हिंदुस्तानी संगीत बढ़ाता है मन की एकाग्रता !
- 09 Aug, 2021 | प्रवीण झा
अक्सर हम एक कोलाहल में पढ़ते हैं। बाहर सड़क से ऑटो या ट्रक के गुजरने की आवाज, दूर किसी कुत्ते का भूँकना, पड़ोस के अंकल का गला खखारना, सब्जी वाले का पुकारना, दोस्तों का बतियाना या जोर-जोर से बेसुरा गाना। हर तरफ़ शोर है। मैं आवासीय विद्यालय में पढ़ा हूँ जहाँ सैकड़ों बच्चे दोमंजिले बिस्तरों पर साथ-साथ रहते। सभी एक ही हॉल की शृंखला में हैं, और पहले बेड का बच्चा दसवें बेड के बच्चे से जोर-जोर से बतिया रहा है। उसी कोलाहल में हमें पढ़ना होता, मैट्रिक की परीक्षा देनी होती। ऐसे में फोकस बने कैसे? कैसे वे सभी शोर लुप्त हो जाएँ, और हम सिर्फ़ किताब पर केंद्रित रहें? जैसे अर्जुन को चिड़िया की आँख नज़र आती, वैसा ध्यान हमारा कैसे बने?
कई लोग अलग-अलग टोटके लगाते हैं। कोई कान के अंदर रुई डाल लेता है कि कोई और आवाज़ न सुनें। आज-कल एक ‘न्वाइज कैंसिलेशन’ हेडफ़ोन आया है, जो बाहर का शोर खत्म कर देता है और आप किसी हिमालयी गुफा की शांति घर बैठे पाते हैं। कुछ लोग बाहर का शोर खत्म करने के लिए अपने आस-पास उससे अधिक शोर ले आते हैं। जैसे मेरे एक मित्र अमरीकी रॉक-बैंड मेटालिका के कर्णभेदी गीत ‘फुल वॉल्यूम’ पर लगा देते और उन्हें कुछ भी और नहीं सुनाई देता। उन्होंने शोर से शोर को यूँ खत्म किया था, जैसे महाभारत धारावाहिक में दर्जनों तीरों को एक तीर से खत्म किया जाता था। एक और मित्र कुछ नशीली दवाई लेते, जिससे उन्हें कुछ भी नहीं सुनाई देता। वह जैसे दुनिया से दूर, हाथ में किताब लिए, कहीं आसमान में विचरण करने लगते। लेकिन, ये सभी हल मुझे ख़ास पसंद नहीं आए।
शोर को खत्म करने का उपाय उससे अधिक शोर करना नहीं, बल्कि शोर को कर्णप्रिय संगीत में बदलने से है। जैसे पंछियों का कलरव, पत्तों की खरखराहट, या जल का कल-कल बहना शोर नहीं है। यह प्रकृति का ताल-बद्ध संगीत है। इससे हमारी तंद्रा भंग नहीं होती। लेकिन, आप यह ध्वनि अपनी मर्जी से तो नहीं रच सकते। पंछी की आवाज सुनने के लिए एक कोयल तो नहीं पाल सकते। कुल्लू नदी का बहाव कमरे में कहाँ से लाएँगे? हालाँकि मैंने यह प्रयोग भी किया है। छुटपन में तबला-वादक ज़ाकिर हुसैन की कुछ कैसेट लाया था- ‘एलिमेंट्स’ एल्बम से। इसके अलग-अलग कैसेट में जल और हवा के बने, धूल उड़ने, आग की धधक, पंछियों का स्वर आदि सुनाई देते। यह संगीत से प्रकृति का माहौल रचा गया था। लेकिन, मुझे मालूम था कि यह आवाज ऑडियो-प्लेयर से आ रही है, तो यह कृत्रिम प्रकृति ही लगती।
मेरा झुकाव इसकी बजाय असल संगीत की ओर गया। फ़िल्मी और हिंदुस्तानी संगीत की तरफ़। रेडियो बजा कर पढ़ना, या यूँ ही गुनगुनाते हुए पढ़ना। यह आदत आज तक कायम है, और यकीन मानिए डाक्टरी की पढ़ाई में मोटी किताबें भी काफ़ी हद तक जेहन में बैठी, याद रही। मगर यह इतना सरल भी नहीं है। अगर कोई चुलबुला गीत बजने लग जाए, और आप किताब छोड़ नाचने लगे, तो पढ़ाई का क्या होगा? अगर आपके पड़ोसी को, रूम-मेट को तकलीफ़ हो तो हम क्या करेंगे? अगर रेडियो पर सारे नीरस गाने आ रहे हों, या हम यूट्यूब पर अपना मनचाहा गीत बदलते ही समय व्यर्थ कर दें, तो पढ़ेंगे कब? किसी रूमानी गीत को सुनते ही किसी की याद आ जाए, तो क्या हम खयालों में खो जाएँगे?
मैं अब यहाँ से बात भटका कर खेल की दुनिया में ले जाता हूँ। मुल्तान में जब वीरेंद्र सहवाग ने तिहरा शतक बनाया तो उन्होंने इसका क्रेडिट एक वेंकी नामक व्यक्ति को दिया। मैं सोच में पड़ गया कि यह कौन वेंकी हैं, जिनका नाम क्रिकेट के क्षेत्र में मैंने नहीं सुना। बाद में पता लगा कि एक व्यक्ति हैं जो खेल का वीडियो विश्लेषण कर खिलाड़ियों को सुझाव देते हैं। उन्होंने सहवाग को ख़ास सुधार बताए थे, जो काम कर गए। उन्हीं वेंकी को जब राहुल द्रविड़ और सचिन तेंदुलकर ने संपर्क किया, तो उन्होंने कुछ तकनीकी सुझाव के साथ-साथ एक संगीत की सीडी पकड़ाई। यह हिंदुस्तानी और कर्नाटिक संगीत पर आधारित एक सीडी थी। भला आधुनिक दुनिया के क्रिकेट खिलाड़ी को इस प्राचीन संगीत परंपरा को सुन कर भला क्या मिलेगा? अगर खेलते-खेलते सो गए तो? मगर राहुल द्रविड़ ने इसे सुना, और साथ-साथ अपने खेलों के वीडियो देखे। उनका नियंत्रण बेहतर होता गया, और यह बताने की ज़रूरत नहीं कि उनके खेल में असीम धैर्य था।
दरअसल हिंदुस्तानी संगीत जिसे क्लासिकल या शास्त्रीय संगीत भी कहते हैं, वह बना ही इस लिहाज से है। वह ध्यान, योग या मनन के लिए है। इसे सुनते हुए व्यक्ति एक अलग दुनिया में प्रवेश करता है। मेरे लिए यह शुरुआत में बड़ा ही नीरस रहा, और पाँच मिनट से अधिक नहीं झेल पाया। लेकिन, मैं अदल-बदल कर सुनता गया। इसकी एक ख़ासियत यह थी कि इसमें गाना बदलने की ज़रूरत नहीं होती। एक प्रस्तुति ही आधे, एक या डेढ़ घंटे की होती। आप पंडित रविशंकर का सितार लगा कर छोड़ दें, उसमें कोई गीत है ही नहीं कि आप गुनगुना सकें। वह नेपथ्य में एक-डेढ़ घंटे बजता रहेगा।
दूसरी बात यह है कि इस संगीत की रचना उस तरह ही होती है कि हम धीरे-धीरे बढ़ते हैं। पहले धीमी गति से विलंबित आलाप चलता है, जो शुरू में नीरस लग सकता है; लेकिन, आदत पड़ने पर यह हिस्सा किताब पर ध्यान लाने में सबसे अधिक कारगर है। आप अगर वीडियो देखेंगे तो संगीतकार इस चरण में आँखें बंद कर कहीं खोए रहते हैं। हम भी इस चरण में खो जाएँगे। उसके बाद गति तेज होगी, जिसे जोर, झाला और द्रुत झाला कहते हैं। एक बार ध्यान-केंद्रित होने पर हमारी भी पढ़ने की गति बढ़ती जाती है। उसके बाद आती है कम्पोजिशन या बंदिश, जिसमें होता है गाने लायक गीत। जैसे आप पढ़ कर अब मन में एक अंतिम खाका तैयार कर रहे हों। आखिर में जब तराना या लयकारी होती है, तो हम भी किताब के साथ-साथ झूमने लगते हैं। यह पूरा चक्र बार-बार करने से शब्द और विचार मन में अंकित होते जाते हैं।
अच्छे हेडफ़ोन आने के बाद यह दुनिया अधिक व्यक्तिगत होती गई। आप, आपकी किताब, और आपके कानों में आ रही आपके मन की संगीत। कोई और शोर नहीं। मैं इस विषय पर यह भी लिखना चाहता हूँ कि हर प्रहर के लिए अलग-अलग राग हैं, हर मूड के लिए भी। वे बने ही इस तरह हैं कि जब सुबह पढ़ने बैठें तो भैरव सुने, दोपहर में भीमपलासी, गोधूलि बेला में मारवा, और इसी तरह रात में यमन, बागेश्री आदि सुनते जाएँ। मगर वह तकनीकी पहलू है। हर व्यक्ति अपने लिहाज से यह चयन करे कि कैसा संगीत सुनेंगे या सुनेंगे भी या नहीं। दुनिया में कई सफल व्यक्ति पढ़ते समय संगीत नहीं सुनते, मगर शोर से मुक्ति और ध्यान में वृद्धि का कोई न कोई टोटका ज़रूर अपनाते हैं।
[प्रवीण झा] |