिनेमा में यथार्थवाद की ओर एक महत्त्वपूर्ण संक्रमण को परिलक्षित करता है। यह युग भारतीय सिनेमा के सांस्कृतिक और कलात्मक उत्कर्ष का प्रतीक था, जिसने न केवल राष्ट्रीय बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी सिनेमा के स्वरूप को नया आयाम प्रदान किया।  

इस युग में क्षेत्रीय सिनेमा का भी उत्कर्ष हुआ। सत्यजीत रे और ऋत्विक घटक की फिल्मों के साथ बंगाली सिनेमा ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति अर्जित की। रे के निर्देशन में बनी पहली फिल्म ‘पाथेर पंचाली’ (1955) को विश्व सिनेमा में एक मील का पत्थर माना जाता है। ‘अपराजिता’ (1956) और ‘अपुर संसार’ (1959) जैसी रे की अन्य फिल्मों ने भी मानवीय भावनाओं और सामाजिक संघर्ष जैसी विषयों के अन्वेषण के साथ स्थायी प्रतिष्ठा प्राप्त की। दूसरी ओर, ऋत्विक घटक ने विभाजनोत्तर बंगाल के सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य पर ध्यान केंद्रित किया। ‘मेघे ढाका तारा’ (1960) जैसी उनकी उनकी फिल्मों ने विस्थापित परिवारों के संघर्षों को दर्शाया और सामाजिक मुद्दों पर महत्त्वपूर्ण टिप्पणियाँ प्रस्तुत कीं। तमिल सिनेमा में 1950 और 1960 का दशक के. बालाचंदर और एम. जी. रामचंद्रन (MGR) जैसे प्रभावशाली फिल्मकारों के उद्भव के रूप में देखा जाता है। ‘भारती’ (1953) और ‘अरंगेत्रम’ (1973) जैसी उनकी फिल्में जटिल मानवीय भावनाओं और सामाजिक मानदंडों की पड़ताल करती हैं, जिससे तमिल सिनेमा की एक विशिष्ट पहचान स्थापित हुई। MGR, जो एक बड़े अभिनेता और राजनेता थे, क्षेत्र के सांस्कृतिक प्रतीक के रूप में उभरे। ‘नल्ला थम्बी’ (1958) और ‘आयिराथिल ओरुवन’ (1966) जैसी उनकी फ़िल्में अपने सशक्त कथानक एवं संगीत के लिये लोकप्रिय हुईं। तेलुगु फिल्म उद्योग ने भी इस अवधि के दौरान उल्लेखनीय प्रगति की, जहाँ सामाजिक मुद्दों और लोककथाओं पर आधारित फिल्में बनीं। बी. एन. रेड्डी की ‘मल्लिस्वरी’ (1951) और के. वी. रेड्डी की ‘गुंडम्मा कथा’ (1962) इस दौर की उल्लेखनीय फिल्में हैं। इसी अवधि में प्रसिद्ध अभिनेता एन. टी. रामाराव (एनटीआर) का तेलुगु सिनेमा में एक प्रमुख व्यक्तित्व के रूप में उभार हुआ, जो न केवल एक अभिनेता थे, बल्कि एक फिल्मकार और राजनेता भी थे। उन्होंने तेलुगु संस्कृति और सिनेमा पर गहरा प्रभाव डाला। 

परिवर्तन का दौर (1970-1990) 

1970 से 1990 के दशक के बीच भारतीय सिनेमा ने एक महत्त्वपूर्ण रूपांतरण देखा, जहाँ फिल्मकारों ने नए विषयों, विधाओं और कथानकों की खोज की। यह युग यथार्थवाद और सामाजिक टिप्पणी की ओर संक्रमण को चिह्नित करता है, जिसे देश के राजनीतिक एवं सामाजिक परिवर्तनों ने प्रेरित किया। 1970 के दशक में हिंदी सिनेमा में ‘एंग्री यंग मैन’ की प्रवृत्ति उभरकर आई, जिसे सलीम-जावेद की पटकथा एवं संवाद और अमिताभ बच्चन के अभिनय ने ‘जंजीर’ (1973) एवं ‘दीवार’ (1975) जैसी फिल्मों में मूर्त रूप प्रदान किया। इन फिल्मों में एक ऐसी युवा पीढ़ी को चित्रित किया गया जो समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार और अन्याय से हताश थी। ये फिल्में तेज़ी से बदलते भारत में दर्शकों के साथ गहरा संबंध स्थापित करती थीं। 

इस दौर में समानांतर सिनेमा को भी प्रमुखता मिली, जहाँ श्याम बेनेगल और जी. अरविंदन जैसे फिल्मकारों ने सामाजिक यथार्थवाद एवं मानवीय संबंधों की खोज की वहीँ 'अंकुर’ (1974) और ‘भूमिका' (1977) जैसी फिल्मों ने हाशिये पर खड़े लोगों के संघर्षों को उजागर किया तथा सामाजिक मान्यताओं पर सवाल खड़े किये। 

इस युग में क्षेत्रीय सिनेमा का भी व्यापक विकास हुआ। बंगाली सिनेमा में मृणाल सेन और बुद्धदेव दासगुप्ता जैसे निर्देशकों ने कथा-वाचन की सीमाओं को आगे बढ़ाया। ‘खंडहर’ (1984) और ‘बाड़ी थेके पलिये’ (1989) जैसी फिल्मों ने अलगाव एवं शहरी जीवन के विषयों का अन्वेषण किया, जिससे बंगाली सिनेमा की कलात्मक उत्कृष्टता की प्रतिष्ठा और भी बढ़ी। 1980 के दशक में मलयालम सिनेमा ने पुनर्जागरण का अनुभव किया, जब अदूर गोपालकृष्णन और जी. अरविंदन जैसे फिल्मकारों ने सामाजिक मुद्दों और मानवाधिकारों पर केंद्रित फिल्में बनाईं। अदूर की 'स्वयंवरम’ (1972) और ‘मथिलुकल' (1990) ने मलयालम सिनेमा की गहन कथा शैली एवं चरित्र विकास को प्रतिबिंबित किया। ‘न्यू वेव सिनेमा’ ने नवीन कथा-वाचन तकनीकों का परिचय दिया, जहाँ ‘पिरावी’ (1988) और ‘चिदम्बरम’ (1988) जैसी फिल्मों को उनकी कलात्मक दृष्टि के लिये सराहा गया। इस दौर में तमिल सिनेमा में रजनीकांत और कमल हसन जैसे बड़े सितारों का उदय हुआ, जिन्होंने व्यावसायिक सिनेमा की लोकप्रियता में योगदान दिया। ‘बाशा’ (1995) और ‘मुथु’ (1995) जैसी फिल्में सांस्कृतिक परिघटना की तरह सामने आईं जहाँ प्रभावशाली कथानकों का प्रदर्शन किया गया। तेलुगु सिनेमा ने भी इस अवधि के दौरान प्रगति की, जिसमें नवयुगीन फिल्मकारों का उदय हुआ और चिरंजीवी एवं वेंकटेश जैसे सितारों का उभार देखा गया। ‘शंकराभरणम्’ (1980) जैसी फिल्म सांस्कृतिक मील का पत्थर सिद्ध हुई, जिसने भारतीय शास्त्रीय संगीत की समृद्ध विरासत को उजागर किया। 

सिनेमा का समकालीन दौर (2000-वर्तमान) 

नई सहस्राब्दी की शुरुआत भारतीय सिनेमा में महत्त्वपूर्ण बदलाव लेकर आई, जिसमें डिजिटल प्रौद्योगिकी का आगमन, वैश्वीकरण और नई कथा-वाचन शैलियों का उदय शामिल है। यह हिंदी सिनेमा के पुनर्जागरण का दौर रहा जहाँ 2000 के आरंभिक दशक में ‘बॉलीवुड’ एक वैश्विक ब्रांड के रूप में उभरकर सामने आया। ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जाएँगे" (1995) और 'लगान’ (2001) जैसी फिल्मों ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रशंसा प्राप्त की, जिससे हिंदी फिल्मों के प्रति विश्वव्यापी रुचि का नवजीवन हुआ। '3 इडियट्स’ (2009) और ‘पीके’ (2014) जैसी मज़बूत कथानक एवं सांस्कृतिक विषयों वाली फिल्मों की सफलता ने हिंदी सिनेमा की वैश्विक स्तर पर स्थिति को और सुदृढ़ किया। इस दौर में क्षेत्रीय सिनेमा के वैश्विक प्रभाव में भी वृद्धि हुई। बंगाली सिनेमा में रितुपर्णो घोष एवं कौशिक गांगुली और मलयालम सिनेमा में लिजो जोस पेल्लीसेरी और दिलीश पोथन जैसे निर्देशकों ने अपनी नवीन कथा-वाचन शैली के लिये पहचान अर्जित की। डिजिटल मंचों और वैश्विक वितरण के आगमन ने तमिल सिनेमा के लिये कथा-वाचन के नए अवसर खोले। इस दौर में तेलुगु सिनेमा को विशेष रूप से वैश्विक स्तर पर मान्यता प्राप्त हुई, जहाँ एस. एस. राजामौली द्वारा निर्देशित ‘बाहुबली’ (2015) और 'आरआरआर’ (2022) जैसी फिल्मों ने न केवल बॉक्स ऑफिस पर रिकॉर्ड तोड़े, बल्कि अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोहों में प्रशंसा भी प्राप्त की। भारतीय सिनेमा का यह युग वैश्विक मान्यता, नई तकनीकों और विविध कथा शैलियों के माध्यम से भारतीय फिल्म उद्योग को निरंतर समृद्ध एवं विस्तारित कर रहा है। 

समकालीन दौर में हिंदी, तेलुगु, कन्नड़, तमिल, मलयालम, बंगाली के साथ ही भोजपुरी, मराठी, गुजराती, ओड़िया एवं पंजाबी भाषाओं में भी बड़ी संख्या में फिल्मों का निर्माण हो रहा और समन्वित रूप से भारतीय सिनेमा एक बड़े उद्योग का आकार ले चुका है जो लाखों लोगों को रोज़गार प्रदान करता है और देश की आर्थिक वृद्धि में योगदान करता है। 

भारत में हिंदी और क्षेत्रीय भाषा के सिनेमा का इतिहास देश की समृद्ध सांस्कृतिक विविधता एवं कलात्मक अभिव्यक्ति का प्रमाण है। प्रारंभिक मूक फिल्मों से लेकर समकालीन वैश्विक सफलताओं तक, हिंदी और क्षेत्रीय सिनेमा दोनों ने भारतीय सिनेमा के कथा-परिदृश्य को आकार देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। हिंदी और क्षेत्रीय सिनेमा का निरंतर विकास भारतीय फिल्म निर्माण की जीवंत भावना को सतत रखने का वादा करता है, जिससे यह आने वाले वर्षों में एक महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक शक्ति बना रहेगा। 

भारत में फिल्म पुरस्कार 

  • राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार- वर्ष 1954 में स्थापित राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार भारतीय सिनेमा के सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कारों में से एक हैं। इनका आयोजन सूचना और प्रसारण मंत्रालय के तहत फिल्म महोत्सव निदेशालय द्वारा किया जाता है। राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार समावेशी स्वरूप रखते हैं और सभी क्षेत्रों एवं भाषाओं की फिल्मों को शामिल करते हैं। इनके तहत फीचर फिल्म और गैर-फीचर फिल्म श्रेणी में श्रेष्ठ फिल्म, श्रेष्ठ अभिनेता/अभिनेत्री, श्रेष्ठ निर्देशन, श्रेष्ठ छायांकन, पटकथा एवं संपादन आदि को चिह्नित किया जाता है। 
  • फिल्मफेयर पुरस्कार- टाइम्स ग्रुप द्वारा आयोजित फिल्मफेयर पुरस्कार व्यावसायिक सिनेमा को विशेष रूप से चिह्नित करता है। इन्हें ‘बॉलीवुड के ऑस्कर’ के रूप में देखा जाता है। इन पुरस्कारों के दायरे को बढ़ाते हुए अब क्रिटिक्स अवार्ड भी प्रदान किये जाते हैं। हालाँकि, फिल्मफेयर पुरस्कार अत्यधिक लोकप्रिय हैं, इन्हें प्रायः मुख्यधारा के सिनेमा को अधिक प्राथमिकता देने के लिये आलोचना का सामना करना पड़ा है। फिर भी, ये बॉलीवुड में सफलता का महत्त्वपूर्ण मानक बने हुए हैं। 
  • IIFA पुरस्कार- अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर, IIFA पुरस्कार भारतीय सिनेमा को वैश्विक पहचान दिलाने का प्रयास करते हैं। ये पुरस्कार भारतीय प्रवासी और अन्य देशों के दर्शकों के बीच भारतीय सिनेमा की लोकप्रियता को बढ़ावा देते हैं। पुरस्कार समारोह का आयोजन भिन्न-भिन्न देशों में किया जाता है। 
  • दादासाहेब फाल्के पुरस्कार-भारतीय सिनेमा के जनक दादासाहेब फाल्के के नाम पर सृजित यह पुरस्कार भारतीय सिनेमा का सर्वाधिक प्रतिष्ठित सम्मान है। वर्ष 1969 में स्थापित यह पुरस्कार भारतीय सिनेमा में अद्वितीय एवं सुदीर्घ उपलब्धियों को मान्यता प्रदान करता है। यह पुरस्कार उन व्यक्तियों को सम्मानित करता है जिन्होंने भारतीय सिनेमा के इतिहास और भविष्य को आकार प्रदान किया है। 
  • क्षेत्रीय फिल्म पुरस्कार- भारत के क्षेत्रीय फिल्म उद्योग अपने विशेष भाषा क्षेत्रों के भीतर उत्कृष्टता को मान्यता देने के लिये अपने स्वयं के पुरस्कार आयोजित करते हैं। इनमें नंदी पुरस्कार (तेलुगू फिल्म उद्योग का सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कार), तमिलनाडु राज्य फिल्म पुरस्कार, केरल राज्य फिल्म पुरस्कार, महाराष्ट्र राज्य फिल्म पुरस्कार आदि शामिल हैं। 

अंत में, भारतीय सिनेमा मनोरंजन का साधन भर नहीं है, बल्कि यह समाज का दर्पण, संस्कृति की अस्मिता और मानव भावनाओं का एक समृद्ध अन्वेषण है। भारतीय सिनेमा का इतिहास विविधता, समृद्धता और उत्कृष्टता से परिपूर्ण है। डिजिटल मीडिया और ओटीटी के प्रसार के साथ भारतीय सिनेमा की पहुँच का विस्तार हो रहा है। भारतीय संगीत, नृत्य, कला एवं अन्य अभिव्यक्ति शैली के वाहक के रूप में भारतीय सिनेमा की वैश्विक अपील बढ़ी है। हाल के समय में विभिन्न देशों में भारतीय सिनेमा की उपलब्धियों और वैश्चिक मंच पर इसकी मान्यता ने भारत की सांस्कृतिक छवि के निर्माण में योगदान किया है। उम्मीद की जाती है कि अभिनव सोच एवं प्रयोग के साथ भविष्य में भारतीय सिनेमा का और विकास होगा।

  आलोक अनंत  

आलोक अनंत स्वतंत्र लेखक और पत्रकार हैं। साहित्य, कला और सिनेमा में विशेष अभिरुचि रखते हैं।

-->
close
एसएमएस अलर्ट
Share Page
images-2
images-2