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धूमिल: हिन्दी कविता का एंग्री यंगमैन

एक आदमी
रोटी बेलता है
एक आदमी रोटी खाता है
एक तीसरा आदमी भी है
जो न रोटी बेलता है, न रोटी खाता है
वह सिर्फ़ रोटी से खेलता है
मैं पूछता हूँ--
'यह तीसरा आदमी कौन है ?'
मेरे देश की संसद मौन है।

उपरोक्त पंक्तियों में व्यवस्था में तीसरे आदमी की घुसपैठ पर प्रश्न उठाने वाले कवि हिन्दी कविता के ‛एंग्री यंगमैन’ सुदामा पांडेय हैं, जिन्हें साहित्य की दुनियां ‛धूमिल’ नाम से जानती है। कबीर, निराला और मुक्तिबोध की परंपरा को आगे बढ़ाने वाले कवि धूमिल का जन्म 9 नवंबर 1936 को वाराणसी के खेवली में हुआ। इनके पिता शिवनायक पांडेय एक मुनीम और माता रजवंती देवी गृहणी थी। इनका विवाह 12 वर्ष की उम्र में मूरत देवी से हुआ। धूमिल का पूरा जीवन संघर्ष और सृजन की दास्तान है। जीवन के शुरुआत में ही इन्हें आजीविका के लिए संघर्ष करना पड़ा। आजीविका की तलाश में वह काशी से कलकत्ता तक भटकते रहे। नौकरी भी मिली तो लाभ कम, मानसिक यातना ज्यादा। 1958 में इन्होंने आईटीआई वाराणसी से डिप्लोमा किया और वहीं पर विद्युत अनुदेशक के रूप में कार्य करने लगे। संघर्ष के साए में पल रहे संवेदनशील कवि ने समाज में व्याप्त विसंगतियों को कविता का रूप दिया। इसलिए धूमिल का रचना संसार कल्पनाशीलता से परे जीवन के यथार्थ के निकट है।

अकविता आंदोलन के प्रमुख कवि धूमिल सहज, सजग और अपनी प्रतिभा के बल पर अपनी साहित्य की जमीन तैयार करने वाले तार्किक एवं निर्भीक कवि हैं। धूमिल का काव्य संसार उनका स्वयं का भोगा हुआ और खुली आंखों से देखा हुआ यथार्थ है। इसलिए उनकी कविता में एक अलग प्रकार की आक्रामकता है।

साहित्य सृजन धूमिल के लिए मनोरंजन की चीज नहीं है। वह कविता के विषय में अपनी अवधारणा स्पष्ट करते हुए कहते हैं-

कविता क्या है?
कोई पहनावा है? कुर्ता-पजामा है?
ना भाई ना।
कविता
शब्दों की अदालत में
मुजरिम के कटघरे में खड़े बेकसूर आदमी का हलफनामा है।

********

कविता
घेराव में किसी बौखलाए हुए आदमी का
संक्षिप्त एकालाप है।

********

कविता
भाषा में आदमी होने की तमीज है।

धूमिल की भाषा हिंदी कविता की बनी बनाई परंपरा से अलग है। वे कविता की दुनिया में भाषा का भ्रम तोड़ते हैं। वे जनता की यातना और दुःख से उभरी तेजस्वी भाषा में कविताएं करना पसंद करते हैं। वे कहते हैं, “आज महत्व शिल्प का नहीं कथ्य का है, सवाल यह नहीं कि आपने किस तरह कहा है, सवाल यह है कि आपने क्या कहा है।”

धूमिल ने विशेष रूप से सामाजिक और राजनीतिक असंगतियों पर प्रहार किया। उनकी कविता ‛मोचीराम’ तत्कालीन सामाजिक चेतना की महत्वपूर्ण एवं सशक्त अभिव्यक्ति है। जिसमें वह कहते हैं-

“बाबूजी सच कहूँ-मेरी निगाह में
न कोई छोटा है
न कोई बड़ा है
मेरे लिये,हर आदमी एक जोड़ी जूता है
जो मेरे सामने
मरम्मत के लिये खड़ा है।

और असल बात तो यह है
कि वह चाहे जो है
जैसा है,जहाँ कहीं है
आजकल
कोई आदमी जूते की नाप से
बाहर नहीं है।”

धूमिल पेशे एवं भाषा के आधार पर जाति एवं मजहब तय करने वालों लोगों को भी फटकारते हुए कहते हैं-

“असल में वह एक दिलचस्प गलतफहमी का शिकार है
जो यह सोचता है कि
पेशा एक जाति है
और भाषा पर आदमी का नहीं,
किसी जाति का अधिकार है।”

धूमिल की कविताओं में आजादी के सपनों के मोहभंग की पीड़ा दिखाई देती है। देश की अमानवीय तस्वीर पेश करते हुए वे जनता के बारे में कहते हैं-

“जनता क्या है?
एक भेड़ है
जो दूसरों की ठंड के लिए अपनी पीठ पर
ऊन की फसल ढो रही है।”

वे कहते हैं-

“क्या, आजादी तीन थके हुए रंगों का नाम है?
जिन्हें एक पहिया ढोता है
या इसका कोई खास मतलब होता है।”

धूमिल अपनी कविता ‛बीस साल बाद’ में आजादी के बाद उपजे मोहभंग को अभिव्यक्ति देते हुए कहते हैं-

“बीस साल बाद
मैं अपने आपसे एक सवाल करता हूँ,
जानवर बनने के लिए
कितने सब्र की जरूरत होती है।”

धूमिल की कविता में परंपरा, सभ्यता, शालीनता और भद्रता का भी विरोध है। वे किसी के सुर में सुर मिलाने वाले साहित्यकार नहीं थे। उन्होंने तमाम ठगे हुए लोगों को इस प्रकार से जुबान दी-

“जनतंत्र, त्याग, स्वतंत्रता
संस्कृति, शांति, मनुष्यता
यह सारे शब्द थे
सुनहरे वादे थे
खुशहाल इरादे थे।”

धूमिल आम आदमी की विवशता का जिक्र करते हुए कहते हैं-

“सचमुच मजबूरी है
मगर जिंदा रहने के लिए
फालतू होना जरूरी है।”

धूमिल की कविताओं का विषय ज्यादातर राजनीति और राजनेता रहे क्योंकि उन्हें लगता है कि देश में व्याप्त ज्यादातर मानवजनित समस्याओं का कारण राजनीतिक संकीर्णताएं हैं।

धूमिल लोकतंत्र की हकीकत बयान करते हुए कहते हैं-

“ना कोई प्रजा है,
ना कोई तंत्र है,
यह आदमी के खिलाफ
आदमी का खुला षड्यंत्र है।

****************

अपने यहां जनतंत्र
एक ऐसा तमाशा है
जिसकी जान मदारी की भाषा है।”

धूमिल, व्यवस्था की चक्की में पिस रही भीड़ के परायेपन का सचित्र वर्णन करते हुए कहते हैं-

“नगर के मुख्य चौरस्ते पर, शोकप्रस्ताव पारित हुए
हिजड़ो ने भाषण दिए लिंग-बोध पर

वेश्याओं ने कविताएँ पढ़ीं आत्म-शोध पर
प्रेम में असफल छात्राएँ अध्यापिकाएँ बन गई हैं
और रिटायर्ड बूढ़े सर्वोदयी —

आदमी की सबसे अच्छी नस्ल युद्धों में नष्ट हो गई
देश का सबसे अच्छा स्वास्थ्य
विद्यालयों में संक्रामक रोगों से ग्रस्त है

सबसे अच्छे मस्तिष्क
आरामकुर्सी पर चित्त पड़े हैं।”

धूमिल की कविताओं में उनका गांव खेवली चित्रित होता दिखता है जो कि भारत के हर एक गांव की कहानी है। धूमिल ने शहर में नौकरी जरूर की लेकिन गांव, उसकी अच्छाई, बुराई, निर्माण और संघर्ष के न केवल साक्षी बल्कि सक्रिय भागीदार भी रहे। धूमिल खेवली की स्मृति में एक कवि से ज्यादा अपने व्यवहार के लिए जिंदा हैं। धूमिल गांव की मिट्टी से सदैव जुड़े रहे। नवस्वतंत्र भारत में आजादी की खुशी और सपनों के बीच किस तरह गांव और गांव का आदमी बदला है। उसकी साफ-साफ पहचान धूमिल करते हुए कहते हैं-

“मेरे गांव में हर रोज ऐसा होता है
नफरत की आड़ में
चीजें अपना चेहरा उतार कर रख देती हैं
वक्त के फालतू हिस्सों में
खेतों के भद्दे इशारे गूँजते हैं
ग्राम सभा की लालटेन का शीशा टूट चुका है।
नलकूप की नालियां झरना हो गई हैं
उनमें अब लाठियां बहती हैं।
और पानी की जगह आदमी का खून रिसता है।”

तथाकथित विकास ने भाईचारे और प्रेम के बजाय कैसे गांव में संघर्ष एवं मुकदमेबाजी को बढ़ाया है इसकी बहुत सटीक पहचान धूमिल करते हुए कहते हैं-

“गांव की सरहद
पार करके कुछ लोग
बगल में बस्ता दबाकर कचहरी जाते हैं
और न्याय के नाम पर
पूरे परिवार की बर्बादी उठा लाते हैं।”

धूमिल शहर की चतुराई और छल प्रपंच से परिचित हैं। वे पूंजीवादी बाजार व्यवस्था को चुनौती देते हैं। वे पहले ऐसे कवि हैं जो आत्महीनता के खिलाफ पूरे आत्मविश्वास के साथ कविता के द्वारा जरूरी हस्तक्षेप करते हैं। वे कहते हैं-

“ठीक है, यदि कुछ नहीं तो विद्रोह ही सही
— हँसमुख बनिए ने कहा —
’मेरे पास उसका भी बाज़ार है’
मगर आज दुकान बन्द है, कल आना
आज इतवार है। मैं ले लूँगा।

इसे मंच दूँगा और तुम्हारा विद्रोह
मंच पाते ही समारोह बन जाएगा
फिर कोई सिरफिर शौक़ीन विदेशी ग्राहक
आएगा। मैं इसे मुँहमाँगी क़ीमत पर बेचूँगा।”

शोषण की महीन संरचनाओं को बेपर्दा करते हुए धूमिल कहते हैं-

“लोहे का स्वाद
लोहार से मत पूछो
उस घोड़े से पूछो, जिसके मुंह में लगाम है।”

धूमिल शोषित वर्ग की भुखमरीजनित विवशता को चित्रित करते हुए कहते हैं-

“कुल रोटी तीन
खाने से पहले मुँह दुब्बर
पेट भर पानी पीता है और लजाता है
कुल रोटी तीन, पहले उसे थाली खाती है
फिर वह रोटी खाता है।”

धूमिल ऐसी सामाजिक व्यवस्था का विरोध करते हैं जिसमें अमीर और अमीर होता जाता है तथा गरीब और गरीब होता जाता है। तभी वह लिखते हैं-

“जिसके पास थाली है
हर भूखा आदमी
उसके लिए, सबसे भद्दी
गाली है
हर तरफ कुआं है
हर तरफ खाई है
यहां, सिर्फ वह आदमी देश के करीब है
जो या तो मूर्ख है
या फिर गरीब है।”

धूमिल समाजवादी व्यवस्था के ध्वस्त होते सपने को व्यावहारिक रूप से वर्णित करते हुए कहते हैं-

“मेरे देश का समाजवाद
माल गोदाम में लटकी हुई
उन बाल्टियों की तरह है
जिस पर ‛आग’ लिखा है
और उनमें बालू और पानी भरा है।”

धूमिल देशभक्ति के नाम पर सियासी फायदा उठाने वाले लोगों की पहचान करते हुए कहते हैं-

“हर तरफ धुआं है।
हर तरफ कुहासा है
जो दांतों और दलदलों का दलाल है
वही देशभक्त है।”

आज की राजनीतिक व्यवस्था की असली तस्वीर पेश करते हुए धूमिल कहते हैं-

“हाँ, यह सही है कि कुर्सियां वही हैं
सिर्फ टोपियां बदल गई हैं
और
सच्चे मतभेद के अभाव में
लोग उछल-उछल कर
अपनी जगहें बदल रहे हैं।”

21वीं सदी के चर्चित दलित और स्त्री विमर्श के बीज धूमिल की कविताओं में पूरी तल्खी के साथ विद्यमान हैं-

“स्त्री पूंजी है
बीड़ी से लेकर
बिस्तर तक
विज्ञापन में फैली हुई।”

धूमिल निस्तेज हो गई जनता में चेतना का संचार करते हुए नवजागरण का नूतन संदेश देते हुए कहते हैं-

“अपनी आदतों में
फूलों की जगह पत्थर भरो
मासूमियत के हर तकाजे को ठोकर मार दो
अब वक्त आ गया है कि तुम उठो
और अपनी ऊब को आकार दो।”

धूमिल, जड़ राजनीतिक व्यवस्था में परिवर्तन का आह्वान करते हुए जनमानस से कहते हैं कि-

“ हे भाई, हे! अगर चाहते हो
कि हवा का रुख बदले
तो एक काम करो
हे भाई, हे!
संसद जाम करने से बेहतर है
सड़क जाम करो।”

अपनी कविता में जीवन के स्याह पक्ष को उकेरने वाले धूमिल अपने परिवेश से भावनात्मक रूप से जुड़े रहे। इससे उन्हें एक अलग प्रकार का आत्मविश्वास प्राप्त होता रहा। वे कहते हैं-

“प्यास इतनी है कि मेरा दर्द
मुझको पी रहा है।
किंतु मेरे स्नेह का विश्वास
मुझको जी रहा है।
अन्यथा मैं चुक गया होता।”

सीमित समय में विपुल साहित्य सृजन के बाद भी धूमिल में गहरा असंतोष है। अपनी अनकही बेबसी को धूमिल इन शब्दों में बयां करते हैं-

“पता नहीं कितनी रिक्तता थी-
जो भी मुझमें होकर गुज़रा -रीत गया
पता नहीं कितना अन्धकार था मुझमें
मैं सारी उम्र चमकने की कोशिश में
बीत गया।”

मृत्यु की गोद में बैठकर बेबाकी से धूमिल साहित्य सृजन करते रहे और 38 वर्ष की बेहद कम आयु में ही हिंदी साहित्य ने अपने एंग्री यंगमैन को खो दिया। 10 फरवरी 1975 को लखनऊ में ब्रेन ट्यूमर से धूमिल का निधन हो गया। यह सच है भाग्य ने धूमिल को अत्यधिक संघर्षमय अल्पजीवन दिया फिर भी उन्होंने जो कुछ लिखा वह साठोत्तरी हिंदी कविता के लिए ‛मील का पत्थर’ साबित हुई। आज भी नई कविता आंदोलन की डगर से गुजरते हुए हमें धूमिल के पास से होकर गुजरना होगा।

काव्य संग्रह-

1. संसद से सड़क तक(1972)-

इस संग्रह की सभी रचनाएं तत्कालीन सामाजिक, राजनीतिक परिदृश्य का गहराई से परिचय कराती हैं। इस संग्रह में भय, भूख, अकाल, सत्तालोलुपता, अकर्मण्यता और भटकाव पर आक्रमकता से प्रहार किया गया है।

2. कल सुनना मुझे(1976)-

यह काव्य संग्रह धूमिल के देहांत के बाद प्रकाश में आयी दूसरी सशक्त रचना है।

3. सुदामा पांडेय का प्रजातंत्र(1983)-

यह काव्य संग्रह तत्कालीन साम्राज्यवादी ताकतों की षड्यंत्रकारी नीतियों को बेनक़ाब करता है।

-कविताओं के अतिरिक्त धूमिल ने गीत, कहानी और लेख भी लिखा तथा अनुवाद भी किया।

सम्मान-

  • 1975 में मध्य प्रदेश शासन साहित्य परिषद द्वारा मुक्तिबोध पुरस्कार
  • 1979 में साहित्य अकादमी पुरस्कार

  विमल कुमार  

विमल कुमार, राजनीति विज्ञान के असिस्टेंट प्रोफेसर हैं। अध्ययन-अध्यापन के साथ विमल विभिन्न अखबारों और पत्रिकाओं में समसामयिक सामाजिक और राजनीतिक विषयों पर स्वतंत्र लेखन और व्याख्यान के लिए चर्चित हैं। इनकी अभिरुचियाँ पढ़ना, लिखना और यात्राएं करना है।

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