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दृष्टि आईएएस ब्लॉग

वर्तमान में युवाओं के लिये मानसिक संबल की आवश्यकता

पिछले कुछ समय से दिल्ली के समाचार पत्रों में और न्यूज़ चैनलों पर यहाँ के सरकारी स्कूलों के 9वीं और 11वीं कक्षाओं के परीक्षा परिणाम चर्चा में हैं। 9वीं कक्षा में करीब 50% से ज्यादा और 11वीं कक्षा में लगभग 60% बच्चे फेल हैं। फेल बच्चों की कुल संख्या लगभग 2 लाख बैठती है। ये वास्तव में 'लॉकडाउन पीढ़ी' के बच्चे हैं जो पिछले करीब 3 वर्षों से बिना क्लासरूम की पढ़ाई, और बिना परीक्षा दिये पास होते आ रहे थे और जैसे ही इस साल क्लासरूम की पढ़ाई और परीक्षा से सामना हुआ, ये बिखर गये। लेकिन यह बात उतनी चिंताजनक नहीं है जितनी यह कि दिल्ली के मयूर विहार के आस-पास के क्षेत्रों में 11वीं फेल कुछ छात्र-छात्राओं के आत्महत्या करने की सूचनाएं भी प्राप्त हुईं हैं।

फरवरी से मई तक का समय परीक्षाओं और परीक्षा परिणामों का समय होता है। देश भर में 10वीं कक्षा से लेकर विश्वविद्यालयी स्तर तक परीक्षा परिणाम, साथ ही महत्वपूर्ण प्रतियोगी परीक्षाओं के परिणाम इसी समय आते हैं, लेकिन अफसोस की बात है कि साल-दर-साल इन महीनों में आत्महत्या करने वाले युवाओं की संख्या में इज़ाफा हो रहा है।

फिर यहाँ यह बात भी है कि आत्महत्या जैसी प्रवृत्ति के पीछे परीक्षा परिणाम ही जिम्मेदार एकमात्र कारक नहीं हैं बल्कि कई अन्य कारकों के प्रभाव से भी हमारी युवा पीढ़ी के दिमाग पर अवश्य ही ऐसी चोट पहुँचती है जिस से वे इस प्रकार अतिवादी कदम उठा लेते हैं। यहाँ धर्म-जाति, आय-वर्ग, लिंग आदि के भेद मिटते नज़र आते है। मयूर विहार का 11वीं फेल छात्र हों या सुशांत सिंह राजपूत और आकांक्षा दुबे जैसी हस्तियां, हमारे युवाओं में बढ़ती यह प्रवृत्ति दर्शाती है कि एक समाज के तौर पर हम सम्भवतः कुछ असंवेदनशील हो चुके हैं। अपने युवाओं की मानसिक स्थिति को समझने में और उन्हें थामने में हम शायद कहीं कुछ पीछे रह गये है।

युवाओं के लिये मानसिक स्वास्थ्य का महत्व – स्वास्थ्य की अपनी परिभाषा में विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) शारीरिक स्वास्थ्य के साथ-साथ मानसिक स्वास्थ्य को भी शामिल करता है। मानसिक रूप से व्यक्ति तब स्वस्थ कहा जाता है जब उसे अपनी क्षमतायें स्वयं ज्ञात हों, और वह उन्हें मूर्त रूप प्रदान कर सके। उसके भीतर इतना आत्मविश्वास हो कि वह स्वयं को अभिव्यक्त कर सके और जीवन की समस्याओं को दूर करते हुए उत्पादक गतिविधियाँ कर सके और समुदाय की बेहतरी में सक्रिय योगदान कर सके। युवाओं के लिये मानसिक स्वास्थ्य कितना मायने रखता है इसे इस प्रकार से समझ सकते हैं –

1. WHO के अनुसार विश्व में 15-30 वर्ष आयु-वर्ग में मृत्यु का चौथा सबसे बड़ा कारण आत्महत्या ही है।
2. किशोरों और युवाओं में मानसिक बीमारियों, यहाँ तक कि शारीरिक विकलांगता का भी बड़ा कारण अवसाद (Depression), उत्तेजना (Anxiety) तथा व्यवहारिक विकार (Behavioural disorder) हैं। चिकित्सा विज्ञान में इसके लिये मनोदैहिक विकार (Psychosomatic disorder) शब्द प्रयुक्त होता है।
3. वर्तमान में अवसाद, वैश्विक बीमारी बोझ (Global disease burden) में दूसरा स्थान रखता है। COVID-19 से पहले के वर्षों में विश्व के लगभग 1 अरब लोग मानसिक समस्याओं से पीड़ित थे जिसमें 15% संख्या 10-25 आयु वर्ग की थी। COVID-19 के वर्षों के दौरान विशेषतः इस आयु वर्ग में मानसिक समस्याओं के मामले 30% तक बढ़े हैं।
4. लैंसेट जर्नल में 2021 में प्रकाशित सर्वेक्षण के अनुसार 1990-2017 की अवधि में भारत में मानसिक विकारों के मामलों में 35% से अधिक की वृद्धि हुई है। WHO के अनुसार देश की कुल आबादी का करीब 20% हिस्सा मानसिक समस्याओं से ग्रस्त है। लगभग 5.5 करोड़ भारतीय अवसाद (Depression) व 4 करोड़ लोग उत्तेजना (Anxiety) से पीड़ित हैं।

इन आंकड़ों के अलावा जो सर्वाधिक चिंताजनक बात है वह यह है कि मानसिक समस्याओं को लेकर समाज और सरकारों द्वारा अधिक गंभीरता नहीं दिखायी जाती। WHO के अनुसार विश्व भर की सरकारों द्वारा अपने कुल स्वास्थ्य बजट का 2% से भी कम भाग मानसिक स्वास्थ्य पर खर्च किया जा रहा है, अतः रोगग्रस्त आबादी का काफी बड़ा हिस्सा मानसिक समस्याओं के इलाज से दूर है। भारत में NIMHANS द्वारा 2016 के राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण में भी यह बात कही गयी थी कि देश में मनोरोगियों में लगभग 80% लोगों को किसी प्रकार का कोई ट्रीटमेंट नहीं प्राप्त होता। NIMHANS ने इसे 'भविष्य की मेडिकल इमरजेंसी' कहा है।

अब जबकि विज्ञान द्वारा यह सिद्ध हो चुका है कि अवसाद, तनाव (Stress), उत्तेजना, द्विध्रुवीय विकार (Bipolar disorder), स्कीजोफ्रेनिया जैसी मानसिक बीमारियां वास्तव में किसी कारण से ही होती हैं और ट्रीटमेंट के जरिये ठीक भी हो सकती है, तब ऐसा होना और भी अनुचित है।

युवाओं में मानसिक समस्याओं के कारण –

1. अभिभावकों के सपने और शैक्षिक बेरोजगारी - हमारे यहाँ अभिभावक प्रायः अपने बच्चों से गगनचुम्बी उम्मीदें रखने लगते हैं जिसके कारण बच्चे मनोवैज्ञानिक दबाव में रहते हैं। कोटा जैसे शहरों में जाकर पढ़ने वाले बच्चों पर यह दबाव साफ परिलक्षित भी होता है। फिर, भारत में उच्च शैक्षणिक डिग्री धारकों की काफी बड़ी तादाद है जो एक अदद अच्छी नौकरी की तलाश में है। परंतु सरकारी व निजी क्षेत्रों में अपने स्तर के अनुरूप नौकरियों की संख्या में लगातार कमी आते जाने के कारण यह पीढ़ी अवसाद की गिरफ्त में आसानी से आ रही है। अब एम.फिल. या पीएच.डी. धारक किसी दफ्तर में चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी हो तो उसे अवसाद तो घेरता ही है।

बीते करीब 20 वर्षों में यह बात साफ हुई है कि राज्यों के लोक सेवा आयोग (PSCs), कर्मचारी चयन आयोग (SSC) आदि संस्थाएं अपनी क्षमता व प्रतिष्ठानुरुप कार्य नहीं कर रही हैं। एक वर्ष की भर्ती का कार्य यदि पेपर-आउट, गलत उत्तरमाला और न्यायालयों के चक्कर लगाते-लगाते 4 वर्ष में पूरा हो तो कौन सा युवा दुःखी न होगा?

2. सामाजिक पूर्वाग्रह व उपेक्षा - सही मायनों में देखा जाये तो युवाओं में मानसिक समस्याओं का सबसे बड़ा कारण यही है कि जब रोग को रोग न मानकर उस व्यक्ति को ही दिमागी तौर पर कमजोर बता दिया जाये। हम बहुधा सुनते हैं कि "...पागल है..", "...अरे वह तो मेंटल है…", "..अरे नौटंकीबाज है वह…" लेकिन हम शायद यह मानने को तैयार नहीं होते कि वह व्यक्ति किसी मानसिक समस्या का भी शिकार हो सकता है। हमारी प्रवृत्ति अक्सर इसे खारिज करने या छिपाने की होती है। दिल्ली के प्रतिष्ठित VIMHANS अस्पताल में मैं अपनी एक दोस्त के साथ गया था जहाँ एक पिता अपनी बेटी को अपने पर्चे पर दिखाना चाह रहा था, बेटी के नाम का पर्चा नहीं बनवा रहा था जबकि डॉक्टर उसे बता रहे थे कि यह गैर-कानूनी काम होगा और वह नहीं करेंगे।

इसका एक बड़ा दुष्प्रभाव यह होता है कि वह युवा अपनी समस्या के बारे में किसी को बता भी नहीं पाता है। वह डरता है कि लोग क्या कहेंगे? लड़कियों में यह समस्या लड़कों के मुकाबले अधिक गंभीर हो जाती है।

3. शैक्षिक परिसरों में जातिगत भेदभाव - हम मानें या नहीं परन्तु यह एक कड़वा सच है। छोटे शहरों के संस्थानों से लेकर IIT जैसे बड़े, प्रतिष्ठित संस्थानों तक में जातिगत भेदभाव और मानसिक प्रताड़ना की खबरें प्रायः सामने आती हैं और जिनकी दुःखद परिणति आत्महत्या में होती है। बाल्यावस्था व किशोरावस्था में यौन उत्पीड़न अथवा घरेलू हिंसा प्रभावित परवरिश, अथवा ड्रग्स उत्पीड़न (Substance abuse) - इस बात के बारे में बहुत कम चर्चा होती है जबकि युवाओं व किशोरों में बढ़ती मानसिक समस्या का यह एक बहुत बड़ा कारण है।

व्यक्ति का किसी भयानक शारीरिक व्याधि से गुजरना - ब्रेन स्ट्रोक, लकवा, सर्वाइकल समस्या, ऑटो-इम्यून विकार, गर्भपात आदि के कारण भी मानसिक समस्याएँ बढ़ती हैं।

4. व्यक्तिगत व पेशेवर सम्बन्धों में तनाव - युवाओं में यह समस्या काफी अधिक देखी जा सकती है। 24×7×365 वाले वर्तमान समय में युवा अपने पेशेवर और व्यक्तिगत दोनों सम्बन्धों को साधने में अत्यधिक कठिनता का अनुभव कर रहा है।

अब बात यह आती है कि वजह कोई भी हो, वह इतनी बड़ी नहीं हो सकती कि युवा, जिसके आगे उसका पूरा जीवन पड़ा हुआ है, वह अचानक ही उसे यूँ ही समाप्त कर ले। यहाँ पर उसे एक ऐसे माहौल की जरूरत होती है जिसमें वह अपनी समस्याएँ खुलकर कह सके जिसका समय रहते निदान हो सके। जैसे–

1. उसे बताना चाहिये कि एक परीक्षा, एक डिग्री, एक नौकरी या एक विफल प्रेम सम्बन्ध मात्र ही उसके जीवन का निर्णय नहीं कर सकती। मानव जीवन को इनसे परे भी समझा जाना चाहिये।
2. मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े सामाजिक पक्ष और रूढ़ीवादिता को सुलझाना सबसे जरूरी है। इसे समझना होगा कि ये भी रोग हैं जिनका इलाज सम्भव है और प्राथमिकता के आधार पर किया जाना चाहिये। रोग को खारिज करने और छिपाने की प्रवृत्ति के कारण ही इन समस्याओं के 80% रोगी इलाज तक नहीं पहुँच पाते।
3. कई अग्रणी NGOs भी इस दिशा में अच्छा काम कर रहे हैं जैसे जयपुर स्थित माइंडरूट फाउंडेशन, गाजियाबाद स्थित संवेदना सोसाइटी, पूर्वोत्तर क्षेत्र में आशादीप सोसाईटी आदि।
4. भारत में मानसिक स्वास्थ्य अधि.-2017 में आत्महत्या सम्बन्धी प्रावधान में संशोधन करना और विकलांगता अधि.-2016 में मानसिक स्वास्थ्य को महत्वपूर्ण घटक के रूप में शामिल करना स्वागत योग्य कदम है। इसके अलावा 2022 में टेली-मानस हेल्पलाइन (14416) शुरू की गयी थी, साथ में बजट 2022-23 में राष्ट्रीय टेली-मेंटल सेंटर बनाने का भी प्रावधान है। इन प्रयासों से रोगी और स्वास्थ्य सेवा प्रदाता सीधे संपर्क स्थापित कर सकेंगे और उनकी समस्याओं का निराकरण जल्दी हो सकेगा। NIMHANS की सहायता से RAAH मोबाइल एप का भी विकास किया गया है जो एक प्रकार की डाइरेक्टरी है जिसमें देश के सभी मानसिक स्वास्थ्य केंद्रों और मनोचिकित्सकों के ब्यौरे दर्ज हैं।

भारत में मानसिक समस्याओं के निराकरण हेतु आधारभूत संरचना की बेहद कमी है और प्रत्येक 1 लाख की आबादी पर मात्र 0.75 मनोचिकित्सक है जबकि इन्हें न्यूनतम 3 होना चाहिये। इस दिशा में ध्यान देना चाहिये।

देश का युवा देश की पूँजी है। उसे यूँ ही बर्बाद हो जाने और मरने के लिये नहीं छोड़ा जा सकता बल्कि उसे साथ लेकर चलने, उसकी भावनाओं के प्रति संवेदनशील होने की आवश्यकता है। उसे जीवन का मोल समझाने की जरूरत है, और यह बताने की जरूरत है कि उसके पास यदि स्वस्थ जीवन रहा तो वह भी अमूल्य रत्न है जिसके सहारे वह कोई भी उत्पादक गतिविधि करके अपने जीवन को सार्थक कर सकता है।

  हर्ष कुमार त्रिपाठी   

हर्ष कुमार त्रिपाठी ने पूर्वांचल विश्वविद्यालय से बी. टेक. की उपाधि प्राप्त की है तथा DU के दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनोमिक्स से भूगोल विषय में परास्नातक किया है। वर्तमान में वे शिक्षा निदेशालय, दिल्ली सरकार के अधीन Govt. Boys. Sr. Sec. School, New Ashok Nagar में भूगोल विषय के प्रवक्ता के पद पर कार्यरत हैं।

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