कायरों के लिये वीरता एक बुराई है
- 12 Dec, 2019 | हिमांशु सिंह
‘वीरता’ शब्द के उच्चारण या मनन के साथ ही मन में किसी महाराणा प्रतापनुमा व्यक्ति की छवि उभरती है जो युद्ध के दौरान अकेले बीस शत्रुओं पर भारी पड़ता हो। एक लंबे समय तक युद्ध में बहादुरी को ही वीरता का पर्याय माना भी जाता रहा, पर समय के साथ सभ्यता की नई विकसित होती विमाओं ने वीरता के मानक और परिभाषाओं में तब्दीली की और वीरता की अनेक श्रेणियाँ स्पष्ट कीं। वीरता की इन श्रेणियों के प्रतीक नायकों को साहित्य और मिथकों के माध्यम से प्रतिष्ठित किया गया। रामायण के दशरथ से लेकर महाभारत के कर्ण तक और गुलेरी के लहना सिंह से लेकर आधुनिक युग के महात्मा गांधी, भगत सिंह, अंबेडकर, अब्दुल हमीद और नीरजा भनोट तक...सभी वीर थे और सभी की वीरता की अपनी अलग श्रेणी थी। वीरता के प्रतीक इन सभी चरित्रों के व्यक्तित्व में जो एक समानता है, वह है लाभ-हानि और भय से मुक्त इनकी वचनबद्धता, निडरता और स्वाभिमान।
वीरता का पेड़ साहस की ज़मीन पर उगता है। साहस व्यक्तित्व की रीढ़ होता है और व्यक्तित्व की बनावट एवं बुनावट में इसकी बड़ी भूमिका होती है। वीरता के अतिरिक्त ज्ञान, समझदारी, वाक्-पटुता इत्यादि विशेषताएँ भी मनुष्य के व्यक्तित्व को आकर्षक और संपन्न बनाती हैं, पर वीरता ही वह गुण है जो इन सभी गुणों की सीमाओं का अतिक्रमण कर सकता है और यह वीरता ही है जिसकी मौजूदगी इन सभी गुणों की असफलताओं का अतिक्रमण कर सकती है। वस्तुत: वीरता व्यक्तित्व का वह तना है जिस पर चालाकी, समझदारी, वाक्-पटुता और अन्य गुण आसरा पाते हैं। सच ही है कि गुण कोई भी हों बिना न्यूनतम साहस और वीरता के ये कमर में बँधे हथियार से अधिक कुछ भी नहीं हैं।
समाज में रहने वाले हर व्यक्ति का अपना एक प्रभावी गुण होता है, जो उसके व्यक्तित्व की पहचान होता है। अब चूँकि वीरता, लोभ और भय पर काबू पाने की प्रवृत्ति रखती है और फायदे की तुलना में कायदे को महत्त्व देना इसका स्थायी गुण है, ऐसे में येन-केन-प्रकारेण अधिकतम लाभ कमाने की प्रवृत्ति वाले समाज में हानि के भय से काँप उठने वाले लोगों की भीड़ में वीरता एक विलक्षण गुण है और वीरता के प्रभावी लक्षणों वाले व्यक्ति गिने-चुने ही बचे हैं, तो वीरता फिलहाल ‘आउट ऑफ फैशन’ है।
चाटुकारिता, धोखाधड़ी और धृष्टता में अग्रणी होने को ही लोग बड़ी बात समझने लगे हैं और अधिकतम लाभ प्राप्ति को वीरता से जोड़कर देखे जाने की प्रवृत्ति रूप-रेखा पा रही है। ऐसे लिजलिजे समय में जब कायर न होने को ही वीरता समझा जा रहा है और वचनबद्धता हमारे राजनेताओं से ज़्यादा हवाला कारोबारियों के यहाँ जीवित है, वीरता का गुण सेना, कृषि और उद्यमियों तक ही सीमित दिखाई देता है। नि:स्वार्थ वीरता के उदाहरण तो अब बिरले ही बचे हैं। इसका स्थान ले लिया हैं अवसरवादी वीरता ने। सोचने की बात यह है कि बिना किसी आश्वासन के अपने प्राणों को संकट में डालकर दूसरों की प्राण-रक्षा करने वाले वीर पीठ पीछे मूर्ख कहे जाते हैं। ये हमारे समाज का चारित्रिक पराभव है।
दरअसल समाज अब लालच से प्रेरित स्वार्थी लोगों की भीड़ में तब्दील होता जा रहा है, जहाँ वीरता का गुण उनकी जीवनशैली से साम्यता नहीं बिठा पा रहा है। ऐसे में वीर कहलाने की दबी महत्त्वाकांक्षा और अधिकतम लाभ कमाने की स्वार्थी इच्छा वाले समाज ने अपने सत्यवादी, वचनबद्ध, स्वाभिमानी और परमार्थी चरित्रों के सामने खुद को छोटा पाकर उनके खिलाफ अपने संख्या बल का प्रयोग किया और वीर कहलाने की छुपी इच्छा मन में रखते हुए भी समाज के वीरों को मूर्ख कहा और अंत में वीरता को बुराई ही घोषित कर दिया।
अब नि:स्वार्थ भाव से पीड़ितों के लिये व्यवस्था से लड़ जाने वाले लोग, बीती हुई प्रेमिका को दिये वचन की रक्षा में प्राण गँवाने वाला लहना सिंह, अंजान यात्रियों की जान बचाने के लिये अपने प्राणों की आहुति देने वाली नीरजा भनोट और साहित्यिक मूल्यों के पक्ष में चाटुकारिता के खिलाफ संपादकों से लड़ जाने वाले आत्महंता आस्था के धनी कवि निराला जैसे लोग बेशक आज महान कहे जाते हैं, पर समाज का एक बड़ा तबका जिसके लिये वीरता का गुण अलभ्य है और ‘फायदा’ ही जिसका एकमात्र जीवन दर्शन है, इन वीरों को मूर्ख कहने से नहीं चूकता। पर वीरों को इन बातों से फर्क नहीं पड़ता। जिस प्रकार तकनीक के विकास के चलते मोबाइल, ई-मेल और व्हाट्सएप जैसी चीज़ों के होने पर भी कागज़ पर प्रेमपत्र लिखने वाले प्रेमी हर काल में पाए जाते रहेंगे, वैसे ही कायरों की इन कायरतापूर्ण व्याख्याओं को नज़रअंदाज़ करने वाले परमार्थी वीर भी हर युग में पैदा होते रहेंगे। उनकी वीरता चाटुकारों या आलोचक का मुँह देखकर नहीं जागती, वे इन तुच्छ भावों से कहीं ऊपर होते हैं। वीरता बड़े अवसरों का मुख नहीं देखती, बल्कि छोटे अवसरों को बड़ा बना देती है।
अब द्वंद्व कहाँ तक पाला जाए,
अब युद्ध कहाँ तक टाला जाए,
हम महाराणा के देशज हैं,
उठ फेंक जहाँ तक भाला जाए।
इसके विपरीत हिसाब-किताब में प्रवीण और मजमा लगाकर दानकर्म करने वाले कायर लोग अपनी कायरता को अनेक अन्य शब्दावलियों के माध्यम से छुपाते हैं। वे जाहिर करते हैं कि उनकी कायरता दरअसल रणनीतिक है। सच कहने से बचना हो, चाहे तिल का ताड़ बनाना हो या चाहे किसी की खुशामद करनी हो, इनके पास हर काम के लिये अलग और चमकीली शब्दावली होती है जिसे ये ‘प्रोफेशनल इथिक्स’ और ‘सर्वाइवल स्ट्रेटेजी’ बताते हैं। पर बात इतनी ही नहीं है। इन्होंने वीरता को मूर्खता के समकक्ष लाने की भी पर्याप्त कोशिश की है जो इनके मन की गहराइयों में छुपी कुंठा का सूचक है।
‘कायर होना मूर्ख होने से बेहतर है’ सरीखे जुमले उसी कुंठा का उत्पाद हैं। जब वीरों को मूर्ख और वीरता को बुराई कहने वाले कायरों को लक्ष्य करके फिराक गोरखपुरी ने बुलंद आवाज़ में कहा था-
‘नामर्द अखलाक से जरायम बेहतर’
यानी बहादुर अपराधी कायर शरीफ से बेहतर होता है, तो उस वक्त उन्होंने वीरता को नैतिकता से निरपेक्ष बताया था और मैं लंबे समय तक यही समझता भी रहा, पर समाज में वीरता और धृष्टता में अंतर बनाए रखना और जाहिर करना भी उतना ही ज़रूरी है जितना वीरों का जयघोष। वस्तुत: वीरता और धृष्टता का अंतर ही है जो हमारे समाज के नायकों को समाज के अपराधियों से अलग करता है।
और अंत में वीरता, कायरता और इनकी तमाम व्याख्याओं तथा संदर्भों से निपटारा करके अब जब मैं अपनी बात के अंतिम पड़ाव पर हूँ, तो मुझे जावेद अख्तर की लिखी ये पंक्तियाँ याद आ रही हैं, जो वीरता के रचनात्मक पक्ष को स्पष्ट करती हैं-
शौर्य क्या है?
थरथराती इस धरती को रौंदती फौजियों की एक पलटन का शोर
या सहमे से आसमान को चीरता हुआ बंदूकों की सलामी का शोर।
वादियों में गूँजते किसी गाँव के मातम में शौर्य क्या है?
शौर्य,
शायद एक हौसला, शायद एक हिम्मत हमारे बहुत अंदर,
मज़हब के बनाए नारे को तोड़कर किसी का हाथ थाम लेने की हिम्मत,
गोलियों के बेतहाशा शोर को अपनी खामोशी से चुनौती दे पाने की हिम्मत,
मरती-मारती इस दुनिया में निहत्थे डटे रहने की हिम्मत।
शौर्य,
आने वाले कल की खातिर अपने हिस्से की कायनात को आज बचा लेने की हिम्मत।
[हिमांशु सिंह]
हिमांशु दृष्टि समूह के संपादक मंडल के सदस्य हैं। हिन्दी साहित्य के विद्यार्थी हैं और समसामयिक मुद्दों के साथ-साथ विविध विषयों पर स्वतंत्र लेखन करते हैं।