राष्ट्रीय एकता में बाधक सांप्रदायिक दंगे
- 02 Aug, 2023 | अनुराग सिंह
सात संदूक़ों में भर कर दफ़्न कर दो नफ़रतें
आज इंसाँ को मोहब्बत की ज़रूरत है बहुत
-बशीर बद्र
मानव सभ्यता के विकास के इतिहास में वहाँ से नज़र डालना आरम्भ करें जहाँ से हम सभ्य कहलाए गए या उस लायक़ हुए, ठीक उसी समय से वर्चस्व की जंग भी देखने को मिलने लगी। खानाबदोशी- कबीलाई जीवन से होते हुए धीरे-धीरे समाज की संकल्पना हमने साकार की लेकिन इसी के साथ धब्बों से युक्त रक्तरंजित पृष्ठ भी इतिहास में दर्ज होते रहे।
मानव सभ्यता का विकास दुनिया के किसी एकमात्र कोने में नहीं हुआ अपितु वे कई जगहों पर अलग-अलग रूप व नस्लों में विकसित हुए। इस विषय पर बाक़ायदा अध्ययन और प्रमाण मौजूद हैं। ज़ाहिर सी बात है कि जब वे दुनिया भर के अलग-अलग कोनों में विकसित हुए तो उन सभी लोगों में सांस्कृतिक रूप से वैविध्य होगा ही। उनका रहन-सहन, खाना-पीना, बोली-भाषा, मान्यता-संस्कार और जीवन जीने के तरीके में भी भिन्नता मौजूद होगी। यह असम्भव है कि सभी जगह एकरूपता दिखाई दे क्योंकि संस्कृतियों के विकास में भौगोलिक कारण भी एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। इसलिए सभी सभ्यताएँ-संस्कृतियाँ एक दूसरे से भिन्न-भिन्न रूप में पुष्पित-पल्लवित हुईं। आगे चलकर इन्हीं का विस्तार अलग-अलग धर्मों, सम्प्रदायों में हुआ जो हमारे सामने वर्तमान रूप में मौजूद हैं।
अपने धर्म या सम्प्रदाय को सर्वोच्च रूप में बता कर उसे सत्ता का समर्थन दिला देना मध्यकालीन इतिहास में हमने पढ़ा है। वहाँ शासकों के द्वारा धर्म को राजनीति से जोड़कर एक मज़बूत गठजोड़ बनाकर शासन किया जाता था। इसलिए जब आधुनिक शासन प्रणाली आयी तो लोकतंत्र को अभी तक का श्रेष्ठ शासन माना गया और बहुत से लोकतांत्रिक देशों ने स्वयं को धर्मनिरपेक्ष घोषित किया ताकि सत्ता या शासन का इनमें कोई दखल न रहे। एक देश के रूप में हमने विविधता में एकता का नारा दिया। सांस्कृतिक रूप से इतने वैविध्य वाला देश दुनिया में शायद ही मिले। यदि वे विभिन्न सम्प्रदाय एक साथ मिलकर रहें तो एक सुंदर गुलदस्ता बनता है जिसमें नाना पुष्प अपने रूप और मधुर गंध से उसे सुंदर बना देते हैं लेकिन जब उनमें ही किसी कारण से कोई पुष्प ख़राब होता है तो पूरा गुलदस्ता बेकार हो जाता है। यह देश भी बहुत हद तक ऐसा ही है। अंतर बस इतना है कि गुलदस्ते से कोई पुष्प निकाल कर फेंका जा सकता है लेकिन इस देश में रहने का अधिकार सबका है जिसकी यह मातृभूमि है और जो यहाँ का नागरिक है।
मनुष्य अपने स्वभाव से वर्चस्व वाला प्राणी है। सारी लड़ाई अपने वर्चस्व को स्थापित करने की है। मनुष्य जिस परिवेश में पला-बढ़ा, जहाँ उसने बचपन में अपने दिमाग का विकास किया, वह उसी तरह की चीजों का आदी होता है और इससे अलग चीजें या प्रक्रियाएँ उसे बहुत ठीक नहीं लगती हैं। अपने हित के लिए आपस में संघर्ष तेज होते चलते हैं और जब ये व्यापक हो जाते हैं तो दंगों का रूप ले लेते हैं। राजनीतिक-सामाजिक कारणों से देश के अनेक हिस्सों में साम्प्रदायिक दंगे भड़कते हैं। भारत जैसे देश में धर्म में लोगों की प्रगाढ़ आस्था है इसलिए इन जैसे संवेदनशील मुद्दों पर बड़े राजनीतिक दलों या व्यक्तित्वों को सम्भाल कर, सोच समझ कर बोलना चाहिए। कई बार केवल किसी के कुछ कह देने मात्र से दंगे भड़क जाते हैं। जिस देश में धार्मिक आस्था का मामला बेहद संवेदनशील हो वहाँ प्रशासन को भी उतना ही चौकन्ना रहने की ज़रूरत होती है। यदि साम्प्रदायिक दंगे शुरू होते हैं तो सामाजिक ताना-बना बना के रख पाना बहुत मुश्किल हो जाता है। अपने धर्म और सम्प्रदाय के रक्षक स्वयं कानून को हाथ में लेते हुए हथियारों के साथ अपने से दूसरे मत के लोगों को मारने, उनके घर तोड़ने, दुकानें-गाड़ियाँ जलाने पर उतारू हो जाते हैं। महिलाओं का उत्पीड़न होता है। जब लोग इकट्ठे होकर भीड़ की शक्ल ले लेते हैं तो भीड़ में केवल उन्माद और हिंसा ही शेष रह जाती है और सामने जो कुछ आता है, वे सबको रौंदते चले जाते हैं। सरकारी सम्पत्तियों को नुक़सान पहुँचाया जाता है। कुल मिलाकर यह हमारा-आपका ही नुकसान होता है।
वर्तमान समय सूचना और तकनीकी के त्वरित गति का समय है। सामान्य मीडिया तो अपनी जगह है लेकिन सोशल मीडिया आज लगभग सभी घरों में अपनी पहुँच बना चुका है। मोबाइल फ़ोन व इंटरनेट डेटा की बेहद सस्ती क़ीमतों ने भारत में एक तरह से डिजिटल क्रांति ला दी है। ऐसे में लोगों के पास इनकी पहुँच तो हो गयी है लेकिन उनके पास मीडिया साक्षरता नहीं के बराबर है। हमारे देश की आम जनता जो सोशल मीडिया का इस्तेमाल तो कर लेती है लेकिन उसपर आने वाली चीजें सही हैं या गलत हैं, इसको जाँचने का कोई भी तरीक़ा उसके पास नहीं है। फेक वीडियो और फ़ोटो बनाने वाले बहुत से ऐप आज बड़ी आसानी से उपलब्ध हैं। इनकी सहायता से फ़ोटो-वीडियो में हेर-फेर की जा सकती है। आम जनता जो इसे जाँचने में इतनी अधिक सक्षम नहीं है, वो इसे सही मान लेती है और उसके दुष्प्रभाव देखने को मिलते हैं। किसी पुराने समय या दंगे की फ़ोटो-वीडियो को नए दंगे के समय फिर से प्रसारित कर दिया जाता है। सोशल मीडिया में उपभोक्ताओं की बहुत अधिक संख्या के कारण वो बहुत कम समय में तेजी से देश के हर कोने में पहुँच जाता है और फिर वह लोगों को आक्रोशित करने का काम करता है। यही वजह है कि ऐसी घटना के बाद इंटरनेट को तुरंत बंद कर दिया जाता है। मणिपुर जैसा प्रदेश जातीय हिंसा के आग में झुलस रहा है तो दूसरी ओर मेवात और नूँह साम्प्रदायिक आग में जल रहे हैं। ये घटनाएँ असल में मानवता को शर्मसार करती है। भारत में हिंदुओं और मुसलमानों के मध्य सबसे ज़्यादा संघर्ष दिखाई पड़ता है। विभाजन की विभीषिका इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। नफ़रत को कभी भी नफ़रत से ख़त्म नहीं किया जा सकता, इसे ख़त्म करने के लिए प्रेम की ही आवश्यकता पड़ती है।
इरफ़ान सिद्दीक़ी लिखते हैं-
नफ़रत के ख़ज़ाने में तो कुछ भी नहीं बाक़ी
थोड़ा सा गुज़ारे के लिए प्यार बचाएँ
यह देश विविधता से भरा हुआ देश है। इसकी विविधता को बचाए रखना हम सबकी साझी ज़िम्मेदारी है। कोई शक्तिशाली है तो उसकी अतिरिक्त ज़िम्मेदारी है कि वो कम शक्ति वाले को इस भरोसे में रखने में कामयाब हो कि वे सभी लोग यहाँ पर सुरक्षित हैं। यदि सब मिलकर रहेंगे और इस तरह की अप्रिय घटनाओं से बचे रहेंगे तो देश के विकास में कोई भी बाधा उत्पन्न नहीं होगी अन्यथा इस तरह की घटनाएँ सामाजिक-सांस्कृतिक और आर्थिक क्षति से देश की नींव को कमजोर और खोखला करती हैं। दुनिया में उन देशों की स्थिति देखने लायक़ है जो लगातार गृह युद्ध से जूझ रहे हैं। इनसे सबक़ लेते हुए हमने सबसे पहले इंसान बने रहे की ज़िद पर डटे रहना है। हमारे साहित्य, हमारी फ़िल्में इस बात को पहले से कहती आ रही हैं। साम्प्रदायिकता पर बहुत सी सुंदर फ़िल्में बनीं और उपन्यास लिखे गए जिनका आशय अंतत: मनुष्यता को बचाए रखना है। साहिर लुधियानवी अपने नगमों में लिखते रहे कि ‘तू हिंदू बनेगा, न मुसलमान बनेगा/ इंसान की औलाद है इंसान बनेगा।’ जब हम सभी तरह के लड़ाइयों से हार चुके होते हैं, जब समाज में चारों केवल केवल भय, दहशत और आतंक से नैराश्य छाया हुआ होता है तो हारे और टूटे हुए दिलों से ऐसी ही आवाज़ें निकलती हैं। बहुत बेहतर होगा कि हम अपने देश के नागरिकों को समय रहते हुए सबको साथ लेकर रहना और चलना सिखा पाएँ। हमारी प्राचीन परम्परा सहअस्तित्व की परम्परा रही है जहाँ हम अपने मत के लोगों के साथ-साथ दूसरों के मत को सुन लेना व स्वीकार कर लेना सीखते रहे। आज उसकी ज़रूरत फिर से महसूस हो रही है। हमारे संविधान निर्माताओं ने जिस साइंटिफिक टेम्प्रामेंट की बात की, वह मनुष्य की चेतना को परिष्कृत कर इस तरह से विकसित करने की है जो केवल भावुकता में निर्णय न लेकर तार्किक होकर भी निर्णय लेना सोचे। यदि हम अपने नागरिकों को तार्किक बना पाएँ तो देश में अमन-चैन को भी बना कर रखा जा सकेगा, यहाँ की विविधता किसी के लिए कांटा न होकर सुंदर व सुवासित गुलदस्ता बनकर नागरिकों के लिए हितकारी होगी।
अनुराग सिंहअसिस्टेंट प्रोफ़ेसर श्यामा प्रसाद मुखर्जी महिला महाविद्यालय दिल्ली विश्वविद्यालय |