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दृष्टि आईएएस ब्लॉग

मत करो गरीबी का महिमामंडन!

पिछले दिनों पाकिस्तान के एथलीट अरशद नदीम ने जेवलिन थ्रो में गोल्ड मेडल जीता, तो चारों तरफ उनकी खूब तारीफ़ हुई। एक भारतीय न्यूज़ एंकर अरशद की तारीफ करते हुए कह रहे थे कि कैसे इतनी गरीबी और अभावों में रहते हुए अरशद की कहानी हर किसी के लिए मिसाल है। हम उनसे सीख सकते हैं कि बिना अपने हालात का रोना रोए, इंसान कैसे आगे बढ़ सकता है। अरशद ही नहीं, जब भी कोई इंसान गरीबी से उठकर कुछ बड़ा करता है, तो हम उसे मिसाल बनाकर पेश करते हैं। मगर सच कहूं तो यह सोच बहुत सकारात्मक नहीं है। क्योंकि कोई भी इंसान जब कुछ करना चाहता है और उसे अपने सपने पूरे करने के लिए बुनियादी सुविधाएं तक न मिलें, तो यह कोई अच्छी बात नहीं है। गरीबी कोई बहुत सुखद और महिमामंडन करने जैसा विषय नहीं है। गरीबी के बावजूद कामयाब होने वाले आदमी की तारीफ करके हम उस इंसान को तो महान बता सकते हैं, लेकिन इस सच से मुंह नहीं मोड़ सकते कि अगर प्रतिभाओं को बुनियादी सुविधाओं तक के लिए इतना संघर्ष करना पड़े, तो यह सिस्टम की नाकामी है।

अरशद नदीम से लेकर '12वीं फेल' फेम मनोज शर्मा जी के संघर्षों की कहानी बताते हुए हम अक्सर एक बात भूल जाते हैं कि किसी भी समाज में बदलाव 'अपवादों' से नहीं आता, बल्कि सिस्टम से आता है। जब गरीब आदमी को मिसाल बनाकर बाकी गरीबों से कहा जाता है कि बहाने मत बनाओ, तुम भी इनसे कुछ सीखो, तो ऐसा कहकर हम अभावों का जनरलाइजेशन अर्थात 'सामान्यीकरण' कर रहे होते हैं। हम उसे स्वीकार्य बना रहे होते हैं। उत्साह में आकर हम सिस्टम को उसकी ज़िम्मेदारी से बचाते हुए अभावों में जूझती प्रतिभाओं को इस अपराध बोध में डाल रहे होते हैं कि अगर देश की प्रतिभाएं सुविधाएं न मिलने की शिकायत करती हैं या अभावों से जूझते हुए प्रतिभाएं दम तोड़ रही होती हैं, तो वो शिकायती टट्टू मात्र हैं, वरना तो अरशद जैसे लोग भी कामयाब हो रहे हैं।

ओलंपिक में मेडल जीतना ही अपने आप में बहुत बड़ी बात है। वह अपने आप में ही बहुत बड़ा संघर्ष है, मगर उस मेडल जीतने की प्रक्रिया में किसी इंसान के पास ओलंपिक से तीन महीने पहले तक ढंग की जेवलिन भी न हो, तो इसे कैसे जस्टिफाई किया जा सकता है? उसी तरह, यूपीएससी क्लियर करना ही बहुत बड़ी बात है, मगर इस क्रम में एक बच्चे को अपनी फीस भरने के लिए आटा चक्की में काम करना पड़े, इसे कैसे महिमामंडित किया जा सकता है? दिक्कत यह है कि जिसे हम एक व्यक्ति का नितांत निजी संघर्ष बताकर महिमामंडित करते हैं, दरअसल वह एक व्यवस्था और समाज की सामूहिक शर्म होती है।

आज अगर 50 लाख की आबादी वाला न्यूज़ीलैंड ओलंपिक में 10 गोल्ड समेत 20 मेडल ला रहा है, तो वह इसलिए नहीं क्योंकि उसके खिलाड़ी गरीबी की मिसालें कायम करके मैच जीत रहे हैं। अगर ढाई करोड़ की आबादी वाला ऑस्ट्रेलिया ओलंपिक में 18 गोल्ड समेत 50 मेडल जीत रहा है, तो इसलिए नहीं क्योंकि अरशद की तरह उसके खिलाड़ियों को घी के खाली डिब्बों में सीमेंट भरके उनसे अपनी वेट ट्रेनिंग करनी पड़ी थी। आबादी में छोटे-छोटे देश भी ओलंपिक में इतना कमाल इसलिए करते हैं क्योंकि खेल और खिलाड़ी उन देशों और वहां के सिस्टम की प्राथमिकताओं में हैं। वे खेलों में आगे बढ़ने के लिए किसी तुक्के, अपवाद, गरीबी की मिसाल अथवा किसी नितांत व्यक्तिगत प्रतिभा के कमाल पर निर्भर नहीं करते। लिएंडर पेस और महेश भूपति जिस दौर में एक के बाद एक ग्रैंड स्लैम के डबल्स के फाइनल में पहुंचते थे, वह भारत की सफलता नहीं थी। वह ऐसे दो खिलाड़ियों की नितांत निजी प्रतिभा थी, जो इत्तेफाकन एक दौर में साथ-साथ खेले और जीत गए। अगर वे खिलाड़ी सिस्टम के द्वारा निकाले गये होते, तो आज भारत में सैकड़ों और भी भूपति-पेस की जोड़ियां होतीं।

एक और बड़ी बात यह है कि जब किसी भी देश में सफलताएं सिस्टम से न निकलकर व्यक्तिगत प्रतिभा या किसी जीनियस के ज़रिए आती हैं, तो उस समाज में कामयाब आदमी को भगवान मान लिया जाता है। वह समाज कभी अचीवमेंट्स के साथ सहज नहीं हो पाता। क्योंकि बिना व्यवस्था के कामयाबी मिलती नहीं, इसलिए उस समाज को भी कामयाबी देखने की आदत भी नहीं होती। और जब अपवाद स्वरूप कभी कोई अरशद नदीम सफल हो जाता है, तो समाज को लगता है कि यह तो खुदा है या फिर भगवान है। तभी तो एक पैट कमिंस 50 ओवर का वर्ल्ड कप जीतने के बाद ऑस्ट्रेलिया पहुंचता है, तो उस मुल्क में कोई खास उत्तेजना पैदा नहीं होती और हिंदुस्तान टी-ट्वेंटी वर्ल्ड कप जीत लेता है, तो हम कई दिनों तक बौराये रहते हैं, क्योंकि हम सक्सेस देखने के, सफल होने के, आदी ही नहीं हैं।

थोड़ा और गहरे में जाएं, तो सिस्टम आपको सफलता का पैटर्न समझा देता है कि ऐसा करेंगे, इतने वक्त तक करेंगे, इस तरह से करेंगे तो सफल हो जाएंगे। व्यक्तिगत योग्यता एक तरह की मिस्ट्री के साथ आती है, जिसमें कामयाब होने वाला आदमी ही जानता है कि उसने जो किया वह कैसे किया। अब जिस भी चीज़ में रहस्य है, वह हमें चमत्कारी लगती है और हम चमत्कार करने वाले उस आदमी को भगवान मान लेते हैं। तभी तो भारत में हमने इतने भगवान, किंग और बादशाह बना रखे हैं।

एक और उदाहरण की बात करते हैं। 2016 में ‘LION’ मूवी आई थी, जो 5 साल के एक भारतीय बच्चे ‘सरू ब्रायली’ की सच्ची कहानी (Real Story) पर आधारित थी। वह बच्चा 5 साल की उम्र में एक भारतीय रेलवे स्टेशन पर अपने भाई से बिछड़ जाता है। उस वक्त वह अपने परिवार के साथ बेहद बुरी हालत में एक झुग्गी में रह रहा था। उनके पास खाने तक के पैसे नहीं थे। एक दिन वह अपने भाई के साथ काम पर गया था, तभी 5 साल की उम्र में रेलवे स्टेशन पर बिछड़ जाता है। वहां से बच्चा एक ट्रेन में बैठकर कोलकाता पहुंच जाता है, जहां एक आदमी उसे किसी को बेच देता है। बच्चा होशियार होता है, मामला समझ जाता है और मौका देखकर वहां से भाग जाता है। भागकर वह एक अनाथालय पहुंचता है। वहां भी उसे नर्क जैसी ज़िंदगी गुजारनी पड़ती है। फिर एक दिन एक ऑस्ट्रेलियाई कपल अनाथालय आता है और उस बच्चे को गोद ले लेता है और अपने साथ लेकर ऑस्ट्रेलिया चला जाता है।

ऑस्ट्रेलिया पहुंचकर सरू को एक बेहतरीन ज़िंदगी मिलती है। मगर बड़े होने तक अपने परिवार की याद उसके ज़हन से नहीं जाती। इस बीच गूगल पर गूगल अर्थ फीचर आ चुका होता है, और वह उस फीचर का इस्तेमाल करते हुए अपने गांव की धुंधली यादों का सहारा लेकर ढूंढ़ते-ढूंढ़ते यह पता लगा लेता है कि भारत में उसका घर कहां था। फिर वह भारत लौट आता है और चमत्कार हो जाता है। उसका अंदाजा सही निकलता है। उसने सच में उस जगह का सही पता लगा लिया था। उसकी मां अब भी ज़िंदा थी और अपने घरवालों से बिछड़ने के 25 साल बाद वह उनसे मिलता है। उस वक्त इस खबर की पूरी दुनिया में चर्चा हुई। सरू ने जिस तरह अपनी धुंधली याद के दम पर गूगल अर्थ का फीचर इस्तेमाल करते हुए अपने घर का पता लगाया, यह बात भी पूरी दुनिया के अखबारों की सुर्खियां बनी। सरू ने बाद में इस पर किताब लिखी। हॉलीवुड में इस पर फिल्म भी बनी, जिसे 6 ऑस्कर पुरस्कारों के लिए नामांकित किया गया।

यह घटना अपने आप में बहुत कुछ सोचने पर मजबूर करती है। सोचिए, देश के लाखों-करोड़ों गरीबों की तरह सरू बेहद तंगहाली में मध्यप्रदेश के छोटे से गांव में रह रहा था। अगर उसके साथ यह हादसा न हुआ होता, तो बहुत मुमकिन है कि वह अपने बाकी परिवार की तरह कहीं मजदूरी कर रहा होता। आज भी गांव में गरीबी में जी रहा होता। मगर उसके साथ एक हादसा होता है। अपनी किस्मत से वह ऑस्ट्रेलिया पहुंचता है। वहां उसे अच्छी शिक्षा मिलती है। उस बच्चे के अंदर छिपी सारी संभावनाएं बाहर आ जाती हैं। वो ऑनलाइन टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल करके वह काम कर दिखाता है, जो लगभग असंभव था। उसमें इतनी बुद्धिमत्ता होती है कि वह अपनी कहानी को बेहतरीन तरीके से चित्रण करके, उसे शब्दों में गढ़कर उस पर किताब लिखता है। वह किताब बेस्ट सेलर बनती है। उस पर हॉलीवुड की सुपरहिट फिल्म तक बनती है, जो दुनियाभर में 140 मिलियन डॉलर कमाती है।

वो ये सब सिर्फ इसलिए कर पाया क्योंकि उसके साथ एक 'एक्सीडेंट' हुआ। उस 'एक्सीडेंट' ने उसके अंदर छिपी संभावना को पनपने का मौका दिया। अब आप सोचिए इस देश में कितने ही ऐसे सरू हैं जिनके अंदर वैसी इंटेलिजेंस, वैसी संभावना है। किंतु यदि उन्हें ऐसा माहौल ही नहीं मिलेगा जिसमें उन्हें तीन टाइम पौष्टिक भोजन की व्यवस्था की परवाह न हो, रहने के लिए एक साफ-सुधरी व गरिमामय जगह हो, पढ़ने के लिए अच्छा स्कूल हो तो फिर वो अपनी इंटेलिजेंस को आज़माएगा कहां? जैसे औजार को इस्तेमाल करने के लिए किसी चीज़ की ज़रूरत होती है जिस पर वो औजार चलाया जा सके। उसी तरह बुद्धि को भी काम करने के लिए एक मकसद की ज़रूरत होती है। वो सकारात्मक मकसद जो अक्सर इंसान को पढ़-लिखकर दुनिया देखकर मिलता है। मगर इसी बुद्धि को अगर 7-8 साल की उम्र से दुकान पर बर्तन धोने, कूड़ा उठाने इत्यादि में लगा दिया जाएगा, तो वो कहां और कैसे पनपेगी।

सरू अगर ज़िंदगी में कुछ कर पाया तो इसलिए क्योंकि उसके साथ एक 'एक्सीडेंट' हुआ। मगर समाज का बदलना एक 'एक्सीडेंट' नहीं हो सकता। समाज सिस्टम से बदलता है। अशरफ नदीम की सफलता किसी भी गरीब आदमी के कामयाब होने का 'सुखद एक्सीडेंट’ है। इससे उस गरीब की ज़िंदगी तो ज़रूर बदलेगी। वो गरीब जिस समाज में रह रहा है वो समाज भी ये सोचकर खुश हो जाएगा कि हमारे लड़के ने ये कर दिखाया मगर इस एक 'निजी सफलता' से समाज की गति पर कोई खास फर्क नहीं पड़ेगा। इसीलिए संघर्ष के ऐसे किस्सों को मिसाल बताकर गरीब आदमी पर उससे सीखने की ज़िम्मेदारी नहीं लादी जानी चाहिए। ऐसा करके हम गरीब आदमी को संघर्षों से पार न पाने की आत्मग्लानि में तो डालेंगे ही, साथ ही सिस्टम को उसकी ज़िम्मेदारी से भी मुक्त कर देंगे। उसे जवाबदेही से बचा लेंगे।

The FountainHead और Atlas Shrugged जैसी मशहूर किताबें लिखने वाली महान राइटर Ayn Rand ने सालों पहले एक टीवी इंटरव्यू में कहा था कि गरीबी कोई बहुत अच्छी चीज़ नहीं है। गरीब होना कोई सुखद अहसास नहीं है। हम उस गरीबी से पार पाकर सफल हुए कुछ चुनिंदा लोगों को तो जानते हैं, उनका महिमामंडन भी करते हैं मगर उस गरीबी के दलदल में फंसे रह जाने की वजह से कितनी ही संभावनाओं का कत्ल हो जाता है, इसका कोई हिसाब नहीं रखता।

  नीरज बधवार  

(नीरज बधवार वरिष्ठ पत्रकार व व्यंगकार हैं। पिछले दो दशक से प्रिंट, डिजिटल और विभिन्न टीवी मीडिया व डिबेट्स में बराबर सक्रिय रहे हैं। ये 'बातें कम, स्कैम ज़्यादा' और 'हम सब Fake हैं' नाम से दो पुस्तकों का लेखन कर चुके हैं। 2023 तक टाइम्स ऑफ़ इंडिया ग्रुप में बतौर क्रिएटिव एडिटर काम करने के बाद नीरज अब स्वतंत्र रचनात्मक लेखन कार्य कर रहे हैं। )

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