जाति जनगणना : उचित या अनुचित?
- 30 Aug, 2021 | शान कश्यप | सन्नी कुमार | शशि भूषण
हाल के समय में यह विषय सर्वाधिक विवाद में रहा है। जाति और आरक्षण संबंधी पुरानी बहसों की तरह ही इसमें भी स्पष्ट खांचें बने हुए हैं। 'वाद-विवाद-संवाद' की इस सीरीज़ में हमारी कोशिश यही है कि आप इस विषय के सभी पक्षों से अवगत हों और फिर अपने विवेक से किसी निष्कर्ष तक पहुँचें। विषय प्रवेश की सुविधा के लिये यहॉं कुछ बुनियादी बातें रखी जा रही हैं। वस्तुतः, बोल- चाल में जिसे हम जाति जनगणना या ओबीसी गिनती कहते हैं उसे तकनीकी शब्दावली में 'सामाजिक एवं शैक्षणिक पिछड़ा वर्ग' (SEBC) गणना कहा जाता है क्योंकि ओबीसी का आधिकारिक संवर्ग यही है। यहॉं यह भी ध्यान रखना है कि इसके अंतर्गत सभी जातियों की गणना की बात नहीं है बल्कि केवल ओबीसी के अंतर्गत आने वाली जातियों को ही गिना जाएगा। ध्यातव्य है कि आज़ादी के समय से ही दशकीय जनगणना (Decennial Census) में अनुसूचित जाति (SC) एवं अनुसूचित जनजाति (ST) के अंतर्गत आने वाली जातियों को गिना जाता रहा है तथा शेष को सामान्य श्रेणी में मान कर उनकी जाति दर्ज नहीं की जाती है। अब यह मांग हो रही है कि दशकीय जनगणना, जो कि 2021 में होनी है, में ओबीसी जातियों की गणना भी की जाए। अगर 2021 की जनगणना में ऐसा होता है तो यह पहली बार होगा कि एससी, एसटी के साथ-साथ ओबीसी के अंतर्गत आने वाली जातियों की भी गणना की जाएगी तथा शेष को सामान्य मानकर उनकी जाति दर्ज नहीं की जाएगी। इसके पूर्व 2011 में मुख्य जनगणना से अलग 'सामाजिक आर्थिक जाति जनगणना' (SECC) के अंतर्गत जातिगत जनगणना की गई थी, किंतु इसके ऑंकड़े अभी तक जारी नहीं किये गए हैं। इस भूमिका के बाद प्रस्तुत है इस विषय पर तीन पक्ष 'वाद-विवाद-संवाद'।
-संपादक
वाद : वक्त की मांग है जाति जनगणना
हाल के दिनों में कई राजनीतिक दलों और सामाजिक चिंतकों ने भारत में जाति जनगणना कराने की मांग की है। अब प्रश्न उठता है कि ओ.बी.सी. समाज द्वारा यह मांग क्यों की जा रही है? इसके ज़ोर पकड़ने का सबसे प्रभावी कारक आरक्षण है। बीते समय के दो परिवर्तनों ने इसकी गति और तेज़ कर दी है, पहला EWS आरक्षण और दूसरा राज्यों को ओ.बी.सी. वर्ग की पहचान करने का अधिकार दिया जाना। इन दोनों संशोधनों से दो संभावनाएँ पैदा हुई। पहली यह कि आरक्षण की 50 प्रतिशत सीमा अमान्य हो सकती है और दूसरी यह कि राज्य अपने स्तर पर ओ.बी.सी. वर्ग की पहचान सुनिश्चित कर उसी अनुपात में उन्हें आरक्षण का लाभ दे सकें। इन्हीं दोनों संभावनाओं ने ओ.बी.सी. जाति जनगणना की मांग में तेज़ी ला दी है। इस मांग को और गति मद्रास उच्च न्यायालय के एक फैसले ने दे दी जिसमें जाति जनगणना को आवश्यक बताया गया है। अब यह विचारणीय है कि ओ.बी.सी. वर्ग द्वारा की जा रही जाति जनगणना की मांग उचित है या नहीं?
मेरा मानना है कि तीन कारणों से यह सर्वथा उचित मांग है। पहला कारण यह कि यदि कोई सामाजिक वर्ग वंचना का शिकार है तो उसे मुख्यधारा में ले आने के लिये सबसे प्राथमिक कार्य है उसकी वास्तविक स्थिति का अध्ययन किया जाए; यह अध्ययन उनकी वास्तविक संख्या, सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक स्थिति से संबंधित होना चाहिये। यदि वास्तविक स्थिति का पता ही नहीं होगा तो उनके उत्थान हेतु नीति-निर्माण कैसे संभव हो पाएगा। यह किसी से छिपा नहीं है कि ओ.बी.सी. वर्ग सामाजिक अन्याय का लंबे समय से शिकार रहा है। साथ ही, हमें यह भी ज्ञात है कि यदि किसी वर्ग की सामाजिक वंचना को समाप्त करने संबंधी उपायों को अपनाने में बहुत देरी की जाए तो उस वर्ग में असंतोष मुखर होने लगता है जो कि कभी-कभी हिंसा का मार्ग अपनाने तक चला जाता है। प्रगति की राह पर आगे बढ़ रहे देश में ऐसा न होने पाए, उसके लिये समय-पूर्व सतर्कता आवश्यक है।
ओ.बी.सी. वर्ग की जाति जनगणना की मांग के पक्ष में दूसरा कारण सामाजिक न्याय व समावेशी विकास से संबंधित है। कोई भी देश सही अर्थों में तभी विकसित व सफल राष्ट्र की श्रेणी में आता है जब वह समाज के सभी वर्गों का कल्याण सुनिश्चित करता है। ओ.बी.सी. वर्ग यदि वंचना का शिकार है और यह कहता है कि उसे उसकी आबादी के अनुपात में संसाधन उपलब्ध नहीं कराए जा रहे हैं तो यह माना जाना चाहिये कि देश के संसाधनों के वितरण में व्यापक असमानता व्याप्त है। संसाधनों के न्यायपूर्ण वितरण से इस तरह की असमानता को समाप्त कर सामाजिक न्याय व समावेशी विकास संबंधी पहल किया जाना देश के उत्तरोत्तर विकास हेतु अति आवश्यक है, जिसकी शुरुआत वंचितों की गणना करने से होनी चाहिये।
ओ.बी.सी. जनगणना की आवश्यकता का तीसरा कारण इस वर्ग की विभिन्न जातियों के मध्य व्याप्त विसंगतियों का समाधान करने से संबंधित है। दरअसल इंद्रा साहनी मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने यह निर्देश दिया था कि ओ.बी.सी. वर्ग की सामाजिक, शैक्षिक व आर्थिक स्थिति का समय-समय पर अध्ययन कराया जाना चाहिये ताकि इस वर्ग की ऐसी जातियों को जो सामाजिक, शैक्षिक व आर्थिक आधार पर वंचना से मुक्त हो गई हों, उन्हें ओ.बी.सी. वर्ग से निकालकर सामान्य वर्ग में शामिल किया जा सके। इससे इस वर्ग में शामिल वंचित जातियों के उत्थान के अवसर भी बढ़ेंगे और ओ.बी.सी वर्ग की विभिन्न जातियों के मध्य व्याप्त विसंगतियों को भी दूर किया जा सकेगा।
इसके अतिरिक्त यह भी कि केवल इस संभावित भय के कारण इसे रोकना उचित नहीं है कि जाति जनगणना देश में जाति आधारित राजनीति को बढ़ावा देगी। भारत की राजनीति में जाति का प्रभाव हमेशा से रहा है और अभी आगे भी बने रहने की संभावना है। हमें यह समझना चाहिये कि यह समस्या लोकतंत्र की व्यवस्था में व्याप्त कमियों को दर्शाती है जिसका समाधान तलाशा जाना वैचारिकी के स्तर पर अभी बाकी है। ऐसे में लोकतंत्र की विसंगतियों का बहाना बनाकर किसी वर्ग की वंचना की स्थिति को बरकरार रखना कहीं से भी उचित नहीं है। साथ ही जाति जनगणना के बाद आरक्षण की 50 प्रतिशत की अधिकतम सीमा का कोटा बढ़ाए जाने की मांग को समझना भी आवश्यक है। हमें सबसे पहले तो यह समझना होगा कि 50 प्रतिशत की यह सीमा कोई अंतिम व आदर्श लकीर नहीं है। इस तथ्य पर ध्यान दिया जाना आवश्यक है कि राज्यों की आबादी में जातीय भिन्नताएँ व्याप्त हैं। अनुसूचित जाति व जनजाति के संदर्भ में जनगणना होने के कारण यह आसानी से तय कर दिया जाता है कि उक्त राज्य में उनके लिये कितना प्रतिशत आरक्षण होगा, किंतु ओ.बी.सी. की गणना न होने से वे इस लाभ से वंचित रह जाते हैं। इस संबंध में मध्य प्रदेश का उदाहरण लेना ठीक रहेगा। यहाँ आदिवासियों की जनसंख्या अधिक होने के कारण उन्हें 20 प्रतिशत आरक्षण मिलता है, अनुसूचित जाति को 16 प्रतिशत और 50 प्रतिशत के अधिकतम कोटा के कारण ओ.बी.सी. को केवल 14 प्रतिशत आरक्षण मिलता है जबकि उनकी राज्य की आबादी में संख्या इससे कहीं अधिक है। अतः समय आ गया है कि केंद्र के स्तर पर भले ही अधिकतम कोटे की सीमा का ध्यान रखा जाए किंतु राज्यों के स्तर पर इस सीमा में आवश्यकतानुसार बदलाव ज़रूरी है। इस बदलाव के लिये यह आवश्यक है कि अब जाति जनगणना में और देरी न की जाए।
शशि भूषण (विवेक राही) [लेखक दृष्टि करेंट अफेयर्स टुडे में वरिष्ठ संपादक हैं] |
विवाद : जाति जनगणना से बढ़ेगा द्वेष
जाति जनगणना के समकालीन पक्षकारों के तर्कों की विवेचना करते हैं। साथ ही इन तर्कों के आलोक में ऐसी जनगणना को अनुचित करार देने का पक्ष भी स्पष्ट होता रहेगा। पहले तर्क के रूप में यह कहा जा रहा है कि जाति की सांख्यिकी व आंकड़ें पिछड़ी जातियों की पहचान और उसके परिणामस्वरूप सामाजिक न्याय और सकारात्मक कार्यवाही को बल देंगे। ऐसा कहना जनगणना की चुनौतियों और जाति के स्वरूप को नहीं समझना है। भारत में जाति और जातीयता कोई जड़ और सुगठित सामाजिक प्रवर्ग नहीं है, जैसा कि कई समाजशास्त्री मानते हैं जाति की कोई नियमनिष्ठ परिभाषा नहीं है और न ही यह लिंग, आयु, और शिक्षा की तरह किसी वस्तुनिष्ठ मेयता में बांधी जा सकती है। तो फिर व्यक्ति को जातीयता में गिना जाना चाहिये या आर्थिक और शैक्षणिक आधारों पर जिन्हें सांख्यिकी में बेहतर अनूदित किया जा सकता है?
इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि भारतीय समाज में अधिकाशंतः आर्थिक, शैक्षणिक और सामाजिक पिछड़ापन जाति से जुड़ा हुआ है, लेकिन क्या यह केवल जाति से "ही" जुड़ा हुआ है? अगर जाति जनगणना के समर्थकों की बात मानकर ऐसा किया जाए ताकि हर जाति की असल संख्या और जनसंख्या दर्ज हो तो इससे क्या लाभ होगा? क्या वाकई जातीय संख्या उल्लेखित होने से समावेशी विकास और नीति निर्माण को बल मिलेगा? ऐसा प्रतीत होता है कि इस जनगणना के समर्थक यह कह रहे हैं कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) जैसे राजकीय कल्याणकारी प्रयासों को जातीय आधार पर बांट दिया जाए। या शैक्षणिक आरक्षण के वर्गीकृत ब्लॉक को हजारों हिस्सों में जातीयता के आधार पर विखंडित किया जाए। असल संख्या का अध्ययन करके क्या छात्रवृत्ति को भी कई हिस्सों में विभक्त करने की बात की जा रही है। यह कहा जा रहा है कि हर जाति की संख्या जानकर हम समानता की राह पर आगे बढ़ेंगे, लेकिन क्या इससे अन्तरजातीय प्रतिस्पर्धा और अंतहीन सामाजिक संघर्ष नहीं बढ़ेगा? उदाहरण के लिये बिहार में यादवों और कोइरियों के मध्य अंतरजातीय प्रतिस्पर्धा किस तरह का रूप ले सकती है.
नेहरूवादी भारत में भूमि सुधार और उन्नत हरित क्रांति के बाद ओबीसी में कई जातियां राजनीतिक तौर पर सशक्त हुई हैं। वो आज सत्ता के केंद्र में हैं और उन कई समुदायों में स्पष्ट आर्थिक समृद्धि है। अब बात यहाँ रुक जाती है कि अगर उत्तर प्रदेश से समाजवादी पार्टी या बिहार से जनता दल (यूनाइटेड) के राजनेता जो जाति जनगणना के पक्षधर हैं वे बहुत हद तक समृद्ध हो चुके यादव और कोइरी जाति के लोगों को स्वेच्छापूर्वक आरक्षण लाभ का त्याग कर अन्य पिछड़े नागरिकों के लिये जगह बनाने को प्रेरित करेंगे? ऐसा लगता तो नहीं। फिर जाति सांख्यिकी किस तरह से नीति निर्माण का नवीनीकरण करेगी?
ध्यान रखना होगा कि आज राज्य विकास के कई प्रकल्पों से स्वयं को अलग कर रहा है। उदारीकरण के बाद राज्य अब सबसे बड़ा नियोक्ता भी नहीं रहा। शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य, आवास और आहार जैसे मूलभूत प्रकल्प निरंतर नव-उदारवाद की मार झेल रहे हैं। क्या इसमें वर्ग द्वारा संचालित व्यवस्था को सुदृढ़ और नियमित करने की जगह उसमें जातीयता का संघर्ष बढ़ाना उचित है? लग तो यह रहा है कि हम नई चुनौतियों के नए समाधान खोजने की बजाए पुराने समाधान में ही उलझे रहना चाहते हैं। इस तरह से तो कोई हल नहीं निकल सकेगा। और क्या समावेशी विकास को केवल जाति के आधार पर पुनः परिभाषित करने से गरीबी रेखा की पारिभाषिकी का उथल पुथल से भरा इतिहास जातीय विभेदीकरण के हाथों नष्ट नहीं हो जायेगा? यह कई महत्वपूर्ण प्रश्न नहीं उठाए जा रहे हैं।
यह कहने का कोई ठोस आधार नहीं है कि सामाजिक न्याय और समावेशी विकास की रफ़्तार वर्ग के नाते थमी हुई है, और वह जाति के खांचें से विश्लेषित होते ही उड़ान भरने लगेगी। इस तर्क में भी कोई दम नहीं कि जाति जनगणना से राजनीति के पाले में समाज को बाँटने का राज करने का एक हथियार मिल जायेगा। समाज पहले ही जातीयता में बंटा हुआ है। जाति जनगणना के समर्थकों को यह स्पष्ट नहीं कि क्या भारत में अब तक जाति सत्ता, सुविधा और संसाधनों के साम्यिक वितरण के लिये एक सक्षम इकाई बन पाई है? नहीं। किसी मंत्रिमंडल में जातीय संख्या में मंत्रियों का प्रतिनिधित्व क्या नागरिकों का प्रतिनिधित्व है? नहीं। फिर जाति जनगणना के बाद भी इस प्रभाव में क्या अंतर आ जाएगा? जाति जनगणना के समर्थकों का यह तर्क कि इससे विभिन्न जातियों के मध्य व्याप्त विसंगतियों को समाप्त करने में सहायता मिलेगी इस मुद्दे की ऐतिहासिकता को देखते हुए पाखंडपूर्ण लगता है। मान लीजिये अगर विभिन्न जातियों के नागरिकों को गिनने से यह किसी राज्य में पता चलता है कि वहां एक जाति की संख्या दूसरे से अधिक है तो इससे आरक्षण या राज्य की लोककल्याणकारी नीतियों को कैसे बदला जाएगा? असल में ओबीसी को जातीय विमर्श के केंद्र में लाकर समाज में अपनी ऐतिहासिक उपेक्षा की मार झेल रहे समुदायों को कमजोर किया जाएगा.
इस ओर अंबेडकरवादी चिंतक आनंद तेलतुंबडे का कहना है, 'एससी और एसटी के लिए "कोटा" के असाधारण उपाय को लागू करने के पीछे का तर्क उनके विरुद्ध अस्पृश्यता (एससी के खिलाफ) और शारीरिक अलगाव (एसटी के खिलाफ) के अभ्यास के माध्यम से व्याप्त गहरा सामाजिक पूर्वाग्रह था। इस ऐतिहासिक सामाजिक पूर्वाग्रह को शूद्र जातियों के लिये भी तभी सही ठहराया जा सकता है जब जानबूझकर उन संरचनात्मक ताकतों की उपेक्षा कर दे जो उनका शोषण करती हैं। बीसी/ओबीसी का पिछड़ापन देश के बड़े "सेक्युलर बैकवर्डनेस" का एक हिस्सा है, जो गरीबी, स्वास्थ्य और इस तरह के अन्य शर्मनाक सूचकांकों और आंकड़ों के ढेरों द्वारा दर्शाया गया है'. ('काउंटिंग कास्ट: एडवांटेज रूलिंग क्लास', ईपीडब्लू, जुलाई 10-16, 2010)
शान कश्यप (लेखक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में आधुनिक इतिहास के शोधार्थी हैं.) |
संवाद: जाति जनगणना से आगे की राह
इस तथ्य को स्वीकार करने में बहुत असहजता नहीं होनी चाहिये कि राज्य के पास सामाजिक श्रेणी से संबद्ध वो ऑंकड़े होने चाहियें जिनके आधार पर सामाजिक उत्थान के कार्यक्रम यथा- आरक्षण, चलाए जाते हैं। एक बेहतर सांख्यिकी ही बेहतर नीति निर्माण का आधार होता है। दुनियाभर में देश इस तरह के अभ्यास को अपनाते हैं। उदाहरण के लिये अमेरिका नस्ल आधारित सामाजिक ऑंकड़े संग्रह करता है तथा ब्रिटेन अप्रवासियों की जानकारी जुटाता है ताकि बेहतर सामाजिक नीति कायम की जा सके। भारत में भी ओबीसी जातियों की गिनती की मांग इसी दायरे में है। इस लिहाज से ओबीसी जातियों की गणना की मांग ठीक ही है। इस प्रयास के विरोध के तर्कों से भी अब आप अवगत ही हैं। तर्कों के द्वैत से आगे एक राह तीसरी भी है, और वह यह कि इस प्रयास से आधुनिक राष्ट्र-राज्य का लोकतंत्रवादी ढॉंचा किस प्रकार प्रभावित होगा? और यह भी कि अंततः ये ऑंकड़े किस भॉंति 'उपयोग' में लाए जाएंगे?
वस्तुतः, आज सर्वाधिक प्रगतिशील शासन व्यवस्था के रूप में स्वीकृत उदारवादी लोकतंत्र की बुनियाद इसी बात पर टिकी है वो शासन का आधार 'नागरिक' को बनाता है। एक निश्चित परिधि के अंदर निवास कर रहे लोगों को नागरिक के रूप में चिन्हित करने का अर्थ यही है कि राज्य धर्म, जाति, संप्रदाय, लिंग, क्षेत्र आदि के आधार पर भेदभाव नहीं करेगा तथा शासन का आधार 'केवल नागरिक' को बनाएगा। यद्यपि समानता के आग्रह के कारण इसमें आंतरिक भेदभाव स्वीकार किया जाता है किंतु जैसा कि आशीष नंदी कहते हैं "आधुनिक राष्ट्र-राज्य आमतौर पर राजनीति में संस्कृति की मौजूदगी से चिंतित रहता है। वह एक ऐसा सार्वजनिक जीवन गढ़ना चाहता है जिस पर केवल शासनकला के मूल्य हावी रहें।" तो क्या जाति जनगणना इस कसौटी पर खरी उतरती है? इसका जबाव है, 'नहीं' या थोड़ी नरमी बरतें तो 'शायद नहीं'! इसकी वजह बहुत स्पष्ट है। आधुनिक लोकतंत्र जहॉं अपने नागरिकों से यह अपेक्षा रखता है कि वो सार्वजनिक भागीदारी में क्रमशः अपनी व्यक्तिगत पहचान (जाति, धर्म, क्षेत्र आदि) से दूर होते जाएँ और 'सार्वभौमिक नागरिक बोध' से जुड़ जाएँ, वहीं जातिगत जनगणना नागरिकों को अपनी जाति के आधार पर समूहीकरण के लिये उकसाती है। यह न केवल राजनीतिक भागीदारी के प्रश्न को नागरिक बोध से खींच कर अस्मिता बोध की ओर ले आती है बल्कि इसी आधार पर जनकल्याण को परिभाषित करने की आकांक्षा भी रखती है। यह एक दिलचस्प विरोधाभास है। आधुनिक लोकतंत्रात्मक ढॉंचे के अंतर्गत ही आधुनिकता के विरोध का विरोधाभास।
एक अन्य पक्ष यह भी है कि आखिर इन ऑंकडों का उपयोग किस प्रकार किया जाएगा? अगर यह मान भी लिया जाए कि इससे आरक्षण व अन्य सामाजिक नीति का क्रियान्वयन बेहतर हो सकेगा तो भी क्या इस संभावना को खारिज किया जा सकता है कि इसके बाद जाति आधारित नए राजनीतिक प्रयोग मूलभूत विषयों को प्रतिस्थापित नहीं कर देंगे? क्या शिक्षा, स्वास्थ्य और सुरक्षा जैसे विषय जाति आधारित नई राजनीतिक गठजोड़ की उर्वरता का मुकाबला कर पाएंगे? इसके अतिरिक्त यह भी कि अगर नए ऑंकड़े यह दर्शाते हैं कि ओबीसी के अंतर्गत आने वाली किसी बड़ी और शक्तिशाली जाति की स्थिति 'सामान्य' जैसी ही है तो क्या व्यावहारिक रूप से यह संभव हो सकेगा कि उसे आरक्षण व ऐसी अन्य सुविधाओं से अलगाया जा सके? या फिर तात्कालिक रूप से ओबीसी के भीतर ही विभिन्न जातियों के अंदर पनपने वाली आशंका और महत्वाकांक्षा का प्रत्युत्तर किस प्रकार दिया जाएगा? जाति जनगणना के क्रियान्वयन से पहले इसके हासिल के बारे में भी विचार कर लेना चाहिये। ऐसा न हो कि एक सामाजिक समस्या के बेहतर प्रबंधन का असंतुलित तरीका दूसरे गंभीर समस्याओं का कारण बन जाए।
सन्नी कुमार (लेखक इतिहास के अध्येता हैं तथा दृष्टि आईएएस में 'क्रिएटिव हेड' के रूप में कार्यरत हैं।) |