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दृष्टि आईएएस ब्लॉग

गजानन माधव 'मुक्तिबोध'

प्रगतिशील कविता और नई कविता के मध्य सेतु

गजानन माधव 'मुक्तिबोध' का जन्म 13 नवंबर, 1917 को तात्कालिक मध्य प्रदेश के ग्वालियर ज़िले में स्थित श्यौपुर कस्बे में हुआ था। स्वातंत्र्योत्तर प्रगतिशील काव्यधारा के प्रतिनिधि कवि मुक्तिबोध कहानीकार और समीक्षक भी थे। इन्होंने प्रगतिशील कविता और नई कविता के मध्य सेतु की भाँति कार्य किया।

मुक्तिबोध के पिता पुलिस विभाग में इंस्पेक्टर थे और नौकरी के कारण उनका तबादला होता रहता था जिससे मुक्तिबोध की पढ़ाई में दिक्कतें भी आती थीं। उन्होंने इंदौर के होल्कर विश्वविद्यालय से बीए करने के बाद मॉडर्न स्कूल में अध्यापन का कार्य भी किया। कॉलेज की पढ़ाई के दौरान सहपाठी शांताराम से उनकी दोस्ती हो जाती है। बाद में शांताराम यहीं गश्त की ड्यूटी पर तैनात हो जाते है। शांताराम के साथ की गई घुमक्कड़ी के दौरान प्राप्त अनुभवों का प्रभाव उनके लेखकीय जीवन पर भी पड़ा।

'मुक्तिबोध' ने छोटी सी आयु मे ही पढ़ाना शुरू कर दिया था। बडनगर के मिडिल स्कूल में अध्यापन करने के बाद वर्ष 1940 में मुक्तिबोध शुजालपुर के शारदा शिक्षा सदन में पढ़ाने लगे। इसके बाद उज्जैन, कलकत्ता, इंदौर, बंबई, बंगलौर, बनारस तथा जबलपुर आदि जगहों पर भी नौकरी की। इसी बीच 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान जब शारदा शिक्षा सदन बंद हो गया तो वे उज्जैन चले गए। इस दौरान उन्होंने भिन्न-भिन्न नौकरियाँ भी की- अध्यापन, वायुसेना, पत्रकारिता आदि।

स्थायी नौकरी न होने के कारण उन्हें आर्थिक तंगी से भी जूझना पड़ा। उनकी पत्नी शांता मुक्तिबोध ने भी विभिन्न साक्षात्कारों में इस बात को स्वीकारा है कि गजानन माधव 'मुक्तिबोध' हमेशा परिवार, बच्चे और जीवन यापन को लेकर परेशान रहते थे। नौकरी बदलने के दौरान ही उन्होंने सूचना एवं प्रसारण विभाग में भी काम किया। इसके बाद आकाशवाणी से भी जुड़े एवं साप्ताहिक पत्र “नया खून” का भी संपादन किया। इसी बीच वर्ष 1954 में उन्होंने नागपुर विश्वविद्यालय से परास्नातक भी किया। मुक्तिबोध की नौकरी की तलाश का अंत तब होता है जब 1958 में दिग्विजय महाविद्यालय, राजनंदगाँव में प्राध्यापक के पद पर उनकी नियुक्ति होती है।

Gajanan-madhav

गजानन माधव 'मुक्तिबोध' और उनकी पत्नी शांता मुक्तिबोध

मुक्तिबोध के रचना संसार पर प्रकाश डालें तो इनकी कविता पहली बार वर्ष 1943 में सच्चिदानंद हीरानंद वात्सायन 'अज्ञेय' के संपादन में निकलने वाली पत्रिका तारसप्तक में छपी। मनुष्य की अस्मिता, आत्मसंघर्ष और प्रखर राजनैतिक चेतना से समृद्ध उनकी यह कविता उनकी राजनीतिक विचारधारा को भी परिलक्षित करती है। उन पर मार्क्सवाद की विचारधारा का स्पष्ट प्रभाव दिखाई देता है। इसलिये नई कविता आंदोलन के वे प्रमुख कवि भी हैं।

हालाँकि मुक्तिबोध के जीवनकाल में उनका कोई स्वतंत्र काव्य संग्रह न प्रकशित हो सका। हाँ! उनकी मृत्य के पहले श्रीकांत वर्मा ने उनकी 'एक साहित्यिक की डायरी' ज़रूर प्रकाशित की थी। इस रचना का दूसरा संस्करण उनकी मृत्यु के दो महीने बाद प्रकाशित हुआ। मुक्तिबोध का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण काव्य संग्रह 'चाँद का मुँह टेढ़ा' है।

'चाँद का मुँह टेढ़ा है' मुक्तिबोध की उन लंबी कविताओं का प्रतिनिधि काव्य है जो एक विस्तृत प्रारूप लिये होती है। जिस प्रकार एक म्यूरल पेटिंग में कलाकार रंगों की अद्भुत मिलावट से एक जीवंत चित्र उकेर देते हैं उसी प्रकार मुक्तिबोध की रचनाएँ भी एक विशाल म्यूरल पेंटिंग के मानिंद जीवंतता लिये रहती है। ये रचनाएँ आधुनिक प्रयोगवादी स्वरूप की हैं जिसका काव्य शिल्प ठोस और स्थिर होता है। ये रचनाएँ गहन व कसे हुए ट्रैजिक संबंधों का जाल भी बुनती है।

आप यदि मुक्तिबोध के काव्यपाठ को उनकी जुबानी ही सुनते तो आप एक अलग ही दुनिया मे चले जाते हैं। उनके द्वारा काव्य पाठ को समाप्त किये जाते ही आपको ऐसा प्रतीत होता कि आपने कोई बेहद डरावनी फ़िल्म देखी हो और सहसा चेतनावस्था में लौट आये हों। मुक्तिबोध अपनी कविताओ में ऐसे बिंब संसार की रचना करते हैं मानो किसी नाट्य मंच पर त्रासदपूर्ण नाटकों का मंचन चल रहा हो। यह कविताएँ बेशक साठ के दशक में मुक्तिबोध द्वारा रची गई है किंतु ये आज भी प्रासंगिक है। दरअसल इन कविताओं में आम मध्यम वर्ग की करूण व्यथाओं को बेहद मार्मिकता के साथ चित्रात्मक शैली में उकेरा गया है। इन्हें पढ़ते हुए आपको मैक्सिकन भित्ति चित्रों के अवलोकन सदृश अनुभूति का अनुभव होता है। जैसे कि 'चाँद का मुँह टेढ़ा है' का यह अंश बेहद पठनीय है-

"नगर के बीचों-बीच
आधी रात- अँधेरे की काली स्याह
शिलाओं से बनी हुई
भीतों और अहातों के, काँच-टुकड़े जमे हुए
ऊँचे-ऊँचे कंधों पर
चाँदनी की फैली हुई सँवलायी झालरें.
कारखाना- अहाते के उस पार
धूम्र मुख चिमनियों के ऊँचे-ऊँचे
उद्गार - चिह्नाकार - मीनार
मीनारों के बीचों-बीच
चाँद का है टेढ़ा मुँह !!
भयानक स्याह सन तिरपन का चाँद वह !!
गगन में कर्फ्यू है
धरती पर चुपचाप जहरीली छिः थूः है !!"

'चाँद का मुँह टेढ़ा है' काव्य संग्रह के बाद गजानन माधव 'मुक्तिबोध' का दूसरा काव्य संग्रह ‘भूरी-भूरी खाक धूल’ प्रकाशित होता है। इस काव्य संग्रह की कविताओं में मुक्तिबोध अपनी व्यक्तिगत प्रतीक व्यवस्था के माध्यम से सार्वजनिक एवं निजी जीवन के मध्य अद्भुत संयोग की स्थापना करते है। मुक्तिबोध एक ऐसे कवि है जो सामयिक परिस्थितियों में अपने दिल-ओ-दिमाग को साधते हुए काव्य रचते है। वो एक कुशल प्रेक्षक भी है जो समाज में घट रही घटनाओं का समग्रता के साथ विश्लेषण करता है और फिर काव्यात्मक अभिव्यक्तियों के माध्यम से अपने अनुभव की एक यथार्थवादी व्याख्या करता है।

मुक्तिबोध अपनी कविताओं में मनुष्यता के लगातार होते जा रहे ह्रास के लिये सिर्फ समाज को ही दोषी नहीं ठहराते है बल्कि वो समाज में आ रही इस गिरावट के लिये स्वयं की भी जवाबदेही तय करते हैं। इसीलिये उनकी कविता एक कवि के दृष्टिकोण से लिखी गई भावना मात्र न लगती है बल्कि ये उनकी निजी प्रामाणिकता से भी ओतप्रोत होती है। ‘भूरी-भूरी खाक धूल’ की कविताओं में इन सारी विशेषताओं को समग्रता के साथ देखा भी जा सकता है-

“पूर्व-युगों में भी खूब बुराईयांँ रही आयीं
किन्तु, वे भीमाकार शक्ति-रूप
दिखलाई जाती थीं,
रावण व कुम्भकर्ण, शैतान
उनका ही रूप था ।
उनसे डरा जाता था, उनसे लड़ा जाता था ।
उनके विरुध्द वह
पाप-भीरु मृदु-तन
बहुत कड़ा रहता था समुध्दत !”

मुक्तिबोध की कविताएँ अपने युग की बड़ी बुराइयों पर भी तीखा वार करती है। 'अँधेरे में' नामक कविता में समाज के एक खास वर्ग का सत्ता के साथ गठजोड़ होने के परिणामस्वरूप आम लोगों पर किये जाने वाले अत्याचारों को काव्यात्मक अभिव्यक्ति का रूप दिया गया है। इस कविता का एक अंश प्रस्तुत है-

"इस तरह, साँकल ही रह-रह बजती है द्वार पर
आधी रात, इतने अँधेरे में, कौन आया मिलने?
विमन प्रतीक्षातुर कुहरे में घिरा हुआ
द्युतिमय मुख - वह प्रेम भरा चेहरा --
भोला-भाला भाव--
पहचानता हूँ बाहर जो खड़ा है !!
यह वही व्यक्ति है, जी हाँ !
जो मुझे तिलस्मी खोह में दिखा था।
अवसर-अनवसर
प्रकट जो होता ही रहता
मेरी सुविधाओं का न तनिक ख़याल कर।
चाहे जहाँ,चाहे जिस समय उपस्थित,
चाहे जिस रूप में
चाहे जिन प्रतीकों में प्रस्तुत,
इशारे से बताता है, समझाता रहता,
हृदय को देता है बिजली के झटके !!"

मुक्तिबोध ने निजी जीवन में एक लंबे समय तक संघर्ष झेला था। कालांतर में जब ये उच्च शिक्षा के क्षेत्र में अध्यापन कार्य से जुड़े तो इन्हें बुद्धजीवी वर्ग के अंतर्मन में उठने वाले द्वंद्व को भी जानने, समझने और महसूस करने का अवसर मिला। अपने 'भोगे हुए यथार्थ' को इन्होंने 'ब्रह्मराक्षस' नामक कविता में बेहद मार्मिक तरीके से वर्णित किया है-

"शहर के उस ओर खंडहर की तरफ़
परित्यक्त सूनी बावड़ी
के भीतरी
ठण्डे अंधेरे में
बसी गहराइयाँ जल की...
सीढ़ियाँ डूबी अनेकों
उस पुराने घिरे पानी में...
समझ में आ न सकता हो
कि जैसे बात का आधार
लेकिन बात गहरी हो।

बावड़ी को घेर
डालें खूब उलझी हैं,
खड़े हैं मौन औदुम्बर।
व शाखों पर
लटकते घुग्घुओं के घोंसले
परित्यक्त भूरे गोल।
विद्युत शत पुण्यों का आभास
जंगली हरी कच्ची गंध में बसकर
हवा में तैर
बनता है गहन संदेह
अनजानी किसी बीती हुई उस श्रेष्ठता का जो कि
दिल में एक खटके सी लगी रहती।"

गजानन माधव 'मुक्तिबोध' की कविताएँ नए सृजन का विस्फोट है क्योंकि ये एक सजग समाज की रचना रचने को आतुर है। एक ऐसा समाज, जहाँ राजनीतिक व्यवस्था में लोगों की पूरी की पूरी भागीदारी हो। इसके साथ ही समाज में एक सच्ची समानता स्थापित करना भी उनका मूलभूत उद्देश्य है। मुक्तिबोध ने कविताओं के अतिरिक्त आलोचना विधा पर भी अपनी कलम चलाई है। इनकी प्रमुख आलोचनात्मक कृतियाँ है- नए साहित्य का सौंदर्यशास्त्र, कामायनी: एक पुनर्विचार।

गजानन माधव 'मुक्तिबोध' एक तरफ जहाँ कुशल प्रेक्षक थे तो दूसरी तरफ सामाजिक व्यवस्थाओं को समझ के उसका विश्लेषण करने की भी उनमें कुशाग्रता थी। मुक्तिबोध की इस सूक्ष्म दृष्टिकोण को हरिशंकर परसाई द्वारा उन पर लिखे गए संस्मरण 'मुक्तिबोध संबंधों में लचीले मगर विचारों में इस्पात की तरह थे' के प्रस्तुत अंश में भी समझा जा सकता है-

"वर्ग-चेतना के तीव्र बोध की एक-दो घटनाएंँ दिलचस्प हैं। मुझ पर एक प्रकाशक ने कॉपीराइट का मुकदमा चला दिया था। मुक्तिबोध आए हुए थे। दिसंबर का महीना था। भोजन करके वे सामने के मैदान में बैठे थे। मैं कचहरी जाने लगा, तो पूछा-पार्टनर, मजिस्ट्रेट कौन है? मैंने नाम बताया। वे बोले - नाम से मालूम होता है कि वह नीची जाति का है। विदर्भ में होते हैं ये लोग। आप छूट जाएंगे। मैंने पूछा - यह अंदाज़ आपको कैसे लगा? उन्होंने कहा - वह नीची जाति का है न! उसकी वर्ग-सहानुभूति लेखक के प्रति होगी, प्रकाशक के साथ नहीं। संयोग से मुकदमा खारिज हो गया।"

मुक्तिबोध को आर्थिक तंगहाली से इतर भी अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ा। उनकी पुस्तक 'भारत: इतिहास और संस्कृति' पर प्रतिबंध लगा दिया था। इस पूरे घटनाक्रम ने उन्हें तोड़ कर रख दिया था। वो भय और असुरक्षा से ग्रसित रहने लगे थे। इस मुद्दे पर उनका कहना था- यह नंगा फासिज्म है। लेखक को लोग घेरें, शारीरिक क्षति की धमकी दें। इधर सरकार सुनने तक को तैयार नहीं। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जा रही है। गला दबाकर आवाज घोंटी जा रही है।

गजानन माधव 'मुक्तिबोध' अपनी विचारों व मान्यताओं के मामले में जितने सधे हुए थे, जीवन की व्यवस्था के मामले में वे उतने ही बेतरतीब थे। अपने स्वास्थ्य के प्रति वे बेहद ही लापरवाह थे। अपने अंतिम समय मे वे भोपाल के हमीदिया अस्पताल में भर्ती थे। यही पर 11 सितंबर, 1964 को उनका देहांत हो गया। भोपाल के हमीदिया अस्पताल में मुक्तिबोध जब जिंदगी और मौत की लड़ाई लड़ रहे थे, तब उस बेचैनी और तड़प को देखकर मोहम्मद अली ‘ताज‘ ने कहा था -

"उम्र-भर जीने का न अन्दाज आया
जिन्दगी छोड़ दे पीछा मेरा मैं बाज आया।"

  संकर्षण शुक्ला  

संकर्षण शुक्ला उत्तर प्रदेश के रायबरेली जिले से हैं। इन्होने स्नातक की पढ़ाई अपने गृह जनपद से ही की है। इसके बाद बीबीएयू लखनऊ से जनसंचार एवं पत्रकारिता में परास्नातक किया है। आजकल वे सिविल सर्विसेज की तैयारी करने के साथ ही विभिन्न वेबसाइटों के लिए ब्लॉग और पत्र-पत्रिकाओं में किताब की समीक्षा लिखते हैं।

स्रोत-

(1) https://satyagrah.scroll.in/article/102233/parsai-on-muktibodh 

(2) https://hindi.news18.com/news/literature/hastakshar-gajanan-madhav-muktibodh-ki-kavita-hindi-poetry-sahitya-and-literature-4580319.html 

(3) https://m.bharatdiscovery.org/india/%E0%A4%97

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