क्यों नहीं रुक रहे युद्ध?
- 15 Jul, 2024 | रहीस सिंह
वर्ष 1945 में जब संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना हुई, तो भरोसा दिया गया कि अब विश्वयुद्ध जैसी विभीषिकाओं की पुनरावृत्ति नहीं होगी और कोई भी शहर हिरोशिमा व नागासाकी जैसे हस्र से नहीं गुज़रेगा। ऐसी पुनरावृत्तियाँ हुई भी नहीं। अब यह संयुक्त राष्ट्र संघ की सफलता का परिणाम रहा अथवा दुनिया के अंदर व्याप्त उस भय का, जो वर्ष 1945 में हिरोशिमा और नागासाकी में दिखा था, यह आपको तय करना है। परंतु वैश्विक परिदृश्य इस बात की गवाही तो नहीं देता कि दुनिया पूरी तरह से शांतिपथ पर समृद्धि की ओर बढ़ी अथवा युद्ध पूरी तरह से त्याग दिये गए। इसके विपरीत युद्धों की निरंतरता देखी गयी। फिर वे चाहे लघु स्तर के युद्ध हों अथवा व्यापक स्तर पर हानिप्रद। इनसे मानवीय, प्राकृतिक व आर्थिक हानियाँ भी हुईं, ऐसी कि जिन्हें कमतर नहीं आंका जा सकता। सच कहें तो ये हानियाँ इतनी बड़ी रहीं कि विश्वयुद्ध की विभीषिकाएँ इतिहास के झरोखों से झाँकती हुई नज़र आयीं ताकि उनके दोहराने का एहसास हो सके। बहुत से अध्ययन बताते हैं कि 21वीं सदी की दुनिया भय और असुरक्षा के प्रभाव में है। ऐसे में प्रश्न यह उठता है कि ऐसा क्यों हुआ, संयुक्त राष्ट्र संघ जैसी संस्थाएँ उन उद्देश्यों पर खरी क्यों नहीं उतरीं जिन्हें लेकर इनकी संस्थापना हुई थी? इसके लिये दोषी किसे माना जाए?
21वीं सदी की शुरुआत एक बड़ी घटना से हुई। एक ऐसी घटना जिसने आतंकवाद को देखते-ही-देखते वैश्विक आतंकवाद का दर्जा दे दिया, हालाँकि इससे पहले भी आतंकवाद था और भारत जैसा राष्ट्र इसके खिलाफ राष्ट्रीय व अतंर्राष्ट्रीय मंच पर आवाज़ उठाता था और ऐसे प्रमाण भी देता था जिससे कि पाकिस्तान कठघरे में खड़ा हो। लेकिन अमेरिका सहित तत्कालीन पश्चिमी दुनिया ने अनसुनी और अनदेखी की। परंतु जैसे ही वर्ल्ड ट्रेड सेंटर आतंकवाद का शिकार हुआ, बाज़ारवादी ताकतों से लेकर राजनीतिक सत्ताधीशों ने इसे सुना ही नहीं बल्कि इसके खिलाफ कार्रवाई शुरू कर दी। दरअसल पश्चिमी दुनिया के लिये 9/11 की घटना एक ऐसी घटना थी जिसने उस भित्ति को बदल दिया जिस पर कभी अमेरिका और यूरोप स्वयं को सुरक्षित महसूस कर रहे थे। इतना सुरक्षित की मध्य-पूर्व के देशों से कट्टरपंथियों को निकालकर अलकायदा के रूप में एक ऐसा संगठन तैयार कर दिया जो अंतत: उन्हीं के लिये खतरा बन गया। इस अलकायदा के सदस्यों को तब मुजज़ाहिदीन नाम दिया गया और अमेरिकी प्रशासन द्वारा ब्लैक बजट बनाकर इसे पोषित किया गया, ताकि अफगानिस्तान में सोवियत फौजों के साथ लड़ सके। यहीं से युद्ध की एक नई परम्परा और तकनीक का आरंभ हुआ जो अब तक किसी-न-किसी रूप में जारी है।
9/11 की घटना के फलस्वरूप अमेरिकी नेतृत्व में नाटो देशों ने ऐसी प्रतिक्रिया की जिससे पहले काबुल और फिर बगदाद का ध्वंस पूरा हो गया। हालाँकि, अफगानिस्तान में अमेरिकी नेतृत्व में नाटो फौजों ने ‘वार इन्ड्यूरिंग फ्रीडम’ के नाम से युद्ध लड़ा। परंतु अफगानिस्तान की आज जो स्थिति है, उसे देखते हुए तो यह कहना उचित ही लगेगा कि यह युद्ध कभी न खत्म होने वाला युद्ध था। चूँकि खत्म हो गया इसलिये इसका हस्र वह नहीं होना था जिसका नारा अमेरिका ने दिया था। यानि काबुल कट्टरपंथ के चंगुल से मुक्त नहीं हुआ और अफगानों को सही अर्थों में स्वतंत्रता नहीं मिली। काबुल जैसी ही कहानी बगदाद में दोहरायी गयी। इस कहानी को सबने सुना या देखा और अधिकांश ने वह सच भी देखा जो नहीं बताया गया था। वैसे तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति ने तो कह दिया था कि ‘नाउ डार्क एण्ड पेनफुल एरा इज़ ओवर’। लेकिन ऐसा हुआ कभी नहीं। बल्कि इसके जो अंतिम परिणाम सामने आए वे कहीं अधिक डरावने तथा संकटापन्न स्थिति के द्योतक थे। अफगानिस्तान तो शांत नहीं हुआ लेकिन इसके साथ ही अलकायदा इन इस्लामी मगरिब (एक्यूआईएम), अल-हदीथ, हिजबुल्ला, बोको हराम, अल शबाब, अफगान तालिबान, तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान, हिज़्ब-उत्-तहरीर जैसे आतंकवादी संगठन बन गए जिन्होंने मध्य-पूर्व, दक्षिण एशिया और कुछ हद तक दक्षिण-पूर्व तक अपना प्रभाव जमा लिया। इन संगठनों ने दुनिया भर में कट्टरपंथी संगठनों के साथ मिलकर रेडकलाइज़ेशन की प्रक्रिया को तेज़ किया। कुछ वर्ष पहले बीबीसी और इंटरनेशनल सेंटर फॉर स्टडी ऑफ रेडिकलाइज़ेशन (आईसीएसआर) तथा इंटरपोल ने अपनी स्टडी रिपोर्टों में स्पष्ट किया था कि दुनिया पहले की अपेक्षा कहीं अधिक असुरक्षित हुई है। इसके साथ ही ‘अरब स्प्रिंग’ की शुरुआत हुई जिसने कई शासकों की प्राच्य एवं निरंकुश तानाशाही को धूल चटा दी। शांति और लोकतंत्र नहीं आ सका जिसकी ज़रूरत थी बल्कि युद्ध और आतंक की इन घटनाओं ने केवल मध्य-पूर्व को ही प्रभावित नहीं किया अपितु पूरे विश्व में एक नई हलचल पैदा कर दी। इन घटनाओं ने यह संदेश भी दिया कि दुनिया शांति की नहीं बल्कि नए-नए किस्म के युद्धों के साये में है। लेकिन क्या दुनिया इससे कुछ सीख पायी या सीखने की कोशिश की? शायद नहीं।
पिछले लगभग दो वर्षों के वैश्विक राजनीतिक परिदृश्य को ही देखें तो वह दो बड़ी घटनाओं का साक्षी रहा है। प्रथम रूस-यूक्रेन युद्ध और द्वितीय इज़राइल-हमास। पहली घटना की शुरुआत 24 फरवरी 2022 को हुई जो अब तक जारी है और दूसरी 7 अक्तूबर 2023 को हुई जिसे इज़राइल-हमास संघर्ष के रूप में देख सकते हैं। इन घटनाओं ने यह बता दिया कि नई विश्वव्यवस्था में युद्ध, अभी भी महत्त्वपूर्ण हैं। लेकिन क्यों? इन्हें किसी देश विशेष की महत्त्वाकांक्षा का परिणाम कहें, किसी आतंकी समूह के अमानवीय कारनामों के खिलाफ दण्डात्मक कार्रवाई कहें अथवा महाशक्तियों द्वारा खेले जाने वाले ‘ग्रेट गेम’ कहें अथवा कुछ और.....स्पष्ट नहीं है। जो भी हो, युद्ध की निरंतरता बनी रही और शतरंज की महान चालों की तरह बड़ी अथवा बाज़ारवादी ताकतें अपना-अपनाकर चालें चलती रहीं और प्रभावित देशों के नागरिक इसके बदले में ‘डेथ टोल’ अदा करते रहे।
क्या कोई यह बता सकता है कि आखिर ऐसा क्यों हुआ? पिछले दो या तीन दशकों की घटनाओं को यदि छोड़ दें, तो भी अब तक इसकी सही वजह पता नहीं चल पायी कि रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने यूक्रेन को निशाना क्यों बनाया? क्या इस युद्ध की वास्तविकता से हमारा परिचय हो पाया? दूसरे शब्दों में कहें तो क्या किसी पश्चिमी ताकत ने यह स्वीकारने का साहस किया कि यूक्रेन की ज़मीन पर लड़ा जा रहा युद्ध केवल रूस और यूक्रेन के बीच लड़ा जाने वाला युद्ध नहीं है? क्या यह बताने के लिये वैश्विक संस्थाओं और थिंक टैंक्स की तरफ से पहल हुई कि इस युद्ध ने दुनिया को पुन: दो धुरियों पर टिका दिया। एक वह है जिस पर अमेरिका की विरोधी ताकतें हैं और दूसरी पर रूस-चीन विरोधी। क्या कोई यह प्रश्न करना चाहता है कि रूस-यूक्रेन और इज़राइल-हमास युद्ध लड़वा कौन रहा है? इससे असल लाभ किसका हो रहा है?
इन दोनों युद्धों की पृष्ठभूमि में दुनिया का रक्षा बजट 2,200 अरब डॉलर तक कैसे पहुँच गया? उस समय द इकोनॉमिस्ट की एक रिपोर्ट में कहा गया था कि वर्ष 2023 में रक्षा खर्च में 700 अरब डॉलर तक की वृद्धि और हो सकती है। सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि दुनिया की शीर्ष 100 कम्पनियों के सैन्य हथियारों का कारोबार 592 अरब डॉलर को पार कर गया है। इनमें से करीब एक तिहाई यानि 192 अरब डॉलर की बिक्री दुनिया की शीर्ष 5 कम्पनियों ने की है। ये पाँचों कम्पनियाँ अमेरिका की हैं जिनका नाम क्रमश: लॉकहीड मार्टिन, रेथियॉन टैक्नोलॉजीज, बोइंग, नॉर्थरॉप ग्रुमैन, जनरल डायनॉमिक्स है। स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिपोर्ट 2022 के अनुसार इन कम्पनियों ने क्रमश: 34-60 अरब डॉलर, 41-85 अरब डॉलर, 33-42 अरब डॉलर, 29-88 अरब डॉलर और 26-39 अरब डॉलर का कारोबार एक वर्ष के अंदर किया। हथियारों के बाज़ार में अमेरिकी कम्पनियों ने ही बाजी मारी है। स्टॉकहोम इण्टरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट (सिपरी) की एक रिपोर्ट के अनुसार अमेरिका ने दुनिया भर के 103 देशों को अपने सैन्य हथियार बेचे हैं और हथियारों के वैश्विक निर्यातों में 40 प्रतिशत की हिस्सेदारी उसी की है। फिर युद्ध का सबसे अधिक फायदा किसे हुआ? स्वाभाविक रूप सेे अमेरिका और अमेरिका के भीतर अमेरिकी मिलिट्री इण्डस्ट्री को। फिर तो युद्ध अमेरिका और अमेरिकी मिलिट्री इण्डस्ट्री के फायदे में है। राइटर्स में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार अमेरिकी रक्षा मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार अमेरिका द्वारा विभिन्न देशों को बेचे गये सैन्य हथियारों के मामले में वर्ष 2021-22 की तुलना में वर्ष 2022-23 में 49 प्रतिशत की वृद्धि हुई और कुल निर्यात 205 अरब डॉलर का हुआ। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि ऊपर वर्णित केवल 5 अमेरिकी कंपनियों (अर्थात लॉकहीड मार्टिन, रेथियॉन टैक्नोलॉजीज़, बोइंग, नॉर्थरॉप ग्रुमैन और जनरल डायनॉमिक्स) ने 192 अरब डॉलर का कारोबार किया।
सुरक्षा के समाजशास्त्र, रक्षा के राजनीतिशास्त्र और बाज़ार के अर्थशास्त्र में एक ऐसा संबंध है जो कभी किसी का साथ नहीं छोड़ता। इन तीनों का अंतिम लक्ष्य भले ही बाज़ारवादी मुनाफा हो लेकिन इसका मुख्य साधन युद्ध ही होता है। इसे समझने के लिये थोड़ा बैकफ्लैश में जाना होगा। 9/11 की घटना के बाद वर्ष 2001 में अमेरिका की तरफ से एक रिपोर्ट जारी हुई थी। इस रिपोर्ट में राज्य प्रायोजित आतंकवाद संबंधी अध्याय भी शामिल किया था, जिसमें दुष्ट राष्ट्रों को परिभाषित किया गया था। 29 जनवरी 2002 को तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने ‘स्टेट ऑफ द यूनियन’ भाषण में पहली बार ‘पाप की धुरी’ (एक्सिस ऑफ एविल) शब्द का प्रयोग किया जो मूलत: ईरान, इराक और उत्तर कोरिया के लिये था। इन राष्ट्रों के विषय में यह अवधारण विकसित की गयी थी कि ये राज्य परंपरागत सैनिक रणनीतियों के तहत अमेरिकी मार नहीं झेल सकते इसलिये दुश्मन को नाकामयाब करने के लिये उस पर हमला करने के लिये ‘विषम साधन’ (असिमिट्रिक मीन्स) अपना सकते हैं। इन साधनों में सूचना, संहारक शस्त्रों का प्रयोग और आतंकवाद शामिल हैं। इसलिये उन्हें यह शंका सताने लगी कि इन ‘पापी राष्ट्रों’ द्वारा आतंकवाद को सक्रिय सहायता देने और आतंकवादियों को जन-विनाशक अस्त्र-शस्त्रों की आपूर्ति करने से कहीं आतंकवाद एक विकरालरूप धारण न कर ले गया अथवा ‘सुपर टेररिज़्म’ में परिवर्तित न हो जाए। इसलिये इन्हें निशाना बनाया गया। हो सकता है, यह उचित हो अथवा यह भी हो सकता है कि अनुचित लेकिन यह बात समझ से परे रही कि अमेरिका की नज़र में उस समय पाकिस्तान ‘एक्सिस ऑफ एविल’ बनने से बचा रहा। इसका मतलब तो यही हुआ कि अमेरिका को आतंकवाद को पूरी तरह से खत्म नहीं करना था बल्कि नए युद्ध लड़ने के लिये नए रास्ते तलाशने थे।
ध्यान रहे कि मिलिट्री इण्डस्ट्रियल काम्प्लेक्स के लिये अनिवार्य थे (अभी भी हैं)। यह वही मिलिट्री इण्डस्ट्रियल काम्प्लेक्स है जिसका संदर्भ लेते हुए वर्ष 1960 में केनेथ गॉलब्रेथ ने कहा था कि मिलिट्री इण्डस्ट्री और सशस्त्र सेनाएँ निर्णय लेकर अमेरिकी संसद और जनता को उनकी सूचना मात्र देती हैं। मतलब यह हुआ कि निर्णय लेने की वास्तविक शक्ति व्हाइट हाउस या कॉन्ग्रेस (अमेरिकी संसद) जैसे लोकतंत्रीय संस्थाओं में नहीं है बल्कि मिलिट्री-इण्डस्ट्रियल कॉम्प्लेक्स के पास है। ध्यान रहे कि इस मिलिट्री-इण्डस्ट्रियल कॉम्प्लेक्स को युद्धों की आवश्यकता सदैव बनी रहती है। अगर युद्ध बंद हो गये या असुरक्षा का वातावरण समाप्त हो गया तो हथियारों की मांग खत्म हो जाएगी और यदि हथियारों की मांग समाप्त हो गयी तो मिलट्री-इण्डस्ट्री खतरे में पड़ जाएगी। इसलिये असुरक्षा का वातावरण जितना अधिक होगा अथवा लघु या वृहत स्तर के युद्धों की पुनरावृत्ति जितनी अधिक होगी, हथियारों की मांग उतनी ही ज़्यादा होगी। हथियारों की जितनी मांग बढ़ेगी उतना ही मिलट्री इण्डस्ट्री को मुनाफा होगा और अंतत: यह मुनाफा अमेरिका की राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को मज़बूत करेगा। स्वाभाविक रूप से अमेरिका की मिलिट्री इण्डस्ट्री का लाभांश और अमेरिका की राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की मज़बूती व्हाइट हाउस में बैठे सत्ताधारी को भी बड़ा चौधरी बने रहने में मदद करती रहेगी। अब तो शंका शेष नहीं रह जानी चाहिए कि युद्ध आवश्यक क्यों हैं?
अगर 9/11 के कुछ पहले और कुछ बाद की बाज़ार की कुछ गतिविधियों पर नज़र डालें तो सच पर पड़ी हुई कुछ धुंध और साफ हो जाएगी। हो सकता है कि यह प्रश्न भी मन आया हो कि 9/11 के लिये असल में कौन ज़िम्मेदार था? उल्लेखनीय है कि जॉर्ज बुश जूनियर जब पहली बार राष्ट्रपति का चुनाव लड़े और फ्लोरिडा के चुनाव परिणामों को लेकर कुछ विवाद हुआ तो उसके बाद जॉर्ज डब्ल्यू. बुश को पूरी दुनिया ने व्हाइट हाउस का एक अनिश्चित उत्तराधिकारी का रूप देखा। लेकिन 11 सितम्बर 2001 यानि 9/11 की घटना के सिर्फ सौ दिन बाद ही राष्ट्रपति बुश के नेतृत्व में अमेरिका यह साबित करने में सफल हो गया कि जॉर्ज बुश दुनिया के सबसे ताकतवर सत्ताधारी हैं। दरअसल यह सब खेल मिलिट्री इंडस्ट्रियल काम्प्लेक्स का था जिसके विषय में प्रो. जॉन केनेथ गॉलब्रेथ 1960 के दशक में ही लिख चुके थे। 11 सितम्बर की घटना ने इस बात को एक बार फिर सिद्ध किया। उल्लेखनीय है कि ट्विन टावरों के विध्वंस के बाद जिस दिन वॉल स्ट्रीट स्टॉक मार्केट खुला तो जिन कुछ कम्पनियों के शेयरों के मूल्यों में उछाल देखा गया था वे बड़े सैन्य ठेकेदार थे, जैसे लॉकहीड मार्टिन, एलियेंट टेक सिस्टम, नार्थरॉप ग्रुमैन, रेथियॉन टैक्नोलॉजीज और बोइंग। अमेरिकी सेना के सबसे बड़े आपूर्तिकर्ता लॉकहीड मार्टिन के शेयर मूल्यों में आश्चर्यजनक रूप से 30 प्रतिशत की वृद्धि हो गयी थी। 11 सितम्बर के बाद छह सप्ताह के अंदर टेक्सॉस में मुख्य प्लांटवाली इस कंपनी ने इतिहास में उस समय तक के सौंदों में सबसे बड़ा सैन्य आर्डर प्राप्त कर लिया था- एक नया लड़ाकू विमान विकसित करने के लिये 200 बिलियन डॉलर का ऑर्डर। अब आप प्रश्न कीजिए कि यदि 9/11 की घटना न हुई होती तो भी क्या लॉकहीड मार्टिन इतना बड़ा सौदा एक ही दिन में कर पाती?
बहरहाल 7 अक्तूबर 2023 को इज़राइल की धरती पर हमास ने जो भी किया, उस पर एक बार ऐसे विचार करें कि आखिर कैसे हमास के 2000 आतंकी ज़मीन और हवा से इज़राइल की सीमा में प्रवेश कर गए? इज़राइल में घुसकर उन्होंने लगभग 1400 लोगों को मारा और 200 लोगों को बंधक बना लिया। फिर दुनिया की सबसे दक्ष और खूंखार खुफिया एजेंसियों में शामिल ‘मोसाद’ कहाँ सो रही थी? राष्ट्रवाद के नाम पर देश का नया इतिहास रच रहे प्रधानमंत्री नेतन्याहू किस दुनिया में रह रहे थे? इसका तात्पर्य यह नहीं कि 7 अक्तूबर की घटना स्वीकार्य के दायरे में आ जाएगी। नहीं, वह पूर्णतया अस्वीकार्य है और हमास पर इज़राइल द्वारा की गयी कार्रवाई पूरी तरह से उचित। लेकिन इस प्रतिक्रियावादी कार्रवाई में हमास के नेता और सैनिक कितने मारे गये और गाजा के आम नागरिक कितने? एक प्रश्न यह भी है कि पर्सियन वर्ल्ड (फारसी अथवा शिया विश्व) और अरब वर्ल्ड (अरब दुनिया), इस समय कहाँ पर खड़े हैं यानि युद्ध के साथ अथवा शांति के साथ?
जो भी हो, इस क्रिया और प्रतिक्रिया अथवा युद्ध और प्रतियुद्ध का अंत कहाँ है, पता नहीं। परंतु इसका पता चलने से पहले ज़रूरी होगा दुनिया के नेताओं से लेकर विचारकों तक दृष्टिकोण यथार्थिक हो। वे वास्तविकता को देखने का सम्यक (राइट) दृष्टिकोण अपनाने की सामर्थ्य हासिल कर लें। यहाँ पर क्वांटम वैज्ञानिक डेविड बॉम की वह बात याद आती है जिसमें उन्होंने बताया था कि वास्तविकता एक ही होती है लेकिन वह अलग-अलग कोण से देखने पर भिन्न दिखायी देती है। फिलहाल अभी तो ऐसे नज़रिए की ज़रूरत है जो वास्तविकता को देख सके। फिर उसे स्वीकार कर सके।
रईस सिंह.
लेखक अंतर्राष्ट्रीय मामलों के जानकार हैं।