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कॉमनवेल्थ खेल- अतीत, विवाद और यात्रा

इस लेख में हम समझेंगे कि क्या वाकई में राष्ट्रमंडल खेल, राष्ट्रमंडल देशों को बराबर आंकने के लिए शुरू किये गए थे! साथ ही हम यह भी जानेंगे कि भारत का इन खेलों में प्रदर्शन कैसा रहा है।

कॉमनवेल्थ खेलों का अतीत

राष्ट्रमंडल खेलों का इतिहास राष्ट्रमंडल नामक संगठन से जुड़ा हुआ है। इस संगठन के तार वर्ष 1949 के अप्रैल महीने में हुई लंदन घोषणा से जुड़े हुए हैं। दरअसल द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद एशिया, अफ्रीका और कैरिबियन महाद्वीपों के बहुत सारे देश ब्रिटिश साम्राज्यवाद से आजाद हुए थे। चूंकि इन देशों का ब्रिटिश गुलामी का एक साझा इतिहास था और इन देशों ने लंबे समय तक साम्राज्यवादी विस्तार की पीड़ा झेली थी, ऐसे में ये देश न तो संयुक्त राज्य अमेरिका के गुट में शामिल होना चाहते थे और न ही सोवियत रूस के गुट में शामिल होने की मंशा रखते थे। इसी बीच अप्रैल 1949 में लंदन घोषणा होती है जिसके तहत ब्रिटेन के उपनिवेश रहे देशों को आपस मे जोड़कर कॉमनवेल्थ यानी राष्ट्रमंडल नामक संगठन बनाने की बात कही जाती है। इसी के साथ ये आश्वासन भी दिया जाता है कि इसके सभी सदस्य देश स्वतंत्र रूप से तथा समान रूप से राष्ट्रमंडल में शामिल होंगे।

भारत भी 16 मई 1949 को आधिकारिक रूप से इस संघ का हिस्सा बन जाता है जिसकी पुष्टि स्वयं भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू करते हैं और वे लंदन घोषणा का हवाला भी देते हैं-

"राष्ट्रमंडल के समान एवं स्वतंत्र सदस्य देश हैं जो शांति, आज़ादी एवं प्रगति की दिशा में स्वतंत्र रूप से आपस में सहयोग करेंगे।''

इसके बाद भारत इस संघ का सदस्य बन जाता है। इसी संघ के तत्त्वाधान में हर 4 साल पर राष्ट्रमंडल खेलों का आयोजन किया जाता है। यूँ तो भारत इन खेलों में साल 1934 से ही ब्रिटिश भारत संघ के तहत भाग ले रहा है। मगर आजाद भारत ने पहली बार 1954 मे इन खेलों में भाग लिया। इन खेलों में भारत के लिए पहला पदक कुश्ती खिलाड़ी राशिद अनवर ने वर्ष 1934 के लंदन कॉमनवेल्थ खेलों में जीता था। अगर आजाद भारत के लिये पहले पदक विजेता की बात की जाए तो भारत के महान धावक मिल्खा सिंह ने वर्ष 1958 में कॉर्डिफ कॉमनवेल्थ खेलों में स्वर्ण पदक जीता था। इसके बाद अगर 1962 और 1986 के कॉमनवेल्थ खेलों को छोड़ दिया जाए तो भारत ने इसके सभी संस्करणों में प्रतिभाग किया है।

भारत वर्ष 1962 के कॉमनवेल्थ खेलों में 'भारत-चीन युद्ध' की वजह से भाग नहीं ले पाया था। 1986 के राष्ट्रमंडल खेलों में भारत के भाग न लेने की वजह इन खेलों का सामूहिक बहिष्कार था। इस सामूहिक बहिष्कार की जड़ें दक्षिण अफ्रीका की उस रंगभेद की नीति से जुड़ी हुई थी जिसकी शिकार वहाँ की बहुसंख्यक अश्वेत जनता थी। दक्षिण अफ्रीकी सरकार की इस भेदभावपूर्ण नीति की वजह से बहुत सारे देशों ने उससे राजनयिक संबंध तोड़ लिए थे। मगर ब्रिटेन की मार्गेट थ्रैचर सरकार अभी भी दक्षिण अफ्रीकी सरकार के लिए बेहद नरम रवैया अपनाए हुए थी।

ब्रिटेन की सरकार के इसी समर्थनकारी रुख की वजह से 1986 के एडिनबर्ग कॉमनवेल्थ खेल में भाग लेने वाले 59 में से 32 देशों ने इसके बहिष्कार की घोषणा की थी। सामूहिक बहिष्कार करने वाले इन देशों में भारत भी शामिल था क्योंकि भारत सद्भावना के साथ स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे के नैतिक मूल्यों का पालन करता है।

कॉमनवेल्थ खेलों से सम्बंधित विवाद

अगर कॉमनवेल्थ खेलों के साथ जुड़े विवादों पर बात की जाए तो इन खेलों की शुरूआत से ही इनका विवादों के साथ नाता रहा है। विवादों की शृंखला में सबसे ज्यादा विवाद इन खेलों के नामों को लेकर रहा है। वर्ष 1930 से वर्ष 1974 तक इन खेलों के नामों को 4 बार बदला गया है। वर्ष 1930 में जब इन खेलों की शुरुआत हुई तो इन खेलों का नाम था- ब्रिटिश साम्राज्य खेल। इसके बाद वर्ष 1954 से वर्ष 1966 के बीच ये खेल ब्रिटिश साम्राज्य एवं राष्ट्रमंडल खेल के नाम से सम्पन्न हुए। वर्ष 1970 से 1974 के बीच इनका आयोजन ब्रिटिश राष्ट्रमंडल खेल नाम से किया गया। अंततः साल 1978 में इन्हें राष्ट्रमंडल खेल नाम दिया गया।

राष्ट्रमंडल खेल के पूर्ववर्ती नामों पर इसलिये विवाद उठे क्योंकि वे नाम अभी भी ब्रिटिश साम्राज्यवाद और इसकी सर्वोच्चता की पुष्टि करते थे। इन विवादों से इतर राष्ट्रमंडल खेल पर श्वेत प्रभुत्व या श्वेत सर्वोच्चता के भी आरोप लगते हैं। ये आरोप काफी हद तक सही भी प्रतीत होते हैं क्योंकि हालिया संपन्न बर्मिंघम राष्ट्रमंडल खेलों की आयोजन समिति के 20 सदस्यों में से महज 1 सदस्य ही अश्वेत व्यक्ति था। ऐसे समय में जबकि अश्वेत व्यक्तियों के अधिकारों की लगातार वकालत की जा रही है और ब्लैक लाइव्ज मैटर जैसे आंदोलन चलाए जा रहे हैं उस समय लोकतंत्र के सर्वोच्च हिमायती बनने वाले संघ का ये रवैया हैरत में डालता है।

इतना ही नहीं, आज तक इन खेलों का आयोजन किसी भी अफ्रीकी देश मे नहीं हुआ है। जब इस बाबत राष्ट्रमंडल खेलों की आयोजन समिति से सवाल किया जाता है तो उनका कहना होता है कि इन देशों के पास इस खेल का आयोजन कराने के लिए पर्याप्त सुविधाएं नहीं हैं। चूंकि राष्ट्रमंडल संघ की उत्पत्ति ही इसी विचार के साथ हुई थी कि एक साझी गुलामी का इतिहास लिये देश एक-दूसरे की मदद करते हुए तरक्की की राह पर आगे बढ़ेंगे और सबके साथ समान व्यवहार होगा। ऐसे में राष्ट्रमंडल खेलों की आयोजन समिति का ये तर्क असमानता को अभी भी स्वीकारने वाला तो जान पड़ता ही है साथ ही ये तर्क यथास्थितिवादी रूख भी अपनाए हुए है।

कॉमनवेल्थ खेलों में भारत की यात्रा

अगर विवादों से परे इन खेलों में भारत के प्रदर्शन की बात की जाए तो भारत इन खेलों में लगातार अपने प्रदर्शन में सुधार करता रहा है। यही कारण है कि साल 2002 से अब तक भारत ने लगातार इन खेलों में शीर्ष पाँच देशों के भीतर अपने स्थान को सुनिश्चित किया है। इतना ही नहीं, साल 2010 के दिल्ली राष्ट्रमंडल खेलों में तो भारत ने 101 पदकों के साथ अब तक का सर्वश्रेष्ठ दूसरा स्थान भी हासिल किया था। इस साल के बर्मिंघम राष्ट्रमंडल खेलों में भी भारत की ओर से 215 सदस्यीय खिलाड़ियों का दल खेलने के लिए गया हुआ था। भारत ने इस साल भी 22 स्वर्ण सहित 61 पदक जीते और पदक तालिका में चौथा स्थान अर्जित किया।

हालांकि इस साल भारत को और भी पदक हासिल होते यदि राष्ट्रमंडल खेल की सूची में से निशानेबाजी और तीरंदाजी को हटाया न गया होता। चूंकि भारत ने निशानेबाजी में अब तक सबसे ज्यादा 135 पदक जीते हैं, इसके अलावा व्यक्तिगत तौर पर सबसे अधिक, 15 पदक नाम करने का रिकॉर्ड भी निशानेबाज जसपाल राणा के नाम है। ऐसे में निशानेबाजी स्पर्धा को इन खेलों से हटाए जाने से न सिर्फ इस खेल के खिलाड़ियों को निराशा हुई बल्कि भारत को भी इन खेलों में मिलने वाले पदकों का नुकसान हुआ। इन खेलों को हटाए जाने के संबंध में आयोजन समिति ने ये तर्क दिया कि ये खेल नियमित खेल न होकर महज वैकल्पिक स्पर्धा थे।

राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन समिति के इस निर्णय से निशानेबाज मनु भाकर इस कदर आहत हुई थीं कि उन्होंने इन खेलों का बहिष्कार तक करने की अपील कर दी थी। ये भी खबर है कि 2026 के राष्ट्रमंडल खेलों से कुश्ती को भी बाहर किया जा सकता है। ऐसे में भारत को राष्ट्रमंडल आयोजन समिति के समक्ष इस मुद्दे को जोरशोर से उठाना चाहिये कि इन खेलों को भी इस टूर्नामेंट में हिस्सा दें और अगर जरूरत पड़े तो इस संबंध में अन्य देशों का भी समर्थन लेना चाहिये। भारत में एक मजबूत खेल संस्कृति और खेल पारिस्थितिकी का तभी विकास हो सकता है जब भारत सभी खेलों को बराबर महत्त्व दे और सभी खेलों के समान विकास पर काम करे।

संकर्षण शुक्ला

संकर्षण शुक्ला उत्तर प्रदेश के रायबरेली जिले से हैं। इन्होने स्नातक की पढ़ाई अपने गृह जनपद से ही की है। इसके बाद बीबीएयू लखनऊ से जनसंचार एवं पत्रकारिता में परास्नातक किया है। आजकल वे सिविल सर्विसेज की तैयारी करने के साथ ही विभिन्न वेबसाइटों के लिए ब्लॉग और पत्र-पत्रिकाओं में किताब की समीक्षा लिखते हैं।


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