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पर्यावरण सरंक्षण के लिए दिए जाने वाले फेलोशिप एवं पुरस्कार

हमारा देश एक अद्भुत आस्थावान देश है। इसकी आस्था की एक खास बात यह है कि ये जीवन के विभिन्न आयोमों में आस्था के माध्यम से हर गतिविधियों को देखते थे। पीपल अथवा तुलसी के वृक्षों को न काटने की बात हो या फिर बंदर, सांप इत्यादि को ईश्वर के प्रतिनिधि से जोड़कर उनकी हत्या न करने (जीव संरक्षण) की बात हो, यहां सदियों से विद्यमान रहीं। प्रकृति के संरक्षण की ऐसी ही एक कहानी है। यह कहानी जोधपुर से 26 किलोमीटर दूर खेजडली गांव की है। 1730 के भद्रा मास का दसवा पखवाड़ा चल रहा था। इसी समय अमृता देवी नाम की महिला अपनी तीन बेटियों (आसू, रत्नी और भागू बाई) के साथ घर पर थीं। तभी उन्हें पता चलता है कि मारवाड़ के राजा अभय सिंह के सैनिक उनके गांव में खेजड़ी वृक्षों को काटने आए हुए हैं। विश्नोई समाज को प्रकृति प्रेमी माना जाता है और खेजड़ी वृक्ष को वे पूज्य मानते थे। अमृता देवी को ये बात रास नहीं आई। जिन वृक्षों को वो पूज्य मानती थीं, जिन्हें वो अपने बच्चों जैसा मानती थीं, आज वो लौह कुल्हाड़ियों से कटने जा रहे थे। इसलिए अमृता देवी ने सैनिकों को रोका। लेकिन सैनिक अपने राजा के आदेश के प्रति प्रतिबद्ध थे। इसलिए वो न माने। लेकिन अमृता भी वृक्षों में अपनी संतान देखती थीं। वो समझ गईं कि सैनिक नहीं मानेंगे। ऐसे में उन्होंने मन ही मन तय कर लिया कि अगर हमारे वृक्ष कटेंगे तो हम भी साथ में ही कटेंगे। नतीजन, सैनिकों के न मानने पर वो एक पेड़ से लिपट गयीं। और सैनिकों को ललकारते हुए कहीं, “सिर साटे, रूंख रहे, तो भी सस्तो जांण”। यानी, “यदि किसी व्यक्ति की जान की कीमत पर भी एक पेड़ बचाया जाता है, तो वह सही (सस्ता) है।” सैनिकों को यह विरोध नागवार गुजरा। वो नहीं रुके। कहते हैं, उन्होंने अमृता देवी को मौत के घाट उतार दिया। उनकी बेटियों ने विरोध को जारी रखा और इसकी कीमत उन्हें भी अपने प्राणों का बलिदान देकर चुकानी पड़ी। यह विरोध जंगल की आग की तरह फैला। पूरा गांव विरोध में उतर आया। सब पेड़ों से चिपक गये। कहते हैं, उस दिन इंसानी गर्दनों पर तलवारें गाजर-मूली पर चलने वाली चाकू की तरह चलती रहीं। शाम होते-होते खेजड़ी वृक्षों की रक्षा में बिश्नोई समाज के 363 लोग शहादत दे चुके थे। लेकिन राजा तक यह खबर पहुँची तो वो सैनिकों पर आग-बबूला हो गये। उन्हें नहीं मालूम था कि गावं वाले पर्यावरण संरक्षण के प्रति इतने सजग और भावनात्मक रूप से जुड़े हैं। उन्होंने सैनिकों को फटकार लगाते हुए वापस लौटने का आदेश दिया और भावविभोर हो संपूर्ण विश्नोई समुदाय से माफी मांगी। कहते हैं, उनके सैनिकों के कृत्य ने उन्हें भीतर से हिलाकर रख दिया। वो आत्मग्लानि से भर गये। अंतत: पश्चाताप के लिए उन्होंने मारवाड़ में खेजड़ी पेड़ों को काटने और जानवरों के शिकार पर हमेशा-हमेशा के लिए प्रतिबंध लगाने का आदेश जारी किया। इस आदेश का पालन आज तक किया जा रहा है। सरकार ने भी अमृता देवी के साहस और बलिदान से प्रेरणा लेकर वन्यजीव सरंक्षण में योगदान देने वाले प्रकृति प्रेमियों को 'अमृतादेवी विश्नोई वन्यजीव सुरक्षा पुरस्कार' देने की शुरुआत की। तो यह थी कहानी देश की उस पुराने दौर की एक वीरांगना महिला अमृता देवी की, जिन्हें पर्यावरण संरक्षण के प्रति उस दौर में भी संवेदना थी, जब लोग पर्यावरण को बहुत महत्वपूर्ण विषय नहीं मानते थे। तो चलिए इस ब्लॉग में हम एक नज़र वन्यजीव सरंक्षण के क्षेत्र में सरकार द्वारा दिए जाने वाले ऐसे ही अन्य पुरस्कारों पर भी डाल लें-

अमृतादेवी विश्नोई वन्यजीव सुरक्षा पुरस्कार

इस आंदोलन को पहला ‘चिपको आंदोलन’ माना जाता है। वन्यजीवों की सुरक्षा और सरंक्षण के लिए 2013 में भारत सरकार ने अमृता देवी बिश्नोई राष्ट्रीय पुरस्कार की शुरुआत की जिसमें वन्यजीव संरक्षण में शामिल व्यक्तियों या संस्थानों को 1,00,000 लाख रुपये का नकद पुरस्कार दिया जाता है।

इंदिरा प्रियदर्शी वृक्ष मित्र पुरस्कार

इंदिरा प्रियदर्शिनी वृक्ष मित्र पुरस्कार वनरोपण और बंजर भूमि के विकास के क्षेत्र में व्यक्तियों और संस्थानों द्वारा किए गए उनके अभिनव योगदान के लिए दिया जाता है। प्रतिवर्ष दिए जाने वाले इस पुरस्कार की शुरुआत भारत सरकार ने 1986 में की थी। पुरस्कार दिए जाने का आधार बंजर भूमि पर वृक्षारोपण, जागरूकता, वनीकरण और जमीनी स्तर पर ट्री ग्रोअर्स कोऑपरेटिव जैसे संस्थानों की स्थापना आदि हैं। साल 2006 तक ये पुरस्कार 12 श्रेणियों में दिए जाते थे जो अब 4 श्रेणियों- सरकारी कर्मचारी, संयुक्त वन प्रबंधन समिति (जेएफएमसी), सरकार के अधीन संस्थान या संगठन और गैर-सरकारी संस्थान या संगठन, में दिए जाते हैं। प्रत्येक श्रेणी में केवल एक पुरस्कार दिया जाता है और पुरस्कृत किए जाने वाले को पदक और प्रशस्ति पत्र के साथ 2.5 लाख रुपये प्रदान किए जाते हैं।

मेदिनी पुरस्कार योजना

इस पुरस्कार की शुरुआत 1996 में की गयी थी। यह पुरस्कार हिंदी में पर्यावरण से संबंधित पुस्तकों पर मौलिक लेखन को बढ़ावा देने वाले भारतीय लेखकों को दिया जाता है। ये पुरस्कार 4 श्रेणियों में प्रदान किए जाते हैं। जिसमें प्रथम पुरस्कार विजेता को प्रशस्ति पत्र के साथ 1 लाख रुपये, द्वितीय पुरस्कार विजेता को 75000 रुपये, तृतीय पुरस्कार विजेता को 50,000 और चौथा पुरस्कार जो सांत्वना के लिए होगा उसमें 25000 रुपये दिए जाते हैं। लेखकों के लिए निर्धारित योग्यता के तहत उनकी पिछले तीन वर्षों में प्रकाशित पुस्तकों को शामिल किया जाएगा और ऐसी कसी पुस्तक को स्वीकार नहीं किया जाएगा जिसे सरकार ने कोई सब्सिडी या पुरस्कार दिया हो। पुस्तकों का मूल्यांकन पर्यावरण एवं वन मंत्रालय द्वारा गठित एक मूल्यांकन समिति द्वारा किया जाएगा। जिसमें अंतिम निर्णय मंत्रालय के सचिव का होगा।

प्रदूषण निवारण के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार

इस पुरस्कार की शुरुआत वर्ष 1992 में की गई थी। यह पुरस्कार प्रदूषण निवारण के लक्ष्यों को प्राप्त करने तथा पर्यावरण में सुधार के लिए प्रयास करने वाली 18 बड़ी औ 5 लघु औद्योगिक इकाइयों को सालाना दिया जाता है। इस पुरस्कार के अंतर्गत प्रत्येक बड़ी तथा लघु औद्योगिक इकाइयों को एक ट्रॉफी, एक प्रशस्ति पत्र और 1 लाख की नकद राशि प्रदान की जाती है।

जैव-विविधता हेतु पीताम्बर पंत राष्ट्रीय पर्यावरण फेलोशिप एवं बीपी पाल राष्ट्रीय पर्यावरण फेलोशिप

इस फेलोशिप की शुरुआत 1995 में की गयी थी। यह फेलोशिप पर्यावरण, विज्ञान और जैव-विविधता के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण अनुसंधान तथा विकास में प्रोत्साहन देने के लिए भारतीय वैज्ञानिक या विशेषज्ञ को प्रदान की जाती है। इस फेलोशिप की अवधि 2 वर्ष की होती है।

डॉ. सलीम अली राष्ट्रीय वन्यजीव फेलोशिप पुरस्कार

आज हम पक्षियों और उनकी विशेषताओं के बारे में इतना कुछ जानते हैं तो इसका श्रेय पक्षीविज्ञानी और प्रकृति प्रेमी डॉ. सलीम अली को जाता है जिन्हें 'बर्डमैन ऑफ इंडिया' कहा जाता है। पढ़ाई और बिजनेस से ज्यादा समय वह पक्षियों के बीच बिताते थे। इसी वजह से उनकी नौकरी भी चली गयी थी। बाद में वह बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी से जुड़े और पक्षियों से संबंधित कई दस्तावेज प्रकाशित किए। साल 1941 में पक्षियों के आवास और अन्य गुणों पर गहरे अध्ययन और शोध के बाद उनकी पहली पुस्तक 'द बुक ऑफ इंडियन बर्ड्स' प्रकाशित हुई, जो आज भी पक्षी प्रेमियों के लिए मार्गदर्शन का काम कर रही है। इसके अलावा उनकी एक अन्य किताब 'हैंडबुक ऑफ द बर्ड्स ऑफ इंडिया ऐंड पाकिस्तान' जो दस वॉल्युम में प्रकाशित हुई है। इस किताब में आपको भारतीय उपमहाद्वीप के पक्षियों में बारे में गहनता से जानकारी मिलती है। अपने जीवन के पूरे सफर को उन्होंने 'फॉल ऑफ ए स्पैरो' नाम की किताब में खूबसूरती से बयान किया है।

पक्षीविज्ञान के क्षेत्र में उनके योगदान को देखते हुए भारत सरकार द्वारा वन्यजीवों के संरक्षण व अनुसंधान के लिए साल 1995 “डॉ. सलीम अली राष्ट्रीय वन्यजीव फेलोशिप पुरस्कार” की शुरुआत की गयी थी। यह पुरस्कार प्रत्येक दूसरे वर्ष दिया जाता है। और राज्य सरकारों तथा केंद्र शासित प्रदेशों के वन्य जीव विभागों के अधिकारियों को इस पुरस्कार के लिए वरीयता दी जाती है। यह केवल भारतीय नागरिकों को दिया जाता है। फेलोशिप के तहत 20,000 रुपया प्रतिमाह दिए जाते हैं जबकि फुटकर खर्च के लिए 1,00,000 रुपये प्रतिवर्ष दिए जाते हैं। वैसे तो फेलोशिप की अवधि दो वर्ष की है, पर इसे एक वर्ष के लिए और बढ़ाया जा सकता है। कोई व्यक्ति जो नौकरी और अन्य भत्तों का लाभ उठा रहा है, वह भी पुरस्कार के लिए नामांकन दे सकता है।

राजीव गांधी वन्यजीव संरक्षण पुरस्कार

यह पुरस्‍कार भारत सरकार द्वारा 1998 से प्रति वर्ष ऐसे व्यक्तियों शोध संस्‍थानों, संगठनों, वन एवं वन्‍यजीव अधिकारियों, शोध विद्वानों, वन्‍यजीव संरक्षविदों को दिया जा रहा है जिन्होंने वन्‍यजीव संरक्षण पर महती भूमिका निभाई हो या उसे प्रभावित किया हो। इसके तहत एक-एक लाख के दो पुरस्कार प्रदान किए जाते हैं।

मरुभूमि पारिस्थितिकी फेलोशिप

साल 1992 में भारत सरकार द्वारा प्रकृति के संरक्षण में बिश्नोई समुदाय के योगदान को मान्यता देने और इस क्षेत्र में अध्ययन को प्रोत्साहित करने के लिए जोधपुर विश्वविद्यालय में मरुभूमि पारिस्थितिकी फेलोशिप शुरू करने के लिए 6 लाख रुपये की एकमुश्त राशि प्रदान की गयी। इस फेलोशिप के तहत हर महीने 3,500 रुपये का स्टाइपेंड और 1,000 रुपये प्रति माह के आकस्मिक अनुदान की व्यवस्था की गयी है।

इंदिरा गांधी पर्यावरण पुरस्कार

भारत सरकार द्वारा वर्ष 1987 में हर साल पर्यावरण संरक्षण के क्षेत्र में विशेष योगदान देने वाले किसी एक संगठन या शख्सियत को दिया जाता है। संगठन या शख्सियत का चयन उपराष्ट्रपति की अध्यक्षता वाली समिति करती है। वर्तमान में 'संगठन श्रेणी' के अंतर्गत 5,00,000 रुपये के दो पुरस्‍कार तथा 'व्‍यक्तिगत श्रेणी' के अंतर्गत 5,00,000 रुपये, 3,00,000 रुपये और 2,00,000 रुपये के तीन पुरस्‍कार दिए जाते हैं। इसमें पांच लाख के नकद पुरस्‍कार के साथ प्राप्‍तकर्ता को एक रजत ट्रॉफी, स्‍क्रोल तथा प्रशस्ति पत्र भी दिया जाता है।

योग्यता- पर्यावरण के क्षेत्र में कम से कम 10 वर्ष का कार्य अनुभव रखने वाला कोई भी भारतीय नागरिक, गैर सरकारी संगठन जिसके पास पर्यावरण के क्षेत्र में कम से कम 5 वर्ष का अनुभव हो, राज्‍यों, संघ शासित क्षेत्रों के पर्यावरण एवं वानिकी विभाग, राज्‍य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, ज़िला समाहर्ता, मजिस्‍ट्रेट, भारत के किसी भी ऐसे व्‍यक्ति या संगठन का नाम प्रस्‍तावित कर सकते हैं, जिसके पास पर्यावरण के क्षेत्र में कम से कम 5 वर्ष का अनुभव हो। वहीं, व्यक्ति के नामांकन के लिए कोई आयु सीमा का प्रावधान नहीं रखा गया है।

स्वच्छ प्रौद्योगिकी के लिए राजीव गांधी पर्यावरण पुरस्कार

भारत सरकार द्वारा साल 1992 से शुरू किया गया यह पुरस्कार उन औद्योगिक इकाइयों को दिया जाता है जो नई प्रौद्योगिकी को अपनाने या उपलब्ध तकनीकियों के बेहतर बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, जिससे पर्यावरणीय प्रदूषण को रोकने में मदद मिलती है। पुरस्कार में 2 लाख रुपये की नकद राशि के साथ ट्रॉफी एवं प्रशस्ति पत्र दिए जाते हैं।

श्री कैलाश सांखला राष्ट्रीय वन्यजीव फैलोशिप पुरस्कार

कैलाश सांखला प्रकृति प्रेमी और सरंक्षणवादी होने के साथ वन सेवा के अधिकारी थे। साल 1973 में उन्हें प्रोजेक्ट टाइगर का निदेशक बनाया गया। वह बाघों के सरंक्षण के लिए प्रमुखता से आवाज उठाते रहे और इस संबंध में कई बार शिकारियों से उनकी झड़पें भी हुईं। वह पहले सिविल सेवक थे जिन्हे बाघों पर अध्ययन के लिए 1970 में जवाहरलाल नेहरू फेलोशिप मिली थी। वन्यजीव सरंक्षण के क्षेत्र में उनके योगदान को देखते हुए भारत सरकार द्वारा साल 1996 में कैलाश सांखला राष्ट्रीय वन्यजीव फैलोशिप पुरस्कार की शुरुआत की गयी।

उपभोक्तावाद ने मनुष्य का लालच इतना बढ़ा दिया है कि जल, जंगल और जमीन सब खतरे में पड़ गए हैं। नतीजा सामने है। हर दिन हम जीवों और पौधों की कई प्रजातियों को खो रहे हैं। मनुष्य की इस अंधी लालसा के बीच अब भी कुछ लोग ऐसे हैं जो भी जीवों के होने के महत्व को समझते हुए उनको बचाने और सरंक्षित करने की कोशिश कर रहे हैं। सरकार भी उनके इन कार्यों को देखते हुए उन्हें पुरस्कृत कर रही है। परंतु जरूरत है, ऐसे लोगों को सामने लाया जाए ताकि अन्य लोगों को भी प्रेरणा मिले और वे भी इस धरा को खूबसूरत बनाने में सहभागिता कर सकें।

  अनुज कुमार बाजपेई  

अनुज कुमार बाजपेई, उत्तर प्रदेश के रायबरेली जिले के रहने वाले हैं, इन्होंने पत्रकारिता में स्नातकोत्तर किया है और कई संस्थानों में काम करने के बाद अब स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं।

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