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भारत में सिनेमा का विकास

मैं वो हूं जो आज बस और ट्रेन में चलने से डरता है..मैं वो हूं जो काम पर जाता है तो उसकी बीवी को लगता है जंग पे जा रहा है, पता नहीं लौटेगा या नहीं...मैं वो हूं जो कभी बरसात में फंसता है, कभी ब्लास्ट में..झगड़ा किसी का भी हो, बेवजह मरता मैं ही हूं " फिल्म ए वेडनसडे का यह संवाद साल 1913 में आई भारत की पहली फिल्म 'राजा हरिश्चंद्र' जो की एक मूक फिल्म थी, से अब तक के सिनेमाई विकास की यात्रा को शानदार तरीके से बयां करता है। राजा हरिश्चंद्र, मुगले-आजम, मदर इंडिया, शोले और लगान से होते हुए आरआरआर तक ने भारतीय सिनेमा ने सफलता के नए मानक गढ़े हैं।

सिनेमा, जिसे मोशन पिक्चर या फिल्म के रूप में जाना जाता है, आज मनोरंजन का सबसे बड़ा साधन है। आज सिनेमा हम भारतीयों के जीवन का अभिन्न अंग बन गया है। बिना रंग वाले सिनेमा से लेकर कलरफुल सिनेमा तक; मूक फिल्मों से डॉल्बी साउंड तक, रीलों से एकल शोरील तक; जीरो ग्राफिक्स से लेकर एनिमेशन व वीएफएक्स तक भारतीय सिनेमा का सफर काफी अनूठा रहा है। सिनेमा, सेल्युलाइड पर लिखे जाने वाली साहित्य की आधुनिक विधा माना जाता है जिसमें साहित्य, चित्र, नृत्य और संगीत जैसी सभी विधाएँ आकर समाहित हो जाती हैं।

भारतीय सिनेमा का विकास एकाएक नहीं हुआ है। भारतीय फिल्म उद्योग दादा साहेब द्वारा बनायी गई पहली मूक फिल्म 'राजा हरिश्चंद्र' के बाद से एक लंबा सफर तय कर चुका है। दादा साहेब फाल्के को "भारतीय सिनेमा का जनक" भी माना जाता है। हालांकि यह एक मूक फिल्म थी, लेकिन उन्हें क्या पता था कि वह एक ऐसी कला को जन्म दे रहे हैं जिसकी आवाज दुनिया भर में गूंजेगी। उनकी पहल ने हमारे देश में कई फिल्म निर्माताओं के उदय को प्रेरित किया। वहीं, ध्वनि के साथ पहली मोशन पिक्चर यानी अर्देशिर ईरानी द्वारा निर्देशित 'आलमआरा' जो 14 मार्च 1931 को रिलीज़ हुई थी। फिल्म ने अपने गानों और बेहतरीन संवादों के जरिए खूब वाह-वाही लूटी। मनोरंजन के इस नए माध्यम लोगों की बढ़ती दिलचस्पी को देखते हुए देश के लगभग सभी नगरों में सिनेमाघर स्थापित किए गए, इससे फिल्म निर्माण को गति मिली।

1944 से 1960 के दशक तक की अवधि को फिल्म इतिहासकारों द्वारा भारतीय सिनेमा का 'स्वर्ण युग' माना जाता है। इस दौर में मनोरंजन प्रधान फिल्मों का निर्माण शुरू हुआ। अब सिनेमा में सामाजिक संदर्भ, ऐतिहासिक वास्तविकता और तात्कालिकता की भावना प्रमुख हो गई। उस समय शहरी जीवन पर कई अच्छी फिल्में बनीं, जिसमें मदर इंडिया, मुगले आजम, गुरु दत्त की प्यासा (1957) और फूल (1959) और राज कपूर की आवारा और श्री 420 (1955) शामिल हैं। इन फिल्मों ने मुख्य रूप से भारत में कामकाजी वर्ग के शहरी जीवन से संबंधित सामाजिक विषयों को व्यक्त किया। यही वह समय था जब समानांतर सिनेमा अस्तित्व में आया और सत्यजीत रे से शुरू हुई इस परंपरा को ऋत्विक घटक और मृणाल सेन जैसे निर्माताओं ने आगे बढ़ाया। यह भारतीय रंगमंच और बंगाली साहित्य का प्रभाव था जिसने समानांतर सिनेमा को जन्म दिया और इसके प्रभाव को देश के कई हिस्सों में भी प्रोत्साहित किया गया और इस समयावधि में सिनेमा ने लगभग सभी स्तरों पर सफलता प्राप्त की।

70 और 80 के दशक में "मसाला" फिल्मों का निर्माण करने की प्रवृत्ति बढ़ी। यह दौर डरावनी, रहस्यमयी, कॉमेडी, एक्शन, थ्रिलर और रोमांटिक शैली की एक से बढ़कर एक देखने को मिलती हैं। मसाला फिल्मों में वह सब कुछ था जो दर्शकों को बांधे रख सकता था। इस दौर में आयी शोले, दीवार, अमर अकबर एन्थोनी, आनंद जैसी फिल्मों ने दर्शकों का खूब मनोरंजन किया। शोले फिल्म को भारतीय सिनेमा की कल्ट क्लासिक फिल्मों में शुमार किया जाता है जिसने लोकप्रियता के सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए थे। ध्वनि प्रौद्योगिकी, नृत्यकला और तकनीकी में उन्नति ने भारतीय सिनेमा को एक वैश्विक मंच पर लाने का मार्ग प्रशस्त किया, जैसा कि हम आज देखते हैं।

90 के दशक में कॉर्पोरेट जगत धीरे-धीरे निर्माता के रूप में फिल्म उद्योग में प्रवेश कर रहा था। उदारीकरण (1991) सिनेमा में भी काफी तरह के बदलाव लेकर आया। पूँजी फिल्म निर्माण में अब बाधा नहीं थी सो अब बड़े बजट की फिल्मों का निर्माण शुरू हुआ और कलरफुल फिल्मों की बहार सी आ गई। निर्माताओं ने अपनी फिल्मों को बड़े स्तर पर शूट करना शुरू किया, साल 1995 में आयी दिलवाले दुल्हनियां ले जाएंगे इसका एक उदाहरण भर है। यह दौर रोमांटिक म्यूजिकल फिल्मों का माना जा सकता है। आज भी उन फिल्मों के संवाद और गाने लोगों की जुबान पर हैं।

साल 2000 से अब तक भारतीय सिनेमा ने काफी प्रगति कर ली है। बीस के दशक के शुरू में हर साल करीब 27 फ़िल्में बनती थी आज यह संख्या 2000 फिल्मों तक पहुंच गयी है। आज का सिनेमा 'ब्लॉकबस्टर' और 'बॉक्स ऑफिस कलेक्शन' के इर्द-गिर्द घूमता है। उसकी सौ करोड़ों की छलांगे देखकर आंखें चौंधिया जाती हैं। तकनीकीगत कुशलता ने फिल्मों को लार्जर देन लाइफ वाला बना दिया है। बाहुबली, रॉ वन, रोबोट जैसी फिल्मों में यह देखा जा सकता है। पूंजीगत निवेश और सरकारी सहायता ने इसमें काफी मदद की है। वहीं, ओटीटी और यूट्यूब जैसे प्लेटफॉर्म्स ने लोगों के चयन का दायरा बढ़ा दिया है। धर्मिक और पौराणिक कथाओं से शुरु हुआ भारतीय सिनेमा का यह सफर बाजारवादी सिनेमा तक पहुंचते-पहुंचते कई करवटें ले चुका है।

जब बात भारतीय सिनेमा की होती है तो लोग इसे बॉलीवुड या हिंदी सिनेमा से जोड़कर देखते हैं पर ऐसा बिलकुल भी नहीं है। यह बात काफी हद तक सच है कि बॉलीवुड की फिल्मों की लोकप्रियता काफी अधिक है पर बीते कुछ सालों में क्षेत्रीय सिनेमा की फिल्मों को दर्शकों ने खूब पसंद किया है। अब क्षेत्रीय सिनेमा अपने दायरे से निकलकर पैन इंडिया फिल्मों की तरफ मुड़ गया है। बाहुबली, पुष्पा, आरआरआर, केजीएफ और कांतारा ने सफलता के नए कीर्तिमान गढ़े हैं। इन फिल्मों को भारत के बाहर भी खूब पसंद किया गया। कन्नड़, तमिल, तेलगू, मलयालम और मराठी सिनेमा इंडस्ट्री में एक से बढ़कर एक फिल्में बन रहीं हैं और बेहतर डबिंग के कारण भाषाई कठिनाई अब खत्म हो गई है। बीते पांच सालों में फार्मूला बेस्ड फिल्मों से अलग तरह का सिनेमा देखने को मिला है। कुबलंगी नाइट्स, वायरस, सुपर डीलक्स, जय भीम और द ग्रेट इंडियन किचन जैसी फिल्मों को देखकर लगता है कि हिंदी सिनेमा में तो ऐसा कुछ बना ही नहीं। यही कारण है कि आज बॉलीवुड में बनने वाली अधिकतर बड़ी फिल्में क्षेत्रीय फिल्मों का रीमेक होती हैं। आज तकनीक के चलते देशीय और क्षेत्रीय सीमाएं धुंधली पड़ गई हैं। इसे सही मायने में भारतीय सिनेमा का स्वर्णिम दौर कह सकते हैं।

विश्व सिनेमा जितना व्यापक है, उतनी ही व्यापकता और भव्यता भारतीय सिनेमा में भी देखी जा सकती है। दुनिया में आज साल भर में 2000 फिल्में बनानी वाली कोई इंडस्ट्री नहीं है। वैश्वीकरण के इस दौर में सिनेमा की पहुंच उस व्यक्ति तक भी है जो न तो उस देश को और वहां की भाषा को अच्छे से जानता है। अपने शानदार कंटेंट के कारण अंधाधुन, दंगल, बजरंगी भाईजान, थ्री इडियट्स और हिंदी मीडियम जैसी फिल्मों को चीन, अमेरिका और संयुक्त अरब अमीरात में खूब पसंद किया गया। उदारीकरण के बाद देश में एक नए मध्य वर्ग का उदय हुआ है जो अच्छे कंटेट के लिए पैसे खर्च करने को तैयार है और उसकी इस जरूरत को ओटीटी प्लेटफॉर्म्स ने काफी हद तक पूरा भी किया है। जरूरत है सरकार द्वारा प्रोत्साहन और सहायता की जिससे मनोरंजन के साथ-साथ सिनेमा के जरिए रोजगार भी पैदा हों।

  अनुज कुमार वाजपेई  

अनुज कुमार वाजपेई, उत्तर प्रदेश के रायबरेली जिले के रहने वाले हैं। स्नातक की पढ़ाई अपने गृह जनपद से करने के बाद इन्होंने IIMC DELHI से हिंदी पत्रकारिता में पीजी डिप्लोमा किया है। कई संस्थानों में काम करने के बाद आजकल ये अनुवादक का कार्य कर रहे हैं।

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