BRICS देशों का डॉलर पर निर्भरता कम करने का प्रयास: क्या यह संभव है?
- 09 Apr, 2025

ब्रिक्स नौ देशों - ब्राज़ील, रूस, भारत, चीन, दक्षिण अफ्रीका, ईरान, मिस्र, इथियोपिया और संयुक्त अरब अमीरात से मिलकर बना एक अंतर-सरकारी संगठन है। ब्रिक्स की पहचान मूल रूप से निवेश के अवसरों को पता लगाने के लिये की गई थी। यह समूह एक भू-राजनीतिक ब्लॉक में विकसित हुआ था और अब इसमें शामिल देश औपचारिक शिखर सम्मेलनों में सालाना बैठक तथा बहुपक्षीय नीतियों का समन्वय करते हैं। ब्रिक्स की संस्थाओं को वैश्विक रूप से शक्तिशाली G7 संगठन के राष्ट्रों द्वारा संचालित संस्थाओं के विकल्प के रुप में देखा जाता है। इस ब्रिक्स ब्लॉक ने अपने सदस्यों की आर्थिक और कूटनीतिक नीतियों को समन्वित करने, नए वित्तीय संस्थान स्थापित करने एवं अमेरिकी डॉलर पर निर्भरता कम करने की कोशिश की है। यह गठबंधन ऐसी अर्थव्यवस्थाओं का समूह है जो साझा लक्ष्य को लेकर अपने आर्थिक और कूटनीतिक प्रयासों का समन्वय करता है। ब्रिक्स देशों का यह साझा दृष्टिकोण है कि विश्व बैंक, G7 और संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद जैसे प्रमुख बहुपक्षीय मंचों पर पश्चिमी देशों का वर्चस्व स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है, जिसे संतुलित करने हेतु एक वैकल्पिक संरचना की आवश्यकता महसूस की जाती है।
ब्रिक्स देशों के बीच संबंध मुख्य रूप से गैर-हस्तक्षेप, समानता और पारस्परिक लाभ के आधार पर संचालित होते हैं। साल 2009 में ब्राज़ील, रूस, भारत और चीन ने ब्रिक्स संगठन की नींव रखी तथा रूस में इसका पहला सम्मेलन हुआ। दक्षिण अफ्रीका ने वर्ष 2011 में सदस्य के रूप में अपने पहले शिखर सम्मेलन में भाग लिया। ईरान, मिस्र, इथियोपिया और संयुक्त अरब अमीरात ने रूस में आयोजित वर्ष 2024 के शिखर सम्मेलन में सदस्य देशों के रूप में भाग लिया। अर्जेंटीना और सऊदी अरब भी ब्रिक्स से जुड़ने वाले संभावित देशों की सूची में शामिल थे, किंतु बाद में अर्जेंटीना ने अपनी सहभागिता से पीछे हटने का निर्णय लिया, जबकि सऊदी अरब की स्थिति अभी तक स्पष्ट नहीं हो सकी है। इनके अलावा 13 अन्य देशों को सदस्यता आमंत्रण भी भेजा गया है। इसका नया संक्षिप्त नाम ‘’ब्रिक्स प्लस’’, अनौपचारिक रूप से नई सदस्यता को दर्शाने के लिये उपयोग किया जाने लगा है। ब्रिक्स नए दृष्टिकोणों वाला एक संयुक्त मोर्चा स्थापित करना चाहता है जिसका उद्देश्य मौजूदा संस्थाओं में सुधार के लिये दबाव डालना है, जैसे कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का विस्तार करना और उन संस्थाओं के भीतर बातचीत करने वाले ब्लॉक बनाना। इसमें शामिल देश आर्थिक नीतियों का भी समन्वय भी कर रहे हैं। साल 2008 की वैश्विक मंदी ने ब्रिक्स देशों को बुरी तरह प्रभावित किया, जिसके कारण समूह ने टैरिफ नीति, अहम संसाधनों के निर्यात प्रतिबंध और निवेश जैसे मुद्दों पर आर्थिक समन्वय पर ज़ोर दिया। ब्लॉक का वार्षिक प्रत्यक्ष विदेशी निवेश प्रवाह वर्ष 2001 से 2021 तक चार गुना से अधिक हो गया है, हालाँकि हाल के वर्षों में इसमें कमी आई है।
वास्तव में ब्रिक्स एक वैकल्पिक वैश्विक वित्तीय प्रणाली निर्माण पर ज़ोर देता है। ब्रिक्स ने न्यू डेवलपमेंट बैंक, ब्रिक्स आकस्मिक रिज़र्व व्यवस्था, ब्रिक्स पे, ब्रिक्स संयुक्त सांख्यिकी प्रकाशन और ब्रिक्स बास्केट रिज़र्व मुद्रा जैसी प्रतिस्पर्द्धी पहलों को लागू किया है। न्यू डेवलपमेंट बैंक और रिज़र्व व्यवस्था का उद्देश्य क्रमशः विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के प्रभाव को कम करना है। उनका मानना कि वैकल्पिक ऋण देने वाली ब्रिक्स की संस्थाएँ दक्षिण-दक्षिण सहयोग को बढ़ावा दे सकती हैं और पारंपरिक वित्तपोषण स्रोतों पर निर्भरता कम कर सकती हैं। चूँकि कई देशों का मानना है कि विश्व बैंक और आईएमएफ, गरीब देशों की ज़रूरतों को पूरा करने में विफल रहे हैं। खासकर जलवायु वित्तपोषण जैसे क्षेत्रों में उनकी उपस्थिति बेहद अशक्त रही है। इसलिये ब्रिक्स देशों के केंद्रीय बैंकों के बीच एक बना साझा कोष या आकस्मिक रिज़र्व मुद्रा संकट के दौरान उनकी सहायता कर सकता है। अभी कुछ योजनाएँ ब्रिक्स देशों तक ही सीमित है, पर वर्ष 2021 में न्यू डेवलपमेंट बैंक अन्य उभरते बाज़ार वाले देशों में निजी परियोजनाओं के वित्तपोषण के लिये खुल गया है। यह बैंक ऐसी निजी परियोजनाओं को समर्थन देने के लिये ऋण, गारंटी और अन्य वित्तीय तंत्र प्रदान करता है जो सतत् विकास तथा बुनियादी ढाँचे के निर्माण में योगदान करती हैं। इसका उद्देश्य विश्व बैंक की तुलना में अधिक अनुकूलन, शेयरधारकों के बीच अधिक समानता और उन तक धन की आसान पहुँच प्रदान करना है। हालाँकि, इन प्रयासों में बाधाएँ कम नहीं हैं। एनडीबी, विश्व बैंक से पाँच गुना से भी अधिक छोटा है और विशेषज्ञों को संदेह है कि यह पूरी तरह से इसकी जगह ले सकता है। अन्य लोगों का तर्क है कि वैश्विक वित्तीय प्रणाली को फिर से संरेखित करने की इसकी महत्त्वाकांक्षाएँ पूरी नहीं हो सकती हैं क्योंकि यह अपने प्रतिद्वंद्वियों के पुराने तौर तरीकों को बनाए हुए है। पर्यावरण और सामाजिक प्रभाव मानकों पर अस्पष्ट प्रतिबद्धताओं के लिये भी इसे आलोचना का सामना करना पड़ा है।
इस संगठन का एक महत्त्वाकांक्षी लक्ष्य अमेरिकी डॉलर पर निर्भरता को कम करना है। इन देशों की वैश्विक लेन-देन में डॉलर के प्रभुत्व से नाराज़गी है। इसका कारण यह है कि यह व्यवस्था उनको पश्चिमी प्रतिबंधों के अधीन कर देती है। ब्रिक्स नेताओं ने लंबे समय से व्यापार में स्थानीय मुद्राओं के उपयोग को बढ़ावा देने और संभावित रूप से एक साझा ब्रिक्स मुद्रा की स्थापना के माध्यम से वि-डॉलरीकरण की दिशा में कदम बढ़ाने का समर्थन किया है। ब्रिक्स देश एक दशक से भी अधिक समय से अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में अमेरिकी डॉलर की प्रधानता को कम करने की कोशिश कर रहे हैं। साथ ही एक नई, ब्रिक्स-व्यापी मुद्रा शुरू करने का भी प्रयास भी किया जा रहा है। साल 2023 शिखर सम्मेलन में रखे गए अन्य मौद्रिक प्रस्तावों में एक नई क्रिप्टोकरेंसी की स्थापना या ब्रिक्स मुद्राओं की संयुक्त बास्केट या टोकरी का उपयोग करना शामिल था। अमेरिकी डॉलर के विकल्प के रूप में दूसरी मुद्राओं को लाने के लक्ष्य के अलावा, ब्रिक्स देशों के विडॉलरीकरण के मंतव्य में डिजिटल मुद्राओं का उपयोग करना भी शामिल है। ब्राज़ील ने प्रस्ताव रखा था कि ब्रिक्स के सदस्य देशों को एक-दूसरे के बीच व्यापार और निवेश के लिये एक साझा मुद्रा बनानी चाहिये। ब्राज़ील के सुझाव को सदस्य देशों में व्यापक रूप से स्वीकार नहीं किया गया। इसकी वजह यह है कि भारत और यूएई के अमेरिका से घनिष्ठ संबंध हैं और वे फिलहाल ऐसा कोई कदम उठाने के पक्ष में नहीं है।
डॉलर के स्थान पर किसी नई मुद्रा को अपनाने से सर्वाधिक लाभ ब्रिक्स देशों को हो सकता है। हाल के वर्षों में इन देशों ने अमेरिकी डॉलर पर निर्भरता घटाने की दिशा में कुछ महत्त्वाकांक्षी, किंतु सीमित प्रयास किये हैं। चीन और भारत अपनी मुद्राओं के लिये अंतर्राष्ट्रीय मांग बनाने की कोशिश कर रहे हैं। उन्होंने तेल बाज़ार पर ध्यान केंद्रित किया है। इन देशों ने बड़े तेल उत्पादकों के साथ गैर-डॉलर भुगतान आधारित तेल बिक्री पर बातचीत करने का प्रयास किया है ताकि उनकी तेल आपूर्ति की गारंटी हो और उनकी अपनी मुद्राओं की मांग बढ़े। चीन ने सऊदी अरब पर ध्यान केंद्रित किया है और भारत ने रुपए में तेल की कीमत तय करने के लिये यूएई के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर किये हैं।
साझा ब्रिक्स मुद्रा की स्थापना सिद्धांत रूप में, ब्रिक्स देशों के बीच एक मुद्रा प्रणाली, डॉलर के लिये एक आकर्षक विकल्प प्रदान करती। हालाँकि इस मुद्रा प्रणाली की स्थापना से कई जटिल चुनौतियाँ सामने आएंगी और यह अंततः ब्रिक्स देशों पर निर्भर करेगा कि वे आर्थिक नीति के लिये एक ऐसा साझा दृष्टिकोण विकसित कर पा रहे हैं, जिसमें ऋण तथा सार्वजनिक व्यय सीमा पर समझौते शामिल हैं। उन्हें अंतर्राष्ट्रीय निवेशकों और व्यापार भागीदारों के बीच विश्वास बनाने के लिये आर्थिक डेटा तथा मौद्रिक नीति के बारे में पर्याप्त पारदर्शिता स्थापित करने की आवश्यकता होगी। उनको ऐसे कारकों पर ध्यान देना होगा जो डॉलरीकरण या डॉलर आधारित कारोबार के उदय में आवश्यक थे। अमेरिकी डॉलर अभी भी दुनिया के केंद्रीय बैंकों के भंडार का 59 प्रतिशत है। भले ही ब्रिक्स देश अमेरिकी डॉलर से दूर जाने का लक्ष्य रखते हों, लेकिन इसमें कई साल लगेंगे और यह कदम आंशिक ही होगा। अमेरिकी सरकार बिना विरोध के इस तरह के विडॉलरीकरण की अनुमति नहीं देगी। अमेरिकी सरकार को नाराज़ करने का परिणाम यह हो सकता है कि देश की डॉलर होल्डिंग्स पर रोक के रूप में जवाबी कार्रवाई की जाए। यह ध्यान रखना होगा कि येन, यूरो और पाउंड भी वैश्विक वाणिज्य के अभिन्न अंग हैं पर अमेरिका ने उनके उपयोग पर कोई आपत्ति नहीं जताई है।
अमेरिका के नव-निर्वाचित राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने पहले ही ब्रिक्स देशों को चेतावनी दी है कि यदि वे "शक्तिशाली अमेरिकी डॉलर" को बदलने का प्रयास करते हैं, तो उन्हें "100 प्रतिशत प्रशुल्क का सामना करना पड़ेगा और उन्हें अमेरिकी अर्थव्यवस्था में बिक्री को अलविदा कहने की उम्मीद करनी चाहिये"। अमेरिकी डॉलर करीब एक सदी से दुनिया की "रिज़र्व करेंसी" रहा है। लेकिन अब ब्रिक्स के प्रभुत्व को चुनौती देने वाली चुनौती समूह की कथित "सामूहिक आर्थिक शक्ति" से उपजी है, खासकर तब जब यह दुनिया के सकल घरेलू उत्पाद का 24 प्रतिशत और वैश्विक व्यापार का 16 प्रतिशत हिस्सा है। कोई भी ब्रिक्स मुद्रा व्यापार को सुविधाजनक बनाने के लिये मौजूदा विकल्पों का विस्तार है। अपनी ओर से, चीन ने रूस के साथ मिलकर अमेरिकी डॉलर आधारित भुगतान प्रणाली ‘सोसायटी फॉर वर्ल्डवाइड इंटरबैंक फाइनेंशियल टेलीकम्युनिकेशन’ या ‘स्विफ्ट’ से स्वतंत्र एक वैकल्पिक भुगतान प्रणाली "संयुक्त रूप से शुरू करने" की अपनी प्रतिबद्धता व्यक्त की है। इससे यह संकेत मिलता है कि ब्रिक्स को ऐसी एक भुगतान प्रणाली को अपनाने में अभी भी लंबा समय लग सकता है जिसे स्विफ्ट का एक गंभीर विकल्प माना जा सके। कई देश अन्य “तंत्रों” पर विचार कर रहे हैं, क्योंकि अमेरिका ने ईरान और रूस को स्विफ्ट बाहर करके इस वैश्विक वित्तीय ढाँचे को हथियार बना दिया है।
हालाँकि भारत ब्रिक्स मुद्रा को लेकर सतर्क रहा है। अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक ढाँचे में सुधार और वैकल्पिक आर्थिक व्यवस्था की आवश्यकता को लेकर नीति-निर्माताओं ने अमेरिकी डॉलर के महत्त्व को स्वीकार किया है। भारत ने वर्ष 2023 में यूएई और मलेशिया के साथ स्थानीय मुद्राओं में व्यापार करने के लिये एक समझौते पर हस्ताक्षर किये। भारत सरकार ने यह भी घोषणा की है कि उसने घरेलू मुद्राओं में लेन-देन की सुविधा के लिये 22 देशों के साथ समझौते पर हस्ताक्षर किये हैं। नई दिल्ली और मॉस्को तेल के लिये अपनी-अपनी मुद्राओं में व्यापार करते ही हैं। हालाँकि ऐसे प्रयास मामूली हैं और भारत के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में अभी भी डॉलर का ही बोलबाला है। भारत का दृष्टिकोण रहा है कि अमेरिकी डॉलर से दूरी बनाना उसकी आर्थिक नीति का प्राथमिक उद्देश्य नहीं है। हालाँकि जब कुछ साझेदार देशों के साथ डॉलर आधारित व्यापार जटिल हो गया, तो भारत को वैकल्पिक समाधान तलाशने के लिये विवश होना पड़ा। इसका उद्देश्य डॉलर की स्थिति को खराब करना नहीं था। इससे स्पष्ट है कि भारत सरकार का झुकाव वि-डॉलरीकरण की ओर बढ़ने का नहीं है और फिलहाल अमेरिकी डॉलर व्यापार हेतु प्रमुख मुद्रा बनी रहेगा। भारत के लिये, सबसे अच्छा तरीका एक संतुलित दृष्टिकोण को अपनाना है साथ ही ब्रिक्स के भीतर ऐसे वित्तीय सुधारों का समर्थन करना होगा जो इसके हितों के अनुरूप हों, साथ ही अपनी व्यापक रणनीतिक और आर्थिक प्राथमिकताओं की रक्षा के लिये अमेरिका के साथ मज़बूत संबंध बनाए रखना होगा।
बीआईएस त्रिवार्षिक केंद्रीय बैंक सर्वेक्षण 2022 के अनुसार, विदेशी मुद्रा बाज़ार कारोबार का दैनिक औसत दर्शाता है कि वैश्विक विदेशी मुद्रा कारोबार में अमेरिकी डॉलर का हिस्सा 88 प्रतिशत है इसलिये विशेषज्ञों का कहना है कि ब्रिक्स की अपनी मुद्रा संबंधी महत्त्वकांक्षाएँ पहुँच से बहुत दूर हैं। ब्रिक्स मुद्रा के लिये बैंकिंग संघ, राजकोषीय संघ और सामान्य व्यापक आर्थिक अभिसरण सहित प्रमुख राजनीतिक समझौतों की आवश्यकता होगी। कई विशेषज्ञों को संदेह है कि एक नई ब्रिक्स मुद्रा वैश्विक लेन-देन के लिये व्यापक रूप से भरोसेमंद होने के लिये स्थिर या विश्वसनीय होगी। विशेषज्ञों के अनुसार, अपने आर्थिक दृष्टिकोण को लागू करने की चुनौतियों के अलावा, ब्रिक्स देशों को सदस्यों के बीच बढ़ते आंतरिक तनाव और प्रतिद्वंद्विता का भी सामना करना पड़ रहा है। सदस्य देशों में आर्थिक और राजनीतिक अस्थिरता ने भी ब्रिक्स के प्रयासों में विश्वास को नुकसान पहुँचाया है। दूसरी तरफ पश्चिमी देशों ने इस समूह के विकास को काफी हद तक कम करके आँका है। अधिकांश पश्चिमी राजनीतिक विश्लेषणों का दावा है कि ब्रिक्स देशों की महत्त्वाकांक्षाएँ अतिरंजित हैं और इसके सदस्यों की घरेलू प्रतिकूलताएँ पश्चिमी आर्थिक स्वास्थ्य के लिये किसी भी वास्तविक खतरे को बाधित करने के लिये पर्याप्त नहीं हैं। फिर भी, कुछ यूरोपीय नीति-निर्माताओं ने चेतावनी दी है कि पश्चिम विरोधी भावना और अधिक टकरावपूर्ण होती जा रही है। उनका कहना है कि पश्चिमी देशों को वित्तीय संस्थानों में गंभीरता से सुधार शुरू करने की ज़रूरत है। अन्य विश्लेषकों का कहना है कि ब्रिक्स के विडॉलरीकरण करने प्रयास अंततः डॉलर की ताकत और इस प्रकार अमेरिकी अर्थव्यवस्था के स्वास्थ्य को कमज़ोर कर सकते हैं। इन चुनौतियों के बावजूद यह कहा जा सकता है कि डॉलर आधारित व्यवस्था एकतरफा झुकाव वाली है और इस कारण से इसका दुरुपयोग भी होता रहा है। एक बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था में केवल एकमात्र वैश्विक मुद्रा की धारणा व्यावहारिक नहीं प्रतीत होती। ऐसे परिप्रेक्ष्य में, ब्रिक्स मुद्रा की प्रासंगिकता और संभावित भूमिका स्वतः स्पष्ट हो जाती है।