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चंद्रकांत देवताले: जन्मदिवस विशेष

“एक गाँव ने मुझे जन्म दिया
एक धक्के ने शहर में फेंक दिया
शहर ने कविता में उछाल कर मुझे कहीं का नहीं रक्खा।”

हिंदी साहित्य के ठेठ कवि चंद्रकांत देवताले ने एक साक्षात्कार में आलोचक मनोज पांडेय द्वारा उनकी काव्य यात्रा के बारे में एक सवाल पूछे जाने पर यह जवाब दिया था। वह स्वयं को 'पूरावक्ती कवि' मानते थे। इसके मायने है कि वे समाज के उन अपवर्जित वर्गों के साथ पूरी निर्भीकता से खड़े होते थे जिनके साथ कोई भी खड़े होने को तैयार नहीं होता। साठोत्तरी कविता के हस्ताक्षर चंद्रकांत देवताले ने ऐसे समय में स्त्री की पीड़ा को स्वर दिया जब ऐसी आवाज को पितृ सत्ता दबा रही थी।

वर्ष 1936 में चंद्रकांत देवताले का जन्म मध्य प्रदेश के बैतूल ज़िले के जौलखेड़ा नामक स्थान पर हुआ। मध्य प्रदेश का यह हिस्सा महाराष्ट्र को स्पर्श करता है। इसलिये उन्हें मराठी व हिंदी दोनों ही भाषाएँ आती हैं और वह मराठी से आँगन भाषा के मानिंद व्यवहार करते थे। शुरूआती शिक्षा अपने गृह जनपद से पूरी करने के उपरांत उच्च शिक्षा के लिये वे इंदौर गए।

यहाँ से अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद हिंदी भाषा में शोध कार्य के लिये उन्होंने सागर विश्वविद्यालय, मध्य प्रदेश को चुना। चंद्रकांत देवताले ने 'मुक्तिबोध : कविता और जीवन विवेक' नामक विषय पर अपनी पीएचडी को पूरा किया। मुक्तिबोध उनके प्रिय कवि थे और उनके काव्य की अमिट छाप इनके जीवन पर भी दिखती है।

मनुष्य, धरती, पर्यावरण और समकालीन परिस्थितियाँ उनके काव्य के प्रमुख विषय रहे हैं। वे कहते हैं कि एक सामान्य मानव इन्हीं परिस्थितियों के आलोक में जीवित रहता है। इसलिये वो इन्हीं के इर्दगिर्द अपनी कविताएँ बुनते हैं। चूँकि चंद्रकांत देवताले का जन्म जब हुआ था तो विश्व दो घावों से जूझ रहा था- पहला वैश्विक आर्थिक मंदी, दूसरा द्वितीय विश्व युद्ध।

चंद्रकांत देवताले न सिर्फ इन परिस्थितियों को देख-सुन रहे थे बल्कि महसूस कर रहे थे। इसलिये बचपन से ही उनमें सामान्य मानव की पीड़ा के प्रति एक सहज संवेदना का विकास हो गया। इसी दौरान भारत की स्वतंत्रता के लिये भारत छोड़ो आंदोलन भी चल रहा था। इनके बड़े भाई और उनके दोस्त भी इस आंदोलन का हिस्सा थे। इस आंदोलन का उनके मन-मस्तिष्क पर गंभीर असर पड़ा।

चंद्रकांत देवताले के दूसरे भाई साहित्य के विद्यार्थी थे। इसलिये इन्हें बचपन से ही सियारामशरण गुप्त, नवीन जी की रचनाएँ पढ़ने को मिली। इन्होंने भारतेंदु हरिश्चंद्र को बहुत गहराई के साथ पढ़ा था और ये उनकी भांति ही देशीयता के प्रबल समर्थक थे। विभिन्न साक्षात्कारों में उन्होंने कहा भी है कि आधुनिकता व भूमण्डलीकरण ने हमको अपनी जातीयता, देशीयता, अस्मिता व पहचान से वंचित कर दिया है।

समाज के गरीब तबके के दर्द को वो अपनी कविताओं के माध्यम से इस तरह स्वर देते थे मानो ये उनका 'भोगा हुआ यथार्थ' है। अपने काव्य संग्रह 'लकड़बग्घा हँस रहा है', में उन्होंने समाज के हाशिये पर रहने वाले लोगों की पीड़ा को आवाज दी है-

"हवा में अजीब-सी गंध है
और डोमों की चिता
अभी भी दहक रही है,
वे कह रहे हैं
एक माह तक मुफ्त राशन
मृतकों के परिवार को
और लकड़बग्‍घा हँस रहा है।"

सामाजिक रूप से पिछड़े हुए वर्गों पर काव्य रचने के साथ-साथ चंद्रकांत देवताले स्त्रियों के दुःख-दर्द को भी काव्यात्मक अभिव्यक्ति देते हैं। अपनी पत्नी कमला देवताले के निधन के पश्चात उनकी स्मृतियों को समर्पित, 'औरत' शीर्षक नाम से एक कविता की रचना की-

"वह औरत आकाश और पृथ्वी के बीच
कब से कपड़े पछीट रही है
पछीट रही है शताब्दियों से
धूप के तार पर सुखा रही है
वह औरत
आकाश और धूप और हवा से वंचित घुप्प गुफा में
कितना आटा गूँथ रही है?"

हिंदी साहित्य संसार मे ऐसी रचनाएँ बहुत कम मिलती है जहाँ एक पुत्री के पिता द्वारा अपने अवसाद या दुःख-दर्द को व्यक्त किया गया हो। लेकिन चंद्रकांत देवताले ने लड़कियों को प्रतीक बनाते हुए स्त्री-पीड़ा पर एक सशक्त रचना रची है। 'दो लड़कियों का पिता होने से' नामक कविता में वे अपनी इसी पीड़ा को रेखांकित करते है-

"पपीते के पेड़ की तरह मेरी पत्नी
मैं पिता हूँ
दो चिड़ियाओं का जो चोंच में धान के कनके दबाए
पपीते की गोद में बैठी हैं
सिर्फ़ बेटियों का पिता होने भर से ही
कितनी हया भर जाती है शब्दों में
मेरे देश में होता तो है ऐसा
कि फिर धरती को बाँचती हैं
पिता की कवि-आंखें..."

स्वतंत्र भारत मे अतीत के घाव और भविष्य में इन घावों पर लगाए जाने वाले मरहमों को भी उन्होंने अपनी काव्य अभिव्यक्ति का विषय बनाया। इसी विषय पर उन्होंने ‘उजाड़ में संग्रहालय’ नामक कविता लिखी-

"पुराने उम्रदराज़ दरख़्तों से छिटकती छालें
क़ब्र पर उगी ताज़ा घास पर गिरती हैं
अतीत चौकड़ी भरते घायल हिरण की तरह
मुझमें से होते भविष्य में छलाँग लगाता है
मैं उजाड़ मैं एक संग्रहालय हूँ
हिरण की खाल और एक शाही वाद्य को
चमका रही है उतरती हुई धूप..."

आलोचक उन्हें अक्सर 'अकविता का कवि' कहते है। कवि व आलोचक मनोज पांडेय को दिये गए एक साक्षात्कार में अपने ऊपर लगे इन आरोपों का उन्होंने बेहद तार्किकता के साथ जवाब भी दिया है-

"यह भ्रम सजग रूप से फैलाया है, कई साथियों ने। शायद वो भ्रमित रहे होंगे। मैं कहता हूँ कि वर्ष 1952, 1954, 1957, 1958 से जिसकी कविताएँ धर्मयुग, ज्ञानोदय में छपने लगी हो, जो धरती की कोख से आया हो, जिसकी जड़ें आज भी आदिवासी सतपुड़ा के क्षेत्र में हो, वह अकविता से आया हुआ कैसे हो सकता है? किसी ‘अकविता’ पत्रिका में छपने से कोई अकवि नहीं हो जाता। अकवि हो कर भी जो अपने समय, अपने आस-पास का, अपने जीवन का कवि हो क्या उसे अछूत घोषित करेंगे?"

चंद्रकांत देवताले जी का रचना संसार बहुत बड़ा है। यदि उनकी प्रमुख कृतियों की बात की जाएँ तो वे इस प्रकार हैं- हड्डियों में छिपा ज्वर, दीवारों पर खून से, लकड़बग्घा हँस रहा है, रोशनी के मैदान की तरफ़, भूखंड तप रहा है, हर चीज़ आग में बताई गई थी, पत्थर की बेंच, इतनी पत्थर रोशनी, उजाड़ में संग्रहालय आदि।

चंद्रकांत देवताले अपनी रचनाओं में लगातार शोषण के प्रति मुखर रहे हैं। उन्होंने देश के एकपक्षीय विकास पर भी हमेशा सवाल उठाया, इसके साथ ही उन्होंने हमेशा सर्वसमावेशी विकास की वकालत भी की। इन्होंने हमेशा अपनी जड़ों से जुड़े विषयों को काव्यात्मक अभिव्यक्ति प्रदान की है। गाँव-कस्बों और निम्न मध्यवर्गीय व्यक्तियों के जीवन में आने वाली कठिनाइयों को इन्होंने अपनी रचनाओं में मुखरता के साथ उठाया है।

मानव जीवन की विविधताओं और विडंबनाओं को भी चंद्रकांत देवताले जी अपनी रचनाओं के माध्यम से स्वर प्रदान करते हैं। इनकी कविताओं में व्यवस्था की कुरूपता के खिलाफ रोष भी झलकता है। इनकी रचनाओं का लगभग सभी भारतीय भाषाओं में तो अनुवाद हुआ ही, इसके साथ ही विभिन्न विदेशी भाषाओं में भी इनकी कविताओं का अनुवाद हुआ है।

यह बेहद सीधे और मानक ढंग से अपनी बात कहते हैं। इसी कारण इनकी बात में प्रमाणिकता भी आती है। यह आम जन की संवेदना को स्वः वेदना के स्तर पर महसूस करते थे। इसीलिये इनकी कविताएँ सामान्य मानव के अधिक निकट जान पड़ती हैं। इनकी भाषा मे अत्यंत पारदर्शिता के साथ विरल संगीतात्मकता भी है। इसीलिये इनकी कविताओं में गेयता भी है। कविताओं की रागात्मकता इनके काव्य को विशिष्टता प्रदान करती है।

चंद्रकांत देवताले को भाषा के जोखिम वाला कवि भी कहा जाता है। वो अपनी ही भाषा के ढाँचे को तोड़ते हैं। इस संबंध में जब उनसे कभी पूछा जाता था तो वो कहते थे कि- काव्या भाषा, शिल्प, तकनीक; इन सबके प्रति मैं कभी सतर्क नहीं रहा।

उनका कहना था कि नाप तौल कर कविता लिखना उनके स्वभाव का हिस्सा नहीं है। इस संबंध में उन्होंने एक साक्षात्कार में यहाँ तक कह दिया-

"दर्जी की तरह नापजोख कर काव्य का डिज़ाइन करना कवि का काम नहीं है। जो ऐसा करते हैं उन्हें मैं चकित भाव से देख कर खुश होता हूँ। कितना हुनर है उनमें? उनके हुनर की दाद देता हूँ पर मुझे दाद नहीं चाहिये। दाद नाम से त्वचा की एक बीमारी भी होती है।"

चंद्रकांत देवताले ने कबीरदास को खूब पढ़ा था। इसीलिये उनकी कविताओं में सामाजिक विसंगतियों के विरुद्ध एक तीखा स्वर देखने को मिलता है। जनप्रतिनिधियों द्वारा निर्वाचित होने के उपरांत जनता के हितों की जगह स्वः हितों को तवज्जो दिये जाने संबंधी विषय को भी उन्होंने अपनी कविता 'सिंहासन पर बिठाया' के माध्यम से समझाया है-

"जिसे सड़क से उठा सिंहासन पर बिठाया तुमने
और बदले में जिसने
दुःस्वप्नों के जंगली कुत्तों को छोड़ा तुम्हारी नींद में
वही दयालु प्रभु
आ रहा फाँसीघर का शिलान्यास करने
जय दुन्दुभी बजाने में कोई कसर नहीं रहे
सताये हुए लोगो
तुम्हारी सहिष्णुता सदियों चर्चित रहेगी इतिहास में''

चंद्रकांत देवताले अपनी कविताओं में न सिर्फ समस्याओं पर सवाल उठाते हैं बल्कि इन समस्याओं के समाधान भी तलाशते हैं। वे व्यवस्था से पीड़ित आम जन को सतर्क भी करते है। इस विषय पर उनकी कविता “अगर तुम्हें नींद नहीं आ रही” बेहद प्रशंसनीय है-

"अगर तुम्हें नींद नहीं आ रही
तो मत करो कुछ ऐसा
कि जो किसी तरह सोए हैं उनकी नींद हराम हो जाए
हो सके तो बनो पहरुए
दुःस्वप्नों से बचाने के लिये उन्हें
गाओ कुछ शान्त मद्धिम
नींद और पके उनकी जिससे
सोए हुए बच्चे तो नन्हें फरिश्ते ही होते हैं
और सोई स्त्रियों के चेहरों पर
हम देख ही सकते हैं थके संगीत का विश्राम
और थोड़ा अधिक आदमी होकर देखेंगे तो
नहीं दिखेगा सोये दुश्मन के चेहरे पर भी
दुश्मनी का कोई निशान
अगर नींद नहीं आ रही हो तो
हँसो थोड़ा , झाँको शब्दों के भीतर
ख़ून की जाँच करो अपने
कहीं ठंडा तो नहीं हुआ।"

'पत्थर फेंक रहा हूँ' काव्य संग्रह के लिये चंद्रकांत देवताले को साहित्य अकादमी पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। सामाजिक विद्रूपताओं के विरुद्ध लगातार कूची चलाने वाले कवि-साहित्यकार चंद्रकांत देवताले का 81 वर्ष की आयु में 14 अगस्त 2017 को नई दिल्ली में निधन हो गया। अपने अंतिम समय तक इन्होंने हिंदी साहित्य को अपनी सेवाएँ प्रदान की। इनके साहित्यिक अवदान के संबंध में सुविख्यात साहित्यकार लीलाधर मंडलोई की यह टिप्पणी मानीखेज है- कदाचित स्त्री और बच्चों की इतनी मार्मिक छवियाँ किसी के पास नहीं हैं।

  संकर्षण शुक्ला  

संकर्षण शुक्ला उत्तर प्रदेश के रायबरेली जिले से हैं। इन्होने स्नातक की पढ़ाई अपने गृह जनपद से ही की है। इसके बाद बीबीएयू लखनऊ से जनसंचार एवं पत्रकारिता में परास्नातक किया है। आजकल वे सिविल सर्विसेज की तैयारी करने के साथ ही विभिन्न वेबसाइटों के लिए ब्लॉग और पत्र-पत्रिकाओं में किताब की समीक्षा लिखते हैं।

स्रोत-

(1) https://youtu.be/kVzR_8Y2zBk

(2) http://pahleebar.blogspot.com/2013/11/blog-post_25.html?m=1

(3) https://youtu.be/kVzR_8Y2zBk

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