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बांग्लादेश: हसीना नहीं समझ पाईं संदेश

आख़िर क्यों एक देश जहां से आर्थिक रफ़्तार पकड़ने की ख़बरें आ रही थी, कुछ ही महीनों में अराजकता की ओर धकेल दिया गया और दमन की सियासत के चलते सैकड़ों छात्र ,आम नागरिक मारे गए और वहां की प्रधानमंत्री को जान बचाकर भारत में शरण लेनी पड़ी। विद्रोह की आग ने अल्पसंख्यक नागरिकों को भी निशाने पर लिया क्योंकि उन्हें आशंका थी कि देश की प्रधानमंत्री पड़ोसी देश (भारत) के समर्थन से इस दमन को अंजाम दे रही हैं। छात्र क्रांति के बाद अब स्वर बदल रहे हैं और इस देश को उम्मीद अपने एक उम्रदराज़ नोबेल शांति पुरस्कार विजेता में नज़र आई है। बीते महीनों में हमारे इस पड़ोसी देश में जो हुआ वह वाकई सत्ता से चिपके रहने वालों के लिए कड़ा संदेश है।

बांग्लादेश में राजनीतिक उठापटक से बने हालात, हर उस देश के लिए सबक हैं जिसके हुक्मरां अवाम की आवाज़ को सुन नहीं पाते हैं और देश को अराजकता की ओर धकेल देते हैं। अब जाकर कहीं पंद्रह साल से राज कर रही वहां की अवामी लीग पार्टी को यह समझ आया है कि युवा छात्रों के असंतोष को समझने में उससे भूल हुई। अब निर्वासित पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना के बेटे इस बात को अपने साक्षात्कारों में लगातार कह रहे हैं कि गलती हुई है। सच है कि देश में सरकार के खिलाफ बने असंतोष के बीच आरक्षण का मामला ताबूत में अंतिम कील साबित हुआ लेकिन मुद्दे कई और भी थे। तख्तापलट के बाद पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना भारत आ गई। उधर बांग्लादेश की नवगठित अंतरिम सरकार के मंत्री कह रहे हैं कि भारत से उन्हें सहयोग की आशा है लेकिन दखल की नहीं। वे लगभग चेतावनी देने वाले अंदाज़ में कहते हैं कि भारत में रहते हुए पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना किसी तरह की बयानबाज़ी ना करें। बेशक किसी भी देश के लिए उसके अल्पसंख्यकों की सुरक्षा और खयाल बहुत मायने रखता है। इस उथल-पुथल में वे भी निशाने पर रहे। फिलहाल भारत की नज़र और चिंता केवल वहां की अल्पसंख्यक आबादी ही नहीं बल्कि समूचा बांग्लादेश है जिसे खड़ा करने में भारत की बड़ी भूमिका रही है। दक्षिण एशिया में पाकिस्तान, श्रीलंका और अब बांग्लादेश में बने ऐसे हालात इस क्षेत्र की अस्थिरता का ब्यौरा देते हैं। यहां भारत को अपनी बड़ी भूमिका, बड़े भाई जैसी रखनी होगी ताकि एशिया महाद्वीप का यह हिस्सा शांत रह सके।

नोबेल विजेता पर जताया भरोसा

क्या कमाल है कि इन छात्र आंदोलनकारियों ने अपना भरोसा 84 साल के नोबेल शांति पुरस्कार विजेता (2006) मोहम्मद यूनुस पर जताया और वे पेरिस से आ भी गए। वे यूनुस जो बांग्लादेश से गरीबी मिटाने वाले शख़्स के तौर पर देखे जाते हैं। ग्रामीण बैंकों (1983) के ज़रिये उन्होंने बांग्लादेश के निचले तबके को उठाने पर जोर दिया। आर्थिक रूप से पिछड़ों को लोन दिया ,खासकर महिलाओं को। उनके इस काम से आए जबरदस्त सामाजिक-आर्थिक बदलाव के लिए उन्हें नोबेल शांति पुरस्कार से नवाज़ा गया। उनकी सोच रही शून्य गरीबी, शून्य बेरोज़गारी और शून्य कार्बन उत्सर्जन। यह वजह भी थी कि पिछले एक दशक में देश में बेहतर आर्थिक हालात बने थे और प्रति व्यक्ति आय भी बढ़ी थी। छात्र क्रांति के बाद मोहम्मद यूनुस ने अपनी पहली अपील में छात्रों से कहा कि इस जीत को जाया नहीं होने देना है, अपनी गलतियों से सीखना है और हिंसा को रोकना है। दरअसल मोहम्मद यूनुस वे व्यक्ति हैं जिन्होंने इस बड़े भारतीय भूभाग की आज़ादी का समय भी देखा, फिर भारत-पाक विभाजन को भी और पाकिस्तान से बांग्लादेश बनने की प्रक्रिया को भी। ये बुज़ुर्ग अब बांग्लादेश की नई अंतरिम सरकार के मुखिया हैं। एक ओर पहल उन्होंने की। उन्होंने भारत के प्रधानमंत्री से बात करते हुए अल्पसंख्यकों की सुरक्षा का आश्वासन दिया और सहयोग की उम्मीद जताई। सहयोग और शांति का आश्वासन तो जमात-ए-इस्लामी के धुर दक्षिणपंथी नेता ने भी दिया जिन्हें शेख हसीना के कार्यकाल में जेल में डाल दिया गया था।

तस्लीमा नसरीन को भी आना पड़ा था भारत

बांग्लादेश के आंदोलनकारी इसे दूसरी क्रांति का नाम दे रहे हैं। पहली क्रांति वह थी जो शेख मुजीबुर्र रहमान के नेतृत्व में हुई। पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना उन्हीं की बेटी हैं। भारत के सहयोग से 1971 में यह हिस्सा पाकिस्तान से अलग हुआ था। तब से अब तक भारत ने अपने पड़ोसी को हमेशा सहयोग और समर्थन दिया। बीते तीन दशकों में कई तरह के समाचार भारत को बांग्लादेश से मिलते रहे। उनमें एक यह भी था कि युवा लेखिका तस्लीमा नसरीन ने एक उपन्यास 'लज्जा' (1993) लिखा जो भारत के लोगों के साथ बांग्लादेश में हो रहे दुर्व्यवहार का कच्चा चिट्ठा था। उनकी इस किताब पर प्रतिबंध लगा दिया गया। वे कट्टरपंथी बांग्लादेशियों को ऐसी चुभी की उन्हें जान बचा कर भारत की ओर भागना पड़ा और अब भारत ही उनका घर है। यहां रहते हुए भी कट्टरपंथ और पितृसत्ता के ख़िलाफ़ उनकी कलम लगातार चलती रही। मौत के फतवे भी जारी होते रहे। आज तक समय-समय पर हर भारत सरकार उनके रेजिडेंशियल वीज़ा की मियाद बढ़ाती रहती है ताकि वे यहां रह सकें। अब जान बचाकर शेख हसीना को भी भारत आना पड़ा है। समाचार और भी थे कि अवैध बांग्लादेशी घुसपैठिये हमारे देश में आ गए हैं और बांग्लादेश कि प्रति व्यक्ति आय भारत से बेहतर हो रही है इत्यादि, इत्यादि।

कट्टरपंथ की छाया में देश

आर्थिक बदलाव के साथ-साथ कट्टरपंथ इस देश का पीछा हमेशा करता रहा जैसे वह किसी अंतर्विरोध को जी रहा हो। राजधानी ढाका में मार्च 2015 की एक शाम डॉ अभिजीत रॉय (44) अपनी पत्नी राफिदा अहमद के साथ एक पुस्तक मेले से लौट रहे थे। सात किताबों के लेखक रॉय बांग्लादेशी मूल के अमेरिकी नागरिक और इंजीनियर थे और कुछ दिनों पहले ही ढाका लौटे थे। रॉय अपने ब्लॉग 'मुक्तो मोन' में ना केवल मज़हब को वैज्ञानिक कसौटी पर कसते बल्कि कट्टरपंथियों पर प्रहार भी करते। यही कट्टरपंथियों को रास नहीं आया। उनके पिता डॉ अजय रॉय कॉलेज के व्याख्याता और एक्टिविस्ट थे और उन्हें अपने पुत्र को लेकर चिंता थी क्योंकि उन्हें मिलने वाली धमकियों में एकाएक इजाफा हो गया था। आखिरकार रूढ़िवादी ताकतों ने उस शाम उनका क़त्ल कर दिया। ढाका में इससे पहले बांग्ला के स्कॉलर, लेखक और एक्टिविस्ट प्रोफेसर हुंमायू आज़ाद (2004) और ब्लॉगर रजब हैदर (2013) की भी ऐसे ही हत्या कर दी गई थी। इनके हत्यारे कानून की पहुंच से भी बाहर ही रहे हैं। उम्मीद की जा सकती है कि अब हालात बेहतर होंगे क्योंकि कट्टरपंथी संगठन जमात-ए-इस्लामी के महासचिव ने जेल से छूटते ही कहा है कि वह भारत और उसके नागरिकों के लिए कोई खतरा नहीं है क्योंकि भारत एक मित्र देश है।

आरक्षण साबित हुआ ताबूत में अंतिम कील

क़ानून का ऐसा हाल देश में रहने वाले आज़ाद ख़याल नागरिकों को दोराहे पर ला देता है। हाल की क्रांति, छात्र क्रांति मालूम होती है, लेकिन इसकी जड़ में कुछ और भी हैं। छात्रों को लगने लगा था कि शेख हसीना सरकार का 56 प्रतिशत आरक्षण उनके हितों पर आघात है। इसमें 30 फीसदी कोटा उन स्वतंत्रता सैनानियों के लिए था जिन्होंने 1971 की लड़ाई में अवामी लीग पार्टी का साथ दिया और पाकिस्तान से टूटकर एक आज़ाद बांग्लादेश बनाया। दस प्रतिशत महिलाओं के लिए, दस प्रतिशत ही ज़िला कोटा के तहत पिछड़े ज़िलों के लिए, पांच प्रतिशत जनजातीय अल्पसंख्यकों के लिए और एक फीसदी शारीरिक तौर पर कमज़ोर लोगों के लिए। छात्रों की मांग थी कि केवल पिछड़े और कमज़ोर के आरक्षण को ही बहाल रखा जाए और बाकी सभी आरक्षण ख़त्म किए जाएं। उनका तर्क था कि स्वतंत्रता सैनानियों के पोते-पोतियों को आरक्षण देने का कोई अर्थ नहीं है और इसमें सरकार भ्रष्टाचार करती है। सरकार का जवाब था कि स्वतंत्रता सैनानियों को आरक्षण ना दिया जाए तो क्या रज़ाकारों (रज़ाकार वाहिनी) को आरक्षण दिया जाए जिन्होंने लड़ाई के समय पाकिस्तानी सेना का साथ दिया था। यह मुक्तिवाहिनी से ठीक उलट थी। सरकार ने आंदोलन को दबाने की नाकाम कोशिश की। वह और हिंसक होता गया। सरकार ने अगस्त महीने में खूब गिरफ्तारियां की, कर्फ्यू लगाया, इंटरनेट बंद किया लेकिन हिंसा नहीं रुकी। यूएन की एक रिपोर्ट के मुताबिक इस दमन में 500 लोग मारे गए। बांग्लादेश अलग ही राह पर चल निकला। खासकर देश के शहर इस छात्र आंदोलन की गिरफ्त में आते गए। प्रतिरोध में छात्रों ने पुलिस थानों पर कब्ज़ा किया। पांच अगस्त को सरकार की मुखिया शेख हसीना को देश छोड़कर भगना पड़ा। साल 1972 से लागू इस आरक्षण कोटे से किसी को कोई दिक्कत नहीं थी लेकिन बाद के वर्षों में इसे स्वतंत्रता सैनानियों के बच्चों और फिर उनके पोते पोतियों के लिए बढ़ाना छात्र विद्रोह का कारण बना।

बंदरगाहों की बंदरबांट

आरक्षण के आलावा भी कुछ मुद्दे शेख हसीना के विरोध का कारण बनें। बंदरगाहों के आधुनिकीकरण में चीन के दखल ने विपक्ष और सिविल सोसाइटी को सचेत किया। उन्हें डर था कि ऐसा होना चीन पर उनकी निर्भरता को बढ़ाएगा और इससे देश की संप्रभुता पर आंच आएगी। विपक्षी दलों के इस नैरेटिव ने उथल -पुथल में आधार का काम किया था। यह भारत के लिए भी खतरा था क्योंकि चटगांव बंदरगाह बांग्लादेश के 90 फ़ीसदी व्यापार का केंद्र है जिसके ज़रिए भारत, नेपाल और भूटान से कारोबार होता है। सरकार की नीतियों से उपजे असंतोष, बेरोज़गारी,आर्थिक तंगी और सरकार की नीयत में ईमानदारी की कमी ने बांग्लादेश को ऐसे मोड़ पर ला खड़ा किया जहां विद्रोह पनपने लगा। उसमें भ्रष्टाचार भी बड़ा मुद्दा बना। वे पंद्रह साल से सत्ता में थीं और इस साल जनवरी में हुए चुनाव में विपक्षी दलों के बहिष्कार के बाद केवल 40 फ़ीसदी मतदान हुआ था। मतदान केंद्र लगभग खाली पड़े रहे थे। प्रमुख विपक्षी नेता खालिदा ज़िया को पहले ही जेल में डाल दिया गया था। चुनाव में 222 सीटों पर शेख हसीना की अवामी लीग की जीत हुई जिसे कहा गया कि 'यह डमी सरकार के डमी प्रत्याशियों की डमी संसद है। ' इसके बाद हालात बिगड़ते गए और आरक्षण के मुद्दे ने छात्र आंदोलन को गति दे दी।

तानाशाह कहा जाने लगा

कुछ गलत फैसलों ने शेख हसीना को एक तानाशाह के रूप में स्थापित कर दिया। विपक्षी दलों के नेताओं को, पत्रकारों को जेल में डाला गया। असहमत मीडिया के विज्ञापन रोके गए। बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी की खालिदा जिया को जेल भेजा दिया गया। वे पूर्व राष्ट्रपति जनरल जिया जियाउर्र रहमान की पत्नी हैं। रहमान पर शेख हसीना के पिता शेख मुजीब की हत्या की साज़िश का भी आरोप था। इस हत्या, सैन्य विद्रोह के बाद जनरल जिया ने ही बांग्लादेश की बागडोर संभाली। इस तरह देश में दो परिवार एक दूसरे के हमेशा दुश्मन बने रहे। लोग कहने लगे कि शेख हसीना के लिए 'मेरे पिता, मेरा परिवार और मैं' ही सब कुछ था और वह इसी चश्में से सबको देखने लगीं थीं। सरकारी नियुक्तियों में भी यही डीएनए खंगाला जाता। ऐसे में विरोध की चिंगारी भीतर ही भीतर धधकती गई। अगस्त के पहले सप्ताह में तो देश जल रहा था। आक्रोश ऐसा था कि देश के संस्थापक की मूर्ति गिरा दी गई। आंदोलनकारियों को लगता था कि भारत, शेख हसीना का हिमायती है इसलिए भारतीय संस्थाओं पर भी हमले हुए। अल्पसंख्यकों को लूटा गया। राष्ट्रपति निवास को लूट लिया गया। अब ये सभी चीज़ें आंदोलनकारी लौटा रहे हैं। उनका कहना है कि हम लुटेरे नहीं हैं लेकिन तानाशाही का विरोध करना चाहते थे। बांग्लादेश की सेना की महत्वपूर्ण बैठक के बाद हालात में लगातार सुधार हुए।

सेना की बैठक के बाद बदले हालात

अगस्त महीने की तीन तारीख़ को आर्मी चीफ़ वक्र उज़ ज़मान ने वरिष्ठ अधिकारीयों की एक बैठक बुलाई। ढाका में मौजूद सैन्य अधिकारी व्यक्तिगत रूप से हाज़िर हुए और जो बाहर थे वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के ज़रिए जुड़े। अपने ही छात्रों पर गोलीबारी और एक चार साल की बच्ची की मौत का मुद्दा एक महिला अधिकारी ने उठाया। बैठक में यह बात गहराई से घर करती गई कि हम अपने ही लोगों पर गोलियां बरसा रहे हैं। फ़ैसला हो चुका था। तीन और चार अगस्त को प्रदर्शन तीखा था और कई जानें भी गईं। फिर एक रेखा खींच दी गई। हमले थमने लगे। शेख हसीना के पास देश छोड़ने के अलावा कोई विकल्प नहीं था। वे ब्रिटेन में शरण चाहती थीं लेकिन मंज़ूरी नहीं मिलने पर वे भारत आ गईं। बेशक यह उग्र आंदोलन था जिसमें छात्रों को अपनी जान की परवाह भी नहीं थी। कुछ इसे 'ज़न जी जनरेशन' की पहली क्रांति का नाम दे रहे थे। दीवारें इंकलाब के नारों से अटी पड़ी थीं। जोश में कोई कमी नहीं थी। इस छात्र आंदोलन ने सत्ता से चिपके रहने वालों को कड़ा संदेश दिया। लोकतंत्र को यदि जनता के नज़रिये और उसके हित के लिए नहीं चलाया जाएगा तो फिर जो होगा वह क्रांति ही होगी। बांग्लादेश को इस हाल में धकेलने के लिए कौन ज़िम्मेदारी लेगा और क्या दुनिया के शेष देश इससे कोई सबक लेंगे? खासकर वे जो खुद को सर्वेसर्वा समझ दुनिया को युद्ध में उलझाए बैठे हैं।

  वर्षा भम्भाणी मिर्ज़ा  

(लेखिका वर्षा भम्भाणी मिर्ज़ा ढाई दशक से अधिक समय से पत्रकारिता में सक्रिय हैं। ये दैनिक भास्कर, नईदुनिया, पत्रिका टीवी, राजस्थान पत्रिका, जयपुर में डिप्टी न्यूज़ एडिटर पद पर काम कर चुकी हैं। इन्हें संवेदनशील पत्रकारिता के लिए दिए जाने वाले 'लाडली मीडिया अवार्ड' के राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है।)

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