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दृष्टि आईएएस ब्लॉग

क्या है अकादमिक तनाव, और इसका हल क्या हो?

हाल ही में सोशल मीडिया में एक तस्वीर तैरती दिखी, जिसे कोटा के किसी छात्रावास का बताया गया। उसमें पंखे के नीचे जाली लगायी गयी थी ताकि कोई छात्र आत्महत्या न कर ले। सोशल मीडिया की तस्वीरों पर तो भरोसा नहींं किया जा सकता, लेकिन यह तस्वीर भयावह है। कुछ वर्ष पहले कुछ प्रामाणिक खबर छपी थी कि कोटा छात्रावासों के पंखों में एक ऐसा गुप्त सेंसर लगेगा जिससे पंखे पर बीस किलो से अधिक वजन लटकाना असंभव होगा। लेकिन, क्या वाकई ऐसे सेंसर लगाने से आत्महत्या रुक जाएगी? हम कहाँ-कहाँ और किस-किस पर सेंसर लगा देंगे? न पंखों का आविष्कार आत्महत्या करने के लिए हुआ, और न ही यह आत्महत्या की कोई इकलौती तरकीब है।

मेडिकल कॉलेज छात्रावास में हमने लगभग हर वर्ष आत्महत्यायें देखी। उनमें अधिकांशतः प्रथम और द्वितीय वर्ष के विद्यार्थी शामिल थे, जो कठिन परीक्षा उत्तीर्ण होकर पहुँचे थे। ऐसे पढ़ाकू विद्यार्थियों पर आख़िर ऐसा क्या दबाव आ गया कि वे आत्महत्या करने लगे? एक फ़िल्म यूट्यूब पर उपलब्ध है- प्लैसिबो। उसमें भारत के शीर्ष संस्थान AIIMS के विद्यार्थियों के आत्महत्या की पड़ताल की गयी है। ये ऐसे विद्यार्थी हैं, जो भारत की कठिनतम परीक्षाओं में से एक में उत्तीर्ण होकर पहुँचे। वे आला दर्जे के चिकित्सा संस्थान में हैं, जहाँ मनोवैज्ञानिक और मनोचिकित्सक मौजूद हैं, लेकिन फिर भी ऐसी खबरें आती रहती है। आख़िर वहाँ कौन सा सेंसर काम करेगा, जहाँ विद्यार्थी शरीर और मस्तिष्क का ही अध्ययन करते है।

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ज़ाहिर है कि हम समस्या की जड़ों तक नहींं पहुँच रहे। मानसिक स्वास्थ्य पर बातें तो होती है, मगर इसे हम स्वीकारते नहीं। घटनाएँ अख़बार की सुर्ख़ियाँ बटोर कर रह जाती है। कभी-कभी वह भी नहींं। आख़िर कितनी ख़बरें छपेंगी? 2013 की एक रपट के अनुसार 25 वर्ष से कम उम्र के 62,960 भारतीयों ने उस वर्ष आत्महत्या की थी!

इस आँकड़े से समझा जा सकता है कि हम कितनी बड़ी समस्या की बात कर रहे हैं। यह पंखे पर जाली या सेंसर लगाने से नहींं हल होगी।

खैर, आत्महत्या तो एक गंभीर मुद्दा है और उसे हम मात्र परीक्षा के दबाव तक नहींं सीमित रख सकते। जो चीज अधिक आम है और लगभग हर तीसरा विद्यार्थी या युवक जिससे गुजरता है, वह है तनाव (स्ट्रेस)। तनाव का दायरा बड़ा है। एक कठिन सवाल या किसी हमउम्र साथी के दो अंक अधिक आ जाना भी किसी को तनाव में डाल सकता है। भले यह अवसाद (डिप्रेशन) का रूप न ले या क्षणिक हो। शाम की तनाव सुबह तक ख़त्म हो जाए। लेकिन, तनाव अगर बढ़ता चला जाए, तो वह अवसाद बन सकता है और पूरे व्यक्तित्व को बदल सकता है।

इस विषय के विशेषज्ञों की राय को मैं कुछ सरल शब्दों में रखने का प्रयास करता हूँ। तनाव के कई कारक हैं, लेकिन हम यहाँ मात्र अकादमिक तनाव (Academic stress) की बात कर रहे हैं। अकादमिक तनाव के क्या-क्या रूप हैं?

पहला रूप है - अकादमिक निराशा (Frustration)। जैसे परीक्षा का परिणाम आया, और विद्यार्थी असफल हो गए। पूरे वर्ष कड़े परिश्रम के बाद भी नहींं चुने गए। बल्कि उनसे कम परिश्रम करने वाला और अन्यथा कम अंक लाने वाला विद्यार्थी चुन लिया गया। फ़र्ज़ करिए कि वह ख़ास मित्र हो, जिससे कमरे में मुलाक़ात होने वाली हो। अमूमन कई विद्यार्थी ऐसी परिस्थिति में अपने मित्र को बधाई देते हैं, और अपनी नियति स्वीकार कर लेते हैं। लेकिन कुछ ऐसा भी कर सकते हैं कि अपने कमरे में बंद हो जाएँ, या सबसे नज़रें बचा कर कहीं दूर निकल जाएँ। वे इस निराशा के तनाव से जूझ रहे होते हैं।

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दूसरा रूप है- अकादमिक संघर्ष (Conflict)। जैसे हम पढ़ने के तरीके, परीक्षा उत्तीर्ण करने का जादुई फ़ार्मूला ढूँढ रहे होते हैं। कौन सी किताब पढ़ी जाए? किस संस्थान में पढ़ें? अंग्रेज़ी माध्यम से परीक्षा दें या हिंदी माध्यम से? एक ही प्रश्न को किस तरह से हल करना बेहतर होगा? दिनचर्या कैसी हो? रूटीन बदलना फ़ायदेमंद होगा? मोबाइल उठा कर फेंक दूँ तो समय बचेगा? ये तमाम सवाल हर विद्यार्थी के मन में होते हैं। ये मन के अंदर चल रही ऐसी उधेड़बुन है, जो एक सरल रेखा नहीं है। कोई जादुई रास्ता मौजूद नहीं है। हर व्यक्ति के लिए अलग-अलग परिस्थितियाँ हैं, और तनाव के स्तर भी भिन्न हैं।

तीसरा रूप है- अकादमिक चिंता (Anxiety)। यह एक तरह का भय है कि अगर नहींं उत्तीर्ण हुए तो क्या होगा? कहाँ मुँह दिखाऊँगा? घर वाले कितने परेशान होंगे? खर्च कैसे चलेगा? प्रेमी कहीं साथ तो नहींं छोड़ देंगे? यह भी हर व्यक्ति के परिवेश के हिसाब से भिन्न होगा। ऐसे कई भारतीय विद्यार्थी हैं जिन पर पारिवारिक दबाव बहुत अधिक होता है। उनके लिए परीक्षा व्यक्तिगत नहींं, सामूहिक चिंता होती है। उन्हें मात्र अपनी ही नहींं परिवार के तनाव की भी चिंता होती है। यह गुणात्मक रूप से बढ़ता चला जाता है, और आत्महत्या के मुख्य कारणों में से एक बनता है।

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चौथा रूप है- अकादमिक दबाव (pressure)। जैसे- हमारे पास समय कम है और एक मोटी किताब रिवाइज करनी है। आधे घंटे से कुछ याद करने की कोशिश हो रही हो, और बार-बार भूल जा रहे हों। एक कंसेप्ट बिल्कुल ही नहींं समझ आ रहा और कोई मदद करने वाला नहींं। एक विषय में अधिक दिक्कत आ रही है। अंग्रेज़ी समझ नहींं आ रही, अगर हिंदी में मिल जाए, तो जल्दी समझ आ जाए। ऐसे तमाम दबाव विद्यार्थियों पर होते हैं। बल्कि ऊपर जिस एम्स पर बनी वृत्तचित्र का जिक्र किया है, वहाँ जब एक हिंदी माध्यम के छात्र को अचानक अंग्रेज़ी माध्यम की मोटी किताबें पढ़ना कठिन हो जाता है। तब वह आत्महत्या का रास्ता चुनता है।

इन चार रूपों में अकादमिक तनाव परिभाषित हो जाता है। इसमें कई अन्य कारक जोड़े जा सकते हैं, जो अकादमिक दुनिया से इतर हों। जैसे प्रेम-संबंध, परिवार पर आए संकट, किसी रोग की वजह से कुछ महीने नहींं पढ़ पाना, संसाधनों की कमी, समय बर्बाद करने वाले मित्रों की संगति होना, पड़ोस में लाउडस्पीकर बजना, सोशल मीडिया पर किसी से विवाद हो जाना आदि।

अब इनका हल क्या हो?

हल तो तभी निकलेगा जब समस्या पता चलेगी। अगर कोई तनाव में है तो इसे स्वीकारे और मनोवैज्ञानिक की मदद ले। पश्चिमी दुनिया में यह आम है कि स्कूली बच्चे भी मनोचिकित्सक की काउंसलिंग ले रहे होते हैं। उनसे यह रिश्ता लंबा चलता है। ऐसे कई लोग हैं जो अन्यथा तनाव-मुक्त लगते हैं, लेकिन वे नियमित रूप से मनोवैज्ञानिक से मिलते हैं। इसे उलट कर भी पढ़ा जा सकता है- चूँकि वे मनोवैज्ञानिक से नियमित मिलते हैं, वे तनाव-मुक्त रहते हैं।

लेकिन भारत में यह हर जगह फ़िलहाल संभव नहींं। प्रशिक्षित मनोवैज्ञानिक मिलने कठिन हैं, जो अकादमिक तनाव के विशेषज्ञ हों। धीरे-धीरे जब माहौल बनेगा, तनाव के लिए लोग विमर्श तलाशेंगे तो विशेषज्ञ भी अधिक उपलब्ध होते जाएँगे।

Solution

एक सुझाव जो विशेषज्ञ अक्सर देते हैं कि विद्यार्थी अपने लिए प्रतिदिन छोटे लक्ष्य रखें। ऐसे लक्ष्य जो प्राप्त किए जा सकें। जैसे- अमुक अध्याय कल पढ़ना है। यह लक्ष्य प्राप्त करना दो चीजें करेगा- पहला कि उन्हें संतुष्टि मिलेगी, दूसरा कि तनाव का स्तर घटा देगा। लेकिन अगर यह लक्ष्य नहींं पूरा हुआ तो? अध्याय नहींं पढ़ सके तो क्या करेंगे? अगर यह नियमित हो रहा है, तो लक्ष्य घटा सकते हैं। अगर यह संयोगवश हुआ, तो इस लक्ष्य को पूरा कर नए लक्ष्य की तरफ़ बढ़ेंगे। हर दिन कुछ-न-कुछ ऐसी योजना हो, ताकि दिमाग सक्रिय रहे।

दूसरा सुझाव है कि अकादमिक दिनचर्या से इतर तनाव घटाने के रास्ते तलाशें। जैसे योगाभ्यास, संगीत सुनना या सीखना, फ़िल्म देखना, खेलना, चित्रकला, फ़ोटोग्राफ़ी, घूमना-फिरना आदि। ऐसा समय ज़रूर निकालें जब वह अकादमिक किताबें पढ़ने के अतिरिक्त कुछ कर रहे हों। यह जीवन में आगे भी मददगार होगा।

तीसरा सुझाव है कि आत्मावलोकन अधिक करें, और दूसरों से तुलना कम करें। हम अपनी सीमाओं को और अपने कौशल को समझें। एक अरबपति को कहते हुए सुन रहा था कि हम भी सुबह उठते हैं तो उसी तरीके से पतलून पहनते हैं, जैसे अन्य लोग। हर व्यक्ति अपने-आप में सक्षम है। अंतर बस यह है कि कोई अपनी क्षमताओं पर अधिक ध्यान देता है, और कोई दूसरों को देखता रह जाता है।

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चौथा सुझाव है कि सकारात्मक संगति रखें। तनाव और अवसाद से घिरे लोगों के बीच भी तनाव हो जाता है। यह कुछ हद तक संक्रामक है। यह ठीक है कि दुनिया में सब कुछ अच्छा ही नहींं हो रहा, और यथार्थ में जीना चाहिए। लेकिन जो अच्छा हो रहा है, वह भी तो यथार्थ ही है। उसे क्यों किनारे रख दें? जो अच्छा नहींं हो रहा, उसे बेहतर करने के प्रयास भी तो होते रहते हैं या किए जा सकते हैं।

आखिरी सुझाव है कि जीवन का अनुशासन हो। इसका अर्थ यह नहींं कि आदमी हर रोज एक ही समय उठे, एक ही चीज पढ़े, एक ही रूटीन से चले। ऐसे तो मामला नीरस हो जाएगा। अनुशासित का यहाँ अर्थ कुछ भिन्न है। चीजें अगर बिखरी हुई हो, तो भी वह अनुशासित हो। इसे अंग्रेज़ी में आर्गनाइज्ड केओस कह सकते हैं। जैसे तांगे में लगा घोड़ा जब दौड़ता है, तो वह एक ही दिशा में देख रहा होता है। लेकिन घोड़ा जब दौड़ता है तो वह हर तरफ़ देखते हुए सरपट दौड़ रहा होता है। अपनी मर्जी से रुकता है, छलाँग मारता है, दोनों पैर उठा कर हुंकारता है। उसका अनुशासन उसकी परिस्थितियों के हिसाब से बना है, किसी भेड़-चाल या चाबुक की मार से नहींं।

  प्रवीण झा  

लेखक नॉर्वे में डॉक्टर हैं तथा संगीत पर लोकप्रिय पुस्तक 'वाह उस्ताद' के लेखक हैं।

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