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परंपरा को तोड़ने वाला, अधीर मन का शायर – जॉन एलिया

जॉन एलिया शायरों के शायर हैं । उर्दू साहित्य में सबसे अधिक पढ़े जाने वाले शायरों की फेहरिस्त में वे शीर्ष पर हैं । सोशल मीडिया के विभिन्न प्लेटफॉर्म्स पर भी उनकी शायरियों की क्लिप्स बड़ी देखी सुनी जाती हैं । कहने का आशय यह है कि जॉन एलिया न केवल गंभीर अध्येताओं को अपनी ओर आकर्षित करते हैं अपितु लोकप्रिय साहित्य में भी वे बहुत चर्चित हैं। जॉन एलिया का मूल नाम सय्यद हुसैन जौन असगर था। लेकिन शायरी करने के लिए इन्होंने जॉन एलिया नाम चुना । जॉन एलिया का जन्म 14 दिसंबर 1931 में अमरोहा, उत्तरप्रदेश में हुआ था । भारत-पाक विभाजन को वे एक त्रासदी मानते हुए उसकी खिलाफत कर रहे थे लेकिन बाद में एक समझौते के तौर पर उन्होंने इसे स्वीकार कर लिया । विभाजन के बाद वे पाकिस्तान जरूर चले गए लेकिन यहाँ का अमरोहा, नीम का पेड़, उनके घर का द्वार, अमरोहा की गलियां बार-बार उनकी शायरियों में झाँकते रहे। वे कहते हैं “ पाकिस्तान आकर मैं हिंदुस्तानी हो गया।” जब तक हिन्दुस्तान की ज़मीन का स्पर्श उनके साथ बना रहा तब तक यहाँ का सब कुछ उनके साथ रहा लेकिन पाकिस्तान जाने के बाद यह सब कुछ केवल एक याद बनकर रह गयी । यह टीस बार-बार उनके शायरी-नज़्मों में दिखी देती है।

जॉन एलिया का रचना फलक बहुत व्यापक है। उन्होंने जीवन और दर्शन को अपनी शायरी में बहुत गहराई से अभिव्यक्त किया है। बहुत सरल लेकिन तीखे और तराशे हुए लहजे में उनकी शायरियों से हम रू-ब-रू होते हैं । वे लिखते हैं –

मैं भी बहुत अजीब हूँ, इतना अजीब हूँ कि बस
खुद को तबाह कर लिया और मलाल भी नहीं

इस तरीके का लहजा शुरू से लेकर अंत तक जॉन की शायरियों में मौजूद है । अपने इसी लहजे के कारण उन्हें नकारात्मकतावादी भी माना गया। स्वयं जॉन एलिया भी इस बात को स्वीकार करते थे। उनकी शायरी है –

एक ही तो हवस रही है हमें
अपनी हालत तबाह की जाए

वे खुद को बर्बादी की अति तक ले जाने में भी कोई गुरेज नहीं रखते थे । उनके लिए बर्बादी भी एक ऐसी प्रक्रिया थी जिसमें वे खुद को रचनात्मक मानते रहे । बर्बादी भी उनके यहाँ आती तो है तो जॉन उसे बेकार नहीं जाने देते। उस बर्बादी को भी अपने शायरी में ढाल कर उसे जौन का नाम दे देते है।

काम की बात मैंने की ही नहीं
ये मेरा तौर-ए-ज़िंदगी ही नहीं

मौजूदा समय में कोई बिना काम के किसी को देखता-मिलता- पूछता तक नहीं लेकिन जॉन का तरीका इससे बिल्कुल भिन्न है । वे अपने विचार में परंपरा को तोड़ने वाले शायर के रूप में गिने जाते हैं । उनकी शायरी नई दिशाओं का उद्घाटन करती है। उनकी शायरी में बागीपन नज़र आता है, उनकी शायरी में इंकलाब का तीखा स्वर नज़र आता है। “मीर के बाद यदा कदा नज़र आने वाली तासीर की शायरी को निरंतरता के साथ नई गहराइयों तक पहुंचा देना जॉन एलिया का कमाल है । अपनी निजी ज़िंदगी में जॉन एलिया की मिसाल उस बच्चे जैसी थी जो कोई खिलौना मिलने पर उससे खेलने के बजाय उसे तोड़कर कुछ से कुछ बना देनी की धुन में रहता है ।” इससे एक बात स्पष्ट हो जाती है कि वे सर्जक के स्तर पर नए प्रयोगों को करने से कोई गुरेज़ नहीं करते थे।परम्परा को तोड़ने वाले की उपाधि जब उन्हें दी जाती है तो वे भाव और शिल्प दोनों स्तर पर इसका निर्वाह कर रहे थे, यह उपाधि उन्हें अनायास नहीं दी गयी।

अहमद नदीम कासमी लिखते हैं “जॉन एलिया अपने समकालीनों से बहुत अलग और अनोखे शायर हैं । उनकी शायरी पर यकीनन उर्दू, फारसी, अरबी शायरी की छाप पड़ रही है मगर वो उनकी परंपराओं का इस्तेमाल इतने अनोखे और रसीले अंदाज़ में करते हैं कि बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में होने वाली शायरी में उनकी आवाज़ निहायत आसानी से अलग पहचानी जाती है ।” इसकी बानगी देखिए –

नया एक रिश्ता पैदा क्यूँ करें हम
बिछड़ना है तो झगड़ा क्यूँ करें हम
खामोशी से अदा हो रस्म-ए-दूरी
कोई हंगामा बरपा क्यूँ करें हम

ऐसी शायरी जॉन एलिया की अपनी विशेषता है जो उन्हें एक अलग पहचान देती है । रस्म-ए-दूरी की रवायतें उर्दू शायरी में बहुत अलग रही हैं । लेकिन जौन का नज़रिया इससे बिल्कुल भिन्न है । जॉन की ये पंक्ति सबसे अधिक पढ़ी जाने वाली पंक्तियों में से है, जहाँ वे लिखते हैं–

कितनी दिलकश हो तुम कितना दिल-जू हूँ मैं
क्या सितम है कि हम लोग मर जाएंगे

कबीर लिखते हैं “हम न मरब मरिहें संसारा”। जॉन आधुनिक शायर हैं । ये तो तय बात है कि इनका मिजाज मध्यकालीन कवि रचनाकारों से अलग होगा । लेकिन जॉन प्रेम के गहरे क्षणों में भी मृत्यु की आहट को स्थान देते हैं । गहरे प्रेम के क्षणों में भी मौत जीस्त का दर खटखटाती है । यह जॉन की अपनी विशेषता है । ऐसी ही पंक्तियाँ जॉन को परंपरा से अलग शायर बनाती हैं । उनकी पंक्तियाँ केवल शेर न होकर के सूक्तियाँ हो गई हैं, वे शेर जीवन का दर्शन हो गए हैं। यह पंक्ति जीवन दर्शन की है, वे लिखते हैं –

ज़िंदगी एक फन है लम्हों को
अपने अंदाज़ से गँवाने का

यह फन सबको सीखने की जरूरत है। जीवन सिर्फ जिए जाते रहने का नाम नहीं है। जीवन को जीने का सलीका भी आना चाहिए । अगर वह सलीका नहीं है तो ज़िंदगी बोझ हो जाती है। भावों की व्यापकता जॉन के यहाँ देखने को मिलती है। जौन एलिया की शायरियों में जीवन की अकुलाहट-छटपटाहट भी देखने को मिलती है। उनका शेर देखिए -

अपना खाका लगता हूँ
एक तमाशा लगता हूँ
अब मैं कोई शख़्स नहीं
उस का साया लगता हूँ

यहाँ जीवन में स्व का भाव तिरोहित हो गया सा लगता है। जब खुद को ही कोई शख़्स अपना खाका लगने लगे तो इसका आशय है कि उसका खुद के होने का भाव ही अब संकट में है । जॉन अपनी पूरी कविता यात्रा में आधुनिकता के बाद से उपजे संकट को बखूबी व्यक्त करते हैं जहां खुद से व्यक्ति का अलगाव सा हो जाता है। अपने पूरे अस्तित्व व उसके बोध को लेकर वह सशंकित रहता है। ये शेर इस भाव को पूरी तरह से अभिव्यंजित करता है। ज़िंदगी में एक कसक नहीं होती है, पूरी ज़िंदगी ही इन सब में गुजर जाती है । मुहब्बत ही एक रास्ता है जो इन सबसे उबारती है लेकिन आप उस समय क्या कीजिएगा जब मुहब्बत तक में दिल न लगे, तब जौन लिखते हैं -

ज़िंदगी किस तरह बसर होगी
दिल नहीं लग रहा मुहब्बत में

जब कहीं दिल नहीं लगता है तो मुहब्बत सहारा होती है। लेकिन मुहब्बत में ही दिल न लगे तो इंसान क्या ही कर सकता है ? ऐसे ही भाव को आगे ले जाकर वे लिखते हैं -

दिल जो है आग लगा दूँ उसको
और फिर खुद ही हवा दूँ उसको

जौन ऐसे ही उजड़े-उचटे हुए भावों को शब्द देने वाले शायर के रूप में पहचाने जाते रहे हैं । यह बेचैनी भी उनकी कविता में मौजूद है । इसीलिए वे कहते हैं -

बे-करारी सी बे-करारी है
वस्ल है और फ़िराक़ तारी है
जो गुज़ारी न जा सकी हमसे
हमने वो ज़िंदगी गुज़ारी है

इस ना गुज़ारी जा सकने वाली ज़िंदगी में दुखों के पहाड़ हैं, न समझे जाने की टीस है, मुहब्बत में उचटा हुआ दिल है, जीवन में जमा किए हुए गमों के सूद खाने की इच्छा है । लोगों के शायरियों में तन्हाई आती है। तन्हाई इनके यहाँ भी है लेकिन अलग रूप लिए हुए है -

तू भी चुप है मैं भी चुप हूँ ये कैसी तन्हाई है
तेरे साथ तिरी याद आई क्या तू सच-मुच आई है

आशिक़ाना मिज़ाज के शायर जौन आशिक़ी को जीने वाले शायर रहे हैं । उन्होंने उसमें गहरे उतर कर, उन भावों में गोते लगाकर, फिर अपने एक-एक शेर को तराशा है। जॉन एलिया भले अपने मिजाज में कम्यूनिज्म के समर्थक रहे हों लेकिन बात जब कला की आती है तो वे कला को विशुद्ध रूप से कला के नजरिए से ही देखे जाने की वकालत करते हैं ।

जॉन एलिया शायरी कहने के अतिरिक्त अन्य साहित्यिक गतिविधियों में भी काफी सक्रिय रहे । ‘इंशा’ पत्रिका के संपादकीय लेखन के तौर पर जौन ने अपना महत्वपूर्ण योगदान देकर उस पत्रिका की एक शानदार छवि बनाई। जौन ने इस्लाम से पूर्व मध्यपूर्व का राजनीतिक इतिहास नामक पुस्तक भी संपादित की। दर्शनशास्त्र, अरबी, फारसी और अंग्रेजी के कुछ महत्वपूर्ण ग्रंथों का उन्होंने अनुवाद भी किया । उनके संपादकत्व में तीस से अधिक किताबें निकलीं। वृहत उर्दू शब्दकोश तैयार करने में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी । जौन एलिया का शायर रूप इतना बड़ा था कि उसके सामने उनके यह सब काम बहुत पीछे छूट गए।

पुरानी हो चुकी परम्परा को तोड़ने वाले एक ऐसे शायर के रूप में जॉन एलिया याद किए जाते रहे हैं जिन्होंने उर्दू अदब को, उर्दू ज़बान को एक नई दुनिया से परिचित कराया। एक तीखी ज़बान के शायर के रूप में जीवन के फ़लसफ़ों को शायरी में कह देने की उनकी अदा निराली रही । उनकी शायरी सीधे दिलों को छू लेने वाली शायरियों की टॉर्च बियरर है । मुहब्बत के नए रूपों से हम उनकी शायरी से परिचित होते हैं । मुहब्बत में भी बाग़ी हो जाने वाले शायर, इंक़लाब के शायर के रूप में जॉन जाने जाते हैं लेकिन इसके बावजूद उनका शिल्प बहुत सधा हुआ हुआ और नरमी भरा हुआ है । मीर के तासीर की शायरी वर्षों बाद जॉन के यहाँ फिर से नज़र आती है । जॉन ने २००२ में दुनिया को अलविदा कह दिया।

  श्रुति गौतम  

असिस्टेंट प्रोफेसर (वी आई पी एस) दिल्ली

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