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दृष्टि आईएएस ब्लॉग

दिल्ली देश का ‘दिल’ फिर इतने प्रशासनिक सुराख़ क्यों?

यूं तो लोगों के लिए बारिश का मौसम एक सुखद अहसास है लेकिन अनेक वजहों से हम संवेदनशील लोग खुद को बरसात के प्रति असहज पाते हैं। दिल्ली में हर वर्षा ऋतु कई घरों को उजाड़ती है, अपनों को हमेशा के लिए दूर कर देती है। बारिश के मौसम में करेंट लगने से सड़क पर लोगों की जान जाना, मां और बच्चे का खुले नाले में गिरकर जान गंवाना हो, बेसमेंट में डूबकर बच्चों की दु:खद मृत्यु से लेकर कमज़ोर घरों के गिरने से लोगों की असामयिक मौत, कभी एयरपोर्ट की बिल्डिंग का कैब पर गिर जाना तो कभी पार्किंग में होर्डिंग का ध्वस्त हो जाना; इत्यादि ऐसी तस्वीरें लगातार हमारे ज़हन में आती रहती हैं। बच्चे जब भी बाहर निकलते हैं, अभिभावक उन्हें सावधानी बरतने पर लेक्चर देते हैं फ़िर इस सोंच में पड़ जाते हैं कि ऐसा कब तक चलेगा। वो दिन कब आएगा, जब आम नागरिक दिलवालों की कही जाने वाली इस दिल्ली शहर में खुद को सुरक्षित महसूस करेंगे।

चुनावों के समय हर राजनीतिक दल दिल्ली की सूरत और सीरत सुधारने का वादा कर सत्ता में आना चाहता है। लेकिन सत्ता में आते ही उनकी प्राथमिकताएं बदल जाती हैं और ये वादे धरे के धरे रह जाते हैं। नतीजा- फिर वही दुर्घटनाओं का कभी न ख़त्म होने वाला सिलसिला और राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप का दौर! राजनीति और प्रशासन में समझदारी भरे विमर्श की जगह जब "मैं सही-तू ग़लत" की भावना आ जाती है तो स्वाभाविक तौर पर लोक कल्याण खुद को आखिरी पायदान पर खड़ा पाता है।

दिल्ली शरणार्थियों का शहर रहा है। यहां आज़ादी के समय पाकिस्तान से आने वाले लोगों ने मालवीय नगर, लाजपत नगर, किंग्सवे कैंप जैसी कॉलोनियां बसाईं तो दूसरी तरफ लाजपत नगर और भोगल जैसे इलाकों ने अफ़गानी शरणार्थियों को पनाह दी। शकूरपुर, सीलमपुर और मंगोलपुरी में बांग्लादेशी शरणार्थी बसे जबकि उत्तरी-पूर्वी दिल्ली में आज भी उत्तर प्रदेश और बिहार के लोग नई संभावनाओं की तलाश में आकर बस रहे हैं। इस तरह से हम समझ सकते हैं कि दिल्ली में लोगों का बसाव अनियोजित तरीके से हुआ है जिसके चलते सामंजस्यपूर्ण और सुनियोजित शहरीकरण नहीं हो पाया है।

सरकारी विनियमितिकरण के अभाव में अन्य शहरों की तरह यहां भी वर्ग आधारित कॉलोनियों का विकास हुआ। इसी वजह से एक तरफ ग्रीन पार्क, फ्रैंड्स कॉलोनी जैसे क्षेत्रों में आपको खुली सड़कें और सुरक्षित घर दिखेंगे तो वहीं दूसरी तरफ मुनिरका, सत्या निकेतन, मुखर्जी नगर में आप ख़ुद को दुर्घटना से बस एक कदम दूर पाएंगे। ऐसे में यह महत्वपूर्ण हो जाता है कि हम यह समझने की कोशिश और विमर्श करें कि आखिर दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश की राजधानी की राजनीतिक व प्रशासनिक स्थिति को सुधारने और आमजन को सुरक्षित वातावरण देने के लिए क्या पहल किये जाने चाहिए। इस ब्लॉग में हम इसी विषय पर बिंदुवार विमर्श करेंगे।

सबसे पहले हम यह समझते हैं कि आखिर प्रशासनिक अव्यवस्था के पीछे की मूल वज़ह क्या है?

1. समानांतर सरकारें- 69वें संविधान संशोधन द्वारा दिल्ली को दिए गए 'राज्य' के दर्जे से लेफ़्टिनेंट गवर्नर (एलजी) बनाम मुख्यमंत्री (सीएम), लोक निर्माण विभाग (पीडब्ल्यूडी) बनाम दिल्ली विकास प्राधिकरण (डीडीए) की स्थिति उत्पन्न हुई है। केंद्र, राज्य और स्थानीय स्तर पर सरकारों की शक्तियों व सीमाओं में स्पष्टता का अभाव भी इसकी एक प्रमुख वज़ह है है।

2. बिल्डिंग संबंधी नियमों का अंतर्विरोध- 'नेशनल बिल्डिंग कोड' (एनबीसी), 'दिल्ली फायर रूल्स' (डीएफआर), 'यूनिफाइड बिल्डिंग बाई लॉज़' (यूबीबीएल), 'दिल्ली मास्टर प्लान 2021' (डीएमपी) आदि अनेक नियमों-क़ानूनों की उपस्थिति में अस्पष्टता पैदा हुई है तथा नियमों का अनुपालन सुनिश्चित करना बोझिल हो गया है।

3. पुरातन सीवर प्रणाली और ड्रेनेज सिस्टम- ‌शहर की सीवर व्यवस्था 'दिल्ली मास्टर प्लान 1976' पर आधारित है जो उस वक्त विकसित की गई थी जब दिल्ली की जनसंख्या 60 लाख मात्र थी। आज अनुमानतः शहर की आबादी 2 करोड़ के ऊपर जा चुकी है इसलिए पुरानी सीवर व्यवस्था अक्षमता से जूझ रही है। जिसका नतीजा सामने है।

4. ‘टॉप टू डाउन’ अप्रोच- नियमों तथा योजनाओं के निर्माण से लेकर कार्यान्वयन संबंधी चर्चा बंद कमरों के भीतर की जाती है। स्थानीय समस्याओं से अनभिज्ञता की स्थिति में 'वन साइज़ फिट्स ऑल' की नीति को अपनाया जाना भी बड़ी समस्या है।

5. फंडिंग की कमी- नीति आयोग के अनुसार भारत के शहर सकल घरेलू उत्पाद में लगभग 60% का योगदान करते हैं जबकि 'द हिंदू' अखबार की रिपोर्ट कहती है कि 2015 में हुए अंतिम आकलन के मुताबिक इन शहरों को जी डी पी का मात्र 0.3% फंडिंग के रूप में प्राप्त होता है। धन के अभाव में शहरों की‌ आधारभूत संरचना का संचालन चुनौतीपूर्ण हो जाता है।

6. व्यापक भ्रष्टाचार- अधिकतर सरकारी तंत्र भ्रष्टाचार में लिप्त है और जनता की सेवा करने की जगह लालफीताशाही में लगा हुआ है।

7. जन जागरुकता की कमी- शहर के निवासी एक तो रोज़ी रोटी के प्रक्रम में व्यस्त हैं और सोशल मीडिया के दौर में उनका बचा हुआ समय फेसबुक, इंस्टाग्राम जैसी साइटों पर बीत जाता है। ऐसी जीवनशैली से शहरी वातावरण के प्रति अनभिज्ञता और उपेक्षा की प्रवृत्ति उत्पन्न हुई है।

सिर्फ़ बरसात हीं नहीं दिल्ली अन्य भी कई ख़तरों के प्रति सुभेद्य है। गर्मी के दौरान 'अर्बन हीट आइलैंड' प्रभाव और सर्दियों में शीतलहर के साथ दमघोंटू प्रदूषण- यहां सामान्य परिघटना है। वहीं जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के अनुसार पिछले एक हज़ार वर्षों से दिल्ली पर एक बड़ा भूकंप (रिक्टर स्केल 7-9) बाकी है जो कभी भी आ सकता है। इन तथ्यों को मद्देनजर रखते हुए शहरी विकास के संदर्भ में एक नया दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है।

क्या हो सकता है समाधान?

1. सरकारों के बीच आपसी सहमति से कार्यों तथा क्षेत्राधिकार का स्पष्ट विभाजन- इससे कार्यों के दोहराव और हितों के टकराव की स्थिति नहीं बनेगी।

2. शहरी विकास से संबंधी एक नीति- राजनेताओं, कार्यपालकों, सिविल सोसायटी, विशेषज्ञ आदि सभी हितधारकों के सहयोग से शहरीकरण पर स्पष्ट नीति का निर्माण करना होगा। साथ हीं, सरकारी तंत्र और जनता द्वारा नियमों का अनुपालन सुनिश्चित करना।

3. 'टॉप टू डाउन' की जगह 'बॉटम टू अप' अप्रोच- नीति के मसौदे पर स्थानीय लोगों से सुझाव लेना, योजनाओं के कार्यान्वयन में निवासियों की भागीदारी सुनिश्चित करना, जनता की समस्याओं के निराकरण के लिए एकल शिकायत निवारण विंडो का निर्माण करना और आमजन को शहरी विकास के महत्वपूर्ण हितधारक के रूप में विकसित करना एक बेहतर पहल हो सकती है।

4. राजस्व का उचित विनिमयन तथा पर्याप्त वित्तपोषण- 'फ़्री बी' कल्चर को समाप्त करना, शहरी स्थानीय निकायों के क्षेत्राधिकार में आने वाले संपत्ति कर, वाहन कर, जल कर, प्रोफेशनल टैक्स आदि को लागू करना तथा 'वित्तीय स्वायत्तता' की दिशा में कदम बढ़ाना समस्या के समाधान में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।

5. नयी हाउसिंग परियोजनाएं- मलिन बस्तियों के उन्मूलन के लिए नयी हाउसिंग परियोजनाओं पर कार्य शुरू करना, लगातार बढ़ रही प्रवासी जनसंख्या को समायोजित करने के लिए 'सैटेलाइट शहरों' का विकास करना एवं उन पहलुओं व स्थानीय शहरों तथा ग्रामीण क्षेत्रों से जनता के पलायन को रोकने पर नीतिगत क्रियान्वयन करना, रोजगार क्षेत्रों का निर्माण करना, जो दिल्ली में जनसंख्या के संघनन के लिए भूमिका निभा रहे हैं

6. शहरी सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था का विकास- दिल्ली में डीटीसी को अतिरिक्त बसों (लगभग 7000-8000) के परिचालन करने की ज़रूरत है। अभी डीटीसी की फ्लीट में सिर्फ़ 4000 बसें शामिल हैं। दिल्ली मेट्रो का विस्तार करने के साथ-साथ डबल डेकर मेट्रो के परिचालन पर भी विचार करना चाहिए।

7. सेफ तथा अनसेफ एरिया की जियो टैगिंग- रोटेशनल विधि से शहरी अवसंरचना की जांच करना और विभिन्न क्षेत्रों को 'सेफ' और 'अनसेफ' एरिया का दर्जा देना, बिल्डिंग के लिए 'स्टार रेटिंग' मानक विकसित करना, ख़तरनाक उद्यमों को शहर के बाहर बसाना इत्यादि ऐसे प्रशासनिक उपाय हैं, जिनसे देश की राजधानी को सुरक्षित बनाया जा सकता है।

8. मौसम संबंधी अलर्ट- तूफ़ान, तेज़ बारिश आदि की स्थिति में मौसम विभाग के द्वारा टेक्स्ट मैसेज के माध्यम से त्वरित अलर्ट भी जारी किया जाना चाहिए ताकि लोग समय पर सुरक्षित जगहों पर लौट सकें।

9. अवैध अतिक्रमण रोकना- शहरी वनों तथा तालाबों पर अवैध अतिक्रमण रोकना और नये 'ग्रीन और ब्लू स्पंज' का निर्माण करना भी एक बेहतर विकल्प हो सकता है।

10. जवाबदेही तय करना- दुर्घटना की स्थिति में स्थानीय अधिकारियों की जवाबदेही तय करके उनपर उचित कार्रवाई होनी चाहिए।

विश्व बैंक के अनुसार 2050 तक भारत की लगभग 50% आबादी शहरी क्षेत्रों में निवास करेगी। ऐसे में, व्यवस्थित व सुनियोजित शहरीकरण न सिर्फ़ बढ़ती आबादी को समायोजित करने में सक्षम होगा, बल्कि निवासियों की आकांक्षाओं के साथ-साथ सुरक्षा प्रदान करते हुए देश के दिल (दिल्ली) के तमाम प्रशासनिक सुराखों को भी भरने का कार्य करेगा।

  संजीव कौशिक  

(लेखक संजीव कौशिक टेलीविजन दुनिया के जाने-माने विश्लेषक और डिबेटर हैं। वरिष्ठ पत्रकार संजीव सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक समेत विभिन्न राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय विषयों पर तर्कपूर्ण मुखरता से अपनी बात रखने के लिए जाने जाते हैं।)

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