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दृष्टि आईएएस ब्लॉग

प. जवाहरलाल नेहरू: आधुनिक भारत के निर्माता

“जो बात जानना सबसे जरुरी है वह यह कि इस विशाल भूमि में फैले भारतवासी सबसे ज्यादा मायने रखते हैं। भारत माता यही करोड़ों-करोड़ जनता है और भारत माता की जय उसकी भूमि पर रहने वाले इन सबकी जय है।”

उपरोक्त पंक्तियां पढ़ने पर तुरंत अनुमान लगाना मुश्किल लग रहा है कि आखिर कौन इस तरह भारत माता को परिभाषित करते हुए जय बोल रहा है। यह कथन आज़ादी के एक ऐसे महानायक का है जिसके बारे में असंख्य अप्रमाणित सकारात्मक और नकारात्मक दंतकथाएं भारतीय लोक जीवन में प्रचलित हैं। यह एक ऐसे सहिष्णु राजनेता का कथन है जो विध्वंसक दौर में भी रचनात्मक कार्यों में संलग्न रहा और आज भारतीय जनमानस उसके कार्यों को लेकर स्मृति लोप का शिकार है। जी हाँ, हम बात कर रहे हैं आधुनिक भारत के निर्माता प. जवाहरलाल नेहरू के बारे में और उपरोक्त कथन प. नेहरू का है जिनकी नजरों में भारतमाता की तस्वीर विशिष्टता बोध लिए हुए है।

व्यक्तित्व और कृतित्व का विश्लेषण किये बिना इस निष्कर्ष पर तुरंत पहुंच जाना कि नेहरू आधुनिक भारत के निर्माता हैं थोड़ी जल्दबाजी लगती है। लेकिन जैसे ही आप नेहरू की रचनाओं से गुजरते हुए उनके निजी और सार्वजनिक जीवन की निष्पक्ष पड़ताल करते हैं तो अनायास ही ये शब्द फूट पड़ते हैं कि हाँ, नेहरू आधुनिक भारत के निर्माता हैं।

व्यक्तिगत जीवन-

नेहरू का व्यक्तिगत जीवन बेहद गरिमापूर्ण था। उनका जन्म 14 नवम्बर 1889 को इलाहाबाद में हुआ। उनके पिता, मोतीलाल नेहरू एक समृद्धि बैरिस्टर और माता स्वरूपरानी कुशल गृहणी थी। पारिवारिक रूप से संपन्न नेहरू ने अपनी स्कूली शिक्षा हैरो से और कॉलेज की शिक्षा ट्रिनिटी कॉलेज, कैम्ब्रिज (लंदन) से पूरी की थी। इसके बाद उन्होंने अपनी लॉ की डिग्री कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से पूरी की।

जवाहरलाल नेहरू 1912 में भारत लौट आये और वकालत की शुरूआत की। 1916 में कमला नेहरू से उनका विवाह हुआ। 1917 में होमरूल लीग में शामिल हो गए। राजनीति में उनका वास्तविक प्रशिक्षण दो साल बाद 1919 में हुआ जब वे महात्मा गांधी के संपर्क में आए। उस समय महात्मा गांधी ने रॉलेट अधिनियम के खिलाफ एक अभियान शुरू किया था। नेहरू, महात्मा गांधी के सक्रिय लेकिन शांतिपूर्ण आंदोलन के प्रति प्रभावित और आकर्षित हुए।

क्यों महात्मा गांधी ने नेहरू को अपना उत्तराधिकारी चुना..?

वैश्विक उथलपुथल और स्वतंत्रता के दौर में गांधी ने नेहरू को ही अपना उत्तराधिकारी क्यों चुना..? रामचंद्र गुहा इस प्रश्न का बहुत सटीक उत्तर देते हैं।

वे कहते हैं,

“गांधी के अनुयायियों में जवाहरलाल नेहरू ही थे जिन्होंने उनकी सम्मिलित देशभक्ति को थामे रखा। महात्मा की तरह वे भी एक व्यक्ति के रूप में और अपनी विचारधारा में नस्ल और धर्म, जाति और वर्ग, लिंग और भौगोलिक परिवेश से ऊपर उठकर थे। वह एक ऐसे हिंदू थे जो मुसलमानों के साथ दोस्ताना व्यवहार रखते थे, एक ऐसे ब्राह्मण थे जो जातियों के बंधन को नहीं मानते थे, एक ऐसे उत्तर भारतीय थे जो दक्षिण पर हिंदी नहीं थोपते थे, एक ऐसे शख्स थे जिसकी वैज्ञानिक सोच पर लोग भरोसा करते थे ...इस तरह गांधी के बाद नेहरू ही सबसे विशाल हृदय भारतीय थे...!”

नेहरू का चिंतन

नेहरू के चिंतन को जानने का महत्वपूर्ण स्रोत उनकी रचनाएं हैं। जो कि निम्नलिखित हैं-

  • पिता के पत्र : पुत्री के नाम (1929)
  • ग्लिंप्सेज ऑफ़ वर्ल्ड हिस्ट्री (1933)
  • ऐन ऑटो बायोग्राफी (1936)
  • डिस्कवरी ऑफ इंडिया (1946)

नेहरू का चिंतन मूल रूप से मानवतावादी है। उनका दृष्टिकोण पश्चिमी एवं आधुनिक था। साथ ही वे भारतीय परिस्थितियों की जटिलताओं को भी समझते हैं। नेहरू के दृष्टिकोण में लोकतंत्र, समाजवाद तथा धर्मनिरपेक्षता आपस में घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए हैं।

नेहरू अज्ञेयवादी थे जिन्होंने धर्म को मात्र एक सांस्कृतिक प्रेरणा तथा विरासत के रूप में ही स्वीकार किया। स्वतंत्रता प्राप्ति से पहले ही नेहरू पर समाजवादी विचारधारा का प्रभाव पड़ चुका था। 1917 की रूसी क्रांति ने नेहरू को गहरे तौर पर प्रभावित किया था। वे कहते हैं,

“समाजवाद मात्र एक आर्थिक सिद्धांत ही नहीं बल्कि एक जीवनदर्शन भी है और यह अपने इसी स्वरूप में मुझे प्रेरित करता है।”

राजनीतिक जीवन-

एस. गोपाल, राजनेता के तौर पर नेहरू की भूमिका को स्पष्ट करते हैं- “जवाहर लाल नेहरू ने राष्ट्र को एकजुट बनाया, लोकतंत्र के लिए इसे प्रशिक्षित किया, आर्थिक विकास के लिए एक मॉडल का निर्माण किया तथा देश को आर्थिक विकास के मार्ग पर अग्रसर किया।”

लोकतांत्रिक मूल्यों का विकास-

प्रथम प्रधानमंत्री के रूप में नेहरू का सबसे महत्वपूर्ण कार्य भारतीय राजनीति और जनजीवन में लोकतांत्रिक मूल्यों का विकास करना था।

नेहरू के व्यक्तित्व में व्यवहारिकता और आदर्शवादिता दोनों गुणों का समन्वय था। जो कि एक दुर्लभ गुण है। नेहरू के विचारों में पश्चिमी सभ्यता व आधुनिकता का समावेश था। स्वाभाविक रूप से लोकतंत्र के समर्थक पंडित नेहरू संसद व कांग्रेस को साथ लेकर चलते रहे। अपने उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए संवैधानिक नियमों के अनुरूप दक्षतापूर्वक कार्य करने में उन्होंने कभी संकोच नहीं किया। राष्ट्रवाद के प्रति उनकी मानसिकता संकीर्ण नहीं थी। वे राष्ट्रीयता के गुणों को भली-भांति समझते थे। इसीलिए उन्होंने देश को एक संतुलित, संयमशील एवं आदर्श राष्ट्रवाद के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित किया।

नेहरू का राजनीतिज्ञ के रूप में सबसे महत्वपूर्ण कार्य भारतीय राजनीतिक प्रणाली में लोकतांत्रिक मूल्यों का विकास करना और भारत में लोकतंत्र को खड़ा करना था। नेहरू संसदीय लोकतंत्र के सिद्धांत और व्यवहार के प्रबल समर्थक थे। उनकी दृष्टि में राजनीतिक लोकतंत्र अपने आप में साध्य नहीं बल्कि वह भारत के लाखों करोड़ों लोगों के दुख-दर्द और गरीबी दूर करने का साधन मात्र था। उन्होंने लोकतंत्र के साथ स्वतंत्रता और समानता के अटूट संबंध को स्वीकार किया। उनका मानना था कि समानता के बगैर स्वतंत्रता और लोकतंत्र का कोई अर्थ नहीं है।

सन् 1952 में पंडित नेहरू के नेतृत्व में देश के पहले आम चुनाव में स्वस्थ लोकतंत्र की जो नींव रखी गई थी वह आज तक जारी है। नेहरू के लिए लोकतंत्र का तात्पर्य एक ऐसा उत्तरदायित्वपूर्ण तथा जवाबदेह राजनीतिक प्रणाली थी, जिसमें विचार-विमर्श और प्रक्रिया के माध्यम से शासन हो। उनके जीवनीकार एस गोपाल के अनुसार, उनमें ‘लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति अत्यंत दृढ़ बौद्धिक तथा नैतिक प्रतिबद्धता’ थी।

नेहरू ने 1950 की अंतरिम संसद में तथा 1952 से 1964 के बीच पहली, दूसरी तथा तीसरी लोकसभा में सदन के नेता के रूप में व्यक्तिगत उदाहरण प्रस्तुत करते हुए स्वस्थ परंपराओं और उदाहरणों की नींव रखी। नेहरू विपक्षी दलों को पूरा स्थान दिया करते थे एवं उनकी आलोचनाओं के प्रति बहुत संवेदनशील रहते थे। उन्होंने कहा था, ‘मैं नहीं चाहता कि भारत ऐसा देश बने जहां लाखों लोग एक व्यक्ति की ‘हाँ’ में हाँ मिलाएं, मैं एक मजबूत विपक्ष चाहता हूँ।’

उन्होंने देश के बंटवारे तथा उसके परिणामस्वरूप सांप्रदायिक हिंसा को अथवा भारी संख्या में शरणार्थियों के आगमन को चुनावों को स्थगित करने का बहाना नहीं बनाया। उन्होंने मंत्रिमंडल को विमर्श और नीति निर्माण का माध्यम बनाया।

संवैधानिक मूल्यों का संरक्षण-

नेहरू युग के दौरान संविधान में दिए गए संघवादी प्रावधानों को मजबूती से स्थापित किया गया। राज्यों के बीच सत्ता का समुचित बंटवारा किया गया। राज्यों की स्वायत्तता का आदर करते हुए नेहरू कभी भी राज्य सरकारों पर अपना निर्णय नहीं थोपते थे ना ही उनकी नीतियों में हस्तक्षेप करते थे। नेहरू युग के वर्षों में सेना पर नागरिक सरकार की श्रेष्ठता की परंपरा पूरी तरह स्थापित हो गई और स्टील फ्रेम के रूप में नौकरशाही का भी विकास हुआ।

राजनीति द्वारा समाजिक परिवर्तन-

नेहरू सामाजिक बदलाव के प्रति भी बेहद सजग थे। संविधान में पहले ही अनुच्छेद 17 के अंतर्गत अस्पृश्यता उन्मूलन का प्रावधान शामिल कर लिया गया था। सरकार ने इसमें और वृद्धि करते हुए 1955 में अछूत विरोधी कानून पास कर दिया जिससे छुआछूत का रिवाज दंडनीय और संज्ञेय अपराध बना दिया गया।

राष्ट्रीय आंदोलन में महिला संगठनों और समूहों की सक्रिय भागीदारी होने के कारण स्वतंत्रता के पश्चात महिलाओं ने परिवार व समाज में अपने अधिकारों की मांग की, पंडित नेहरू ने इन मांगों का सदैव समर्थन किया। इस दिशा में उनका एक बहुत बड़ा कदम हिंदू कोड बिल को पास करना था।

धर्मनिरपेक्षता की स्थापना-

हम इस बात से इंकार नहीं कर सकते कि स्वतंत्रता के दौरान भारत सांप्रदायिकता के चंगुल में फंसा हुआ था। नेहरू ने महसूस किया कि केवल धर्मनिरपेक्षता के द्वारा ही सांप्रदायिकता की आग से बचा जा सकता है। इसकी गंभीरता को समझते हुए नेहरू ने तर्क दिया कि देश के नेताओं को धर्मनिरपेक्षता के वास्तविक अर्थ को ग्रहण करते हुए लोगों के बीच में जाना होगा ताकि वे सांप्रदायिक जीवन छोड़कर राष्ट्र के विकास के लिए एकजुट हो सकें।

धर्मनिरपेक्ष मूल्यों को संविधान में शामिल करने तथा प्रधानमंत्री के रूप में उसको विकसित करने में नेहरू का महत्वपूर्ण योगदान है। प्रधानमंत्री के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान उन्होंने धर्मनिरपेक्षता, स्वतंत्रता, समानता, बंधुता और लोकतांत्रिक मूल्यों के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।

राष्ट्र निर्माण-

नेहरू इस बात से वाकिफ थे के लोकतांत्रिक समाज के निर्माण जो कि समानता पर आधारित हो के लिए सबसे जरूरी है शिक्षा, स्वास्थ्य और जागरूकता। स्वतंत्र भारत की साक्षरता दर बेहद कम थी। इसलिए सरकार ने प्राथमिक, माध्यमिक, उच्च और तकनीकी तकनीकी शिक्षा की सुविधाएं विकसित करने पर एक बड़ी राशि खर्च की। जहां 1951 में शिक्षा पर खर्च 19.8 करोड़ था वहीं यह 1964- 65 में बढ़कर 146.27 करोड़ हो गया। यह 7 गुना से भी अधिक वृद्धि थी। नेहरू के शासनकाल के दौरान शिक्षा खासकर लड़कियों की शिक्षा में भारी प्रगति दिखाई पड़ी। 1951 और 1961 के बीच स्कूलों में छात्रों की संख्या दोगुनी और छात्राओं की संख्या 3 गुनी हो गई। आजादी के दौरान सिर्फ 18 विश्वविद्यालय थे जबकि करीब 3,00,000 विद्यार्थी, 1964 तक विश्वविद्यालयों की संख्या 54 और कॉलेजों की संख्या 2500 हो गई। स्नातक और स्नातकोत्तर छात्रों की संख्या 6.13 लाख हो चुकी थी।

नेहरू युग की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि वैज्ञानिक अनुसंधान और तकनीकी शिक्षा क्षेत्र का विकास रही। नेहरू यह मानते थे कि भारत की समस्याओं के समाधान के लिए विज्ञान और तकनीक का विकास अति महत्वपूर्ण है।

नेहरू मानते थे कि जातिगत पूर्वाग्रह, धर्मांधता, सामाजिक विषमता आदि को हमारे सामाजिक संबंधों तथा मानसिक स्वभावों में वैज्ञानिक प्रवृत्ति पैदा करके ही समाप्त किया जा सकता है। वैज्ञानिक उपलब्धि के साथ-साथ, वैज्ञानिक मानसिकता तथा चिंतन की वैज्ञानिक प्रवृत्ति का विकास भी उतना ही जरूरी है। विज्ञान मात्र सत्य की खोज नहीं है, बल्कि व्यक्ति की बेहतरी के लिए भी है। सरकार द्वारा एक विज्ञान नीति अपनायी गयी तथा देशभर में वैज्ञानिक प्रयोगशालाएं स्थापित की गयी। इंजीनियरिंग में जनशक्ति के सृजन के लिए भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों की स्थापना की गयी। अंतरिक्ष और परमाणु इंजीनियरिंग जैसे अग्रिम विषय प्रधानमंत्री की व्यक्तिगत निगरानी में आ गये। तकनीकी प्रशिक्षण देने के लिए सरकार ने आवश्यक संस्थाओं की स्थापना की। 1952 में खड़गपुर में प्रथम आईआईटी की स्थापना की गई। इसके पश्चात मद्रास, मुंबई, कानपुर और दिल्ली में भी आईआईटी की स्थापना की गई। नेहरू के वैज्ञानिक दृष्टिकोण के कारण ही संस्थाओं और प्रयोगशालाओं का तेजी से विस्तार हुआ।

नेहरू परमाणु ऊर्जा के महत्व को बखूबी समझते थे और उसके दूरगामी प्रभाव से भी परिचित थे। इसलिए उन्होंने परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र को बहुत महत्व दिया। 1948 में भारत सरकार ने परमाणु ऊर्जा आयोग की स्थापना की और इसके अध्यक्ष प्रसिद्ध वैज्ञानिक होमी जहांगीर भाभा बनाए गए। शांतिपूर्ण परमाणु ऊर्जा विकसित करने के लिए यह आयोग वैज्ञानिक अनुसंधान विभाग के तहत बनाया गया जो सीधे नेहरू के निर्देशन में काम करता था। भारत का पहला परमाणु रिएक्टर जो एशिया का भी पहला रिएक्टर था ने मुंबई में अगस्त 1956 में काम करना शुरू कर दिया। परमाणु ऊर्जा संयंत्रों के माध्यम से बिजली उत्पादन का लक्ष्य रखा गया जिसके माध्यम से देश की आधारभूत संरचना का विकास किया जा सकता था।

नेहरू ने अंतरिक्ष अनुसंधान के क्षेत्र में भी कदम बढ़ाया। इसके लिए इंडियन नेशनल कमिटी फॉर स्पेस रिसर्च की स्थापना 1962 में की गई और थुंबा में रॉकेट लॉन्चिंग फैसिलिटी स्थापित की गई। इसी दौरान सैन्य अनुसंधान और विकास के लिए भी कई कदम उठाए गए जिससे सैन्य उपकरणों के उत्पादन में भारत को आत्मनिर्भरता प्राप्त हो सके।

ग्रामीण क्षेत्रों के विकास के लिए दो बड़े कार्यक्रम सामुदायिक विकास कार्यक्रम और पंचायती राज क्रमशः 1952 और 1959 में शुरू किया गया। यह कार्यक्रम गांव में कल्याणकारी राज्य की नींव डालने वाले थे। इस कार्यक्रम में लोगों द्वारा आत्म निर्भरता तथा आत्म सहायता और उत्तरदायित्व पर मुख्य रूप से जोर दिया जाना था। 1952 और उसके बाद के वर्षों में नेहरू बार-बार सामुदायिक विकास कार्यक्रम और राष्ट्रीय विस्तार सेवा की चर्चा नई सरकार और एक महान क्रांति के रूप में किया करते थे। इन कार्यक्रमों के माध्यम से अच्छी सफलता प्राप्त हुई बेहतर बीज, खाद आदि होने के परिणामस्वरुप खेती का विकास तेजी से हुआ और खाद्यान्न उत्पादन बढ़ा।

इसके अलावा सड़क, तालाब, स्कूल तथा प्राथमिक चिकित्सा केंद्र का निर्माण और शिक्षा एवं चिकित्सा सुविधाओं का विस्तार हुआ। इन कार्यक्रमों की कमजोरियों को दूर करने के लिए पंडित नेहरू ने 1957 में बलवंत राय मेहता समिति का गठन किया। इस समिति ने स्थानीय स्तर पर विकेंद्रीकरण का समर्थन किया। यह विकेंद्रीकृत व्यवस्था पंचायती राज के नाम से जानी गयी। और इसे 1959 से विभिन्न राज्यों में लागू किया गया। प. नेहरू ने 1959 में राजस्थान के नागौर में स्वयं पंचायती राज का उद्घाटन किया।

नेहरू ने मिश्रित अर्थव्यवस्था के माध्यम से नियोजन को प्राथमिकता देते हुए राष्ट्र निर्माण का मार्ग प्रशस्त किया।

भारतीय विदेश नीति के निर्माता -

नेहरू एक महान अंतरराष्ट्रीयतावादी थे। अंतरराष्ट्रीयता की प्रेरणा उन्हें विवेकानंद, रवीन्द्र नाथ ठाकुर एवं महात्मा गांधी जैसे महान व्यक्तियों से प्राप्त हुई थी। उनका मानना था, किसी देश विशेष के संकीर्ण दृष्टिकोण के स्थान पर वैसे दृष्टिकोण को अंगीकार किया जाना चाहिए जो वैश्विक हित में हो। अपने इसी दृष्टिकोण के कारण उन्होंने भारतीय विदेश नीति के निर्धारक तत्व के रूप में गुटनिरपेक्षता तथा पंचशील की संकल्पना को आधार के रूप में अपनाया। स्वतंत्र विदेश नीति पर चलने का प्रयत्न 1947 के बाद की भारतीय राजनीति की विशेषता थी।

नेहरू के अनुसार एशिया तथा अफ्रिका नव स्वतंत्र देशों की आवश्यकता है गरीबी, निरक्षरता और बीमारी से लड़ना और यह काम शीतयुद्धकालीन दो गुटों में शामिल होकर नहीं किया जा सकता है। गुटनिरपेक्षता की अवधारणा नेहरू द्वारा प्रदत एक ऐसा उपहार है जिसे उन्होंने प्रभुत्व की राजनीति, गुप्त कूटनीति, सैनिक समझौते तथा हथियारों की होड़ की दौड़ में भाग रहे संसार को प्रदान किया। इस नीति के अंतर्गत समाहित किए गए विचार हैं- समानता की भावना, पारस्परिक प्रेम, भिन्न-भिन्न राष्ट्रों की शासन पद्धति के साथ सहिष्णुता, भौगोलिक अखंडता को महत्व देना तथा शक्ति का प्रयोग न करना आदि।

भारत ने गुटनिरपेक्षता की नीति इसलिए अपनाई क्योंकि यह निर्णय लेने की स्वतंत्रता की रक्षा करना चाहता था। नेहरू ने अपने कार्यकाल के दौरान न सिर्फ पड़ोसियों से बल्कि अंतरराष्ट्रीय महाशक्तियों से भी मित्रता पूर्ण संबंध स्थापित किया। संयुक्त राष्ट्र संघ जैसी संस्था में भी भारत ने अपनी मजबूत उपस्थिती दर्ज कराई। गुटनिरपेक्षता की नीति को दुनिया के तमाम देशों ने अपनाया। यह नेहरू के व्यक्तित्व और भारतीय विदेश नीति की महत्वपूर्ण उपलब्धि थी।

निष्कर्ष-

हम नेहरू के कार्यकाल व उनके व्यक्तित्व के मूल्यांकन के आधार पर कह सकते हैं कि उन्होंने देश के सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक आधार की नींव रखी। उनके महान कार्यों व गुणों के कारण ही उनका भारतीय राजनीतिक व समाजिक जीवन में महत्वपूर्ण स्थान है। अपने व्यवहार, बुद्धिमत्ता एवं संतुलित विचारों के द्वारा नेहरू ने विभिन्न क्षेत्रों में परिवर्तन करने का प्रयास किया, जिससे वे राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय दोनों स्तरों पर सफल रहे।

हम कह सकते हैं की नेहरू ने भारत के निर्माण की आधारशिला रखी और समाज के प्रत्येक क्षेत्र के विकास के लिए लिए योजना निर्माण का कार्य किया और उसे कार्य रूप में संपादित भी किया। इसलिए नेहरू को 'आधुनिक भारत का निर्माता' कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं है।

  विमल कुमार  

विमल कुमार, राजनीति विज्ञान के असिस्टेंट प्रोफेसर हैं। अध्ययन-अध्यापन के साथ विमल विभिन्न अखबारों और पत्रिकाओं में समसामयिक सामाजिक और राजनीतिक विषयों पर स्वतंत्र लेखन और व्याख्यान के लिए चर्चित हैं। इनकी अभिरुचियाँ पढ़ना, लिखना और यात्राएं करना है।

  स्रोत-  
  • भारत एक खोज- जवाहरलाल नेहरू
  • इंडिया ऑफ्टर गांधी- रामचंद्र गुहा
  • आज़ादी के बाद का भारत- विपिन चंद्र, मृदुला मुखर्जी, आदित्य मुखर्जी
  • पॉलिटिक्स इन इंडिया- रजनी कोठारी
  • जवाहरलाल नेहरू: ए बायोग्राफी- एस. गोपाल
  • कौन हैं भारत माता- पुरुषोत्तम अग्रवाल
  • इंडियन कॉन्स्टिट्यूशन: कार्नरस्टोन ऑफ ए नेशन- ग्रेनविल ऑस्टिन

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