कश्मीर और जूनागढ़ के विलय की कहानी
- 03 May, 2024 | संजय श्रीवास्तव
1947 में विभाजन से पहले अविभाजित भारत में करीब 584 रियासतें थीं। जिनका कामकाज राजा देखते थे। इसके लिए अंग्रेजों के साथ उनका एक खास करार था। ये रियासतें 40 फीसदी क्षेत्र और 23 फीसदी आबादी को कवर करती थीं। जब अंग्रेजों ने ये फैसला किया कि वो देश को आजादी तो दे देंगे लेकिन ये देश दो देशों में बंट भी जाएगा, तब उन्होंने सभी रियासतों कि विकल्प दिया कि वो अपनी भौगोलिक स्थिति और आबादी की इच्छानुसार भारत या पाकिस्तान में किसी में विलय कर लें। तब नए बनने वाले भारत में 562 रियासतें आ रही थीं। उनमें से 559 में किसी तरह भारत में विलय स्वीकार कर लिया। तीन रियासतों को भारत में मिलाना खासा मुश्किल साबित हुआ। हैदराबाद, कश्मीर और जूनागढ़ – जिसके लिए भारत को सेना का किसी ना किसी रूप में सहारा लेना पड़ा।
हैदराबाद में निजाम का शासन था। वहां सेना की कार्रवाई के बाद उसे भारत में मिलाया गया। हम यहां उन दो रियासतों की बात कर रहे हैं, जिनकी भौगोलिक सीमाएं पाकिस्तान से छूती थीं। लेकिन उनके यहां हालात अलग-अलग थे।
भारत की आजादी की घोषणा होते ही जम्मू और कश्मीर के महाराजा हरिसिंह ने स्वाधीनता की घोषणा कर दी। उन्होंने कहा कि कश्मीर न तो भारत में मिलेगा और न ही पाकिस्तान। हम दोनों देशों के बीच एक अलग देश होंगे।
हरिसिंह 1925 में कश्मीर की गद्दी पर बैठे थे। वह अपना अधिकांश समय बंबई के रेसकोर्स और अपनी रियासत के बड़े जंगलों में शिकार पर बिताया करते थे। कश्मीर में उनके सबसे बड़े विरोधी शेख अब्दुल्ला थे। उनका जन्म एक शॉल बेचने वाले व्यापारी के घर पर हुआ था। उन्होंने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से एमएससी की थी। पढ़ने में कुशाग्र और शानदार वक्ता थे। उन्हें अपनी बातें तर्कों व तथ्यों के साथ रखनी आती थी। जब उन्हें तमाम योग्यताओं के बावजूद नौकरी नहीं मिली तो उन्होंने एक प्राइवेट स्कूल में टीचर की नौकरी शुरू की। चूंकि कश्मीर रियासत में प्रशासन में बहुसंख्यकों का बोलबाला था इसलिए उन्होंने सवाल उठाना शुरू किया कि इस सूबे में अल्पसंख्यकों के साथ ऐसा सलूक क्यों हो रहा है।
1932 में उन्होंने महाराजा के खिलाफ बढ़ रहे असंतोष को आवाज देने के लिए ऑल जम्मू-कश्मीर मुस्लिम कांफ्रेंस का गठन किया। छह साल के बाद उन्होंने इसका नाम बदलकर नेशनल कॉन्फ्रेंस रख लिया, जिसमें हिंदू और सिख समुदाय के लोग भी शामिल होने लगे। इसी समय अब्दुल्ला ने जवाहरलाल नेहरू से भी नजदीकी बढ़ाई। दोनों हिंदू-मुस्लिम एकता और समाजवाद पर एकमत थे। नेशनल कॉन्फ्रेंस और कांग्रेस में नजदीकियां होने लगीं। 1940 के दशक में अब्दुल्ला कश्मीर के सबसे लोकप्रिय नेता बन चुके थे। कई बार वह जेल में भी गये। आजादी से पहले अब्दुल्ला ने कश्मीर में राजतंत्र की जगह प्रजातंत्र लाने के लिए आंदोलन शुरू किया। इसके लिए उन्हें जेल में डाल दिया गया।
महाराजा के मन में स्वतंत्र होने का विचार जड़ जमा चुका था। वह कांग्रेस से नफरत करते थे, इसलिए भारत में शामिल होने के बारे में सोच भी नहीं सकते थे। लेकिन अगर वो पाकिस्तान में शामिल हो जाते तो उनके हिंदू राजवंश का सूरज अस्त हो जाता। 27 सितम्बर 1947 को नेहरू ने पटेल को कश्मीर की खतरनाक और बिगड़ती हुई स्थिति के बारे में लंबा पत्र लिखा। उन्हें खबर मिली थी कि पाकिस्तान बड़ी संख्या में कश्मीर में घुसपैठियों को भेजना चाहता है। इस दौरान 25 सितम्बर 1947 को महाराजा ने शेख अब्दुल्ला को जेल से रिहा कर दिया गया था।
जहां तक महाराजा हरिसिंह का सवाल है तो वो अब भी आजाद कश्मीर के ख्वाब में जी रहे थे। 12 अक्टूबर को जम्मू कश्मीर के उप प्रधानमंत्री ने दिल्ली में कहा कि हम भारत और पाकिस्तान दोनों के साथ दोस्ताना संबंध कायम रखना चाहते हैं। महाराजा की महत्वाकांक्षा कश्मीर को पूरब का स्विट्जरलैंड बनाने की है। एक ऐसा मुुल्क जो बिल्कुल निरपेक्ष होगा। उन्होंने आगे कहा कि केवल एक ही चीज हमारी राय बदल सकती है और वो ये है कि अगर दोनों देशों में कोई भी हमारे खिलाफ शक्ति का इस्तेमाल करता है तो हम अपनी राय पर पुनर्विचार करेंगे। इन शब्दों के बोले जाने के केवल दो हफ्ते बाद ही हजारों हथियारबंद कबायलियों ने राज्य पर उत्तर दिशा से हमला कर दिया। 22 अक्टूबर को वो उत्तर पश्चिमी सीमा प्रांत और कश्मीर के बीच की सरहद को पार कर गए और तेजी से राजधानी श्रीनगर की ओर बढ़े। इन हमलावरों में ज्यादातर पठान थे, जो उस इलाके से आए थे जो अब पाकिस्तान का हिस्सा बन गया है। इन कबायली विद्रोहियों ने बारामूला में बड़ा उत्पात मचाया। लूटपाट की और महिलाओं और लड़कियों से दुष्कर्म किया। 24 अक्टूबर को महाराजा ने भारत सरकार को सैनिक सहायता का संदेश भेजा। अगले दिन दिल्ली में भारत की सुरक्षा समिति की बैठक हुई और वीपी मेनन को जहाज से तुरंत श्रीनगर रवाना किया गया। उन्होंने श्रीनगर में महाराजा से मुलाकात करने के बाद उन्हें हमलावरों से सुरक्षित जम्मू जाने की सलाह दी।
नेहरू पाकिस्तान के कबायलियों से मुकाबले के लिए भारतीय सेना को फौरन कश्मीर भेजना चाहते थे। माउंटबेटन ने उन्हें ऐसा करने से मना कर दिया। उन्होंने महाराजा से पहले विलय के कागजों पर दस्तखत करा लेने को कहा। उनका साफ कहना था कि बिना कानूनी विलय के वह ब्रिटिश अफसरों को भारतीय सेना के साथ नहीं जाने देंगे। 26 अक्टूबर को वीपी मेनन को जम्मू में महाराजा के पास फिर से भेजा गया। वहां मेनन से उनसे विलय पत्र पर दस्तखत कराए और दिल्ली आ गए। जैसे ही ये कानूनी कार्यवाही पूरी हुई नई दिल्ली ने माउंटबेटन की हिचकिचाहट की परवाह किए बगैर भारतीय सैनिकों से भरे विमान श्रीनगर भेजने शुरू कर दिए। तब तक हमलावर श्रीनगर से कुछ ही दूरी पर रह गए थे। जब भारतीय जवानों का पहला जत्था श्रीनगर हवाई अड्डे पर पहुंचा तो हमलावर हवाई अड्डे की सरहद तक आ पहुंचे थे। अगर कबायलियों ने बारामूला में लूटपाट और औरतों के साथ दुष्कर्म में समय बर्बाद नहीं किया होता तो वो हवाई अड्डे पर कब्जा कर चुके होते और भारतीय विमानों को वहां उतारना मुश्किल हो जाता।
गांधी जी ने भी सेना की कार्रवाई का समर्थन किया और कहा कि अगर किसी समुदाय की रक्षा करने में कायरता आड़े आ रही हो तो उसे बचाने के लिए लड़ाई का सहारा लेना कहीं बेहतर था। इसके बाद भारत ने उरी तक के क्षेत्र से कबायलियों को खदेड़ते हुए इसे अपने कब्जे में ले लिया। कश्मीर को लेकर दोनों देशों में तनातनी चरम पर थी। ये तब तक जारी रही जब पाकिस्तान के प्रधानमंत्री लियाकत अली संयुक्त सुरक्षा समिति की बैठक में भाग लेने के लिए दिल्ली आए थे। वह और नेहरू इस बात पर सहमत हो गए थे कि पाकिस्तान कबायलियों को लड़ाई बंद करके जल्दी से जल्दी वापस लौटने के लिए कहेगा और भारत भी अपनी ज्यादातर सेनाएं हटा लेगा और संयुक्त राष्ट्र को जनमत संग्रह के लिए एक कमीशन भेजने के लिए कहा जाएगा। माउंटबेटन की सलाह से ही भारत इस मामले को संयुक्त राष्ट्र में ले गया था। ये एक बड़ी भूल साबित हुई। बहुत से भारतीय नेता इस मामले को संयुक्त राष्ट्र में ले जाने के पक्ष में नहीं थे, क्योंकि उन्हें आशंका थी कि ब्रिटेन पाकिस्तान का साथ देगा। यही हुआ भी। अमेरिका और ब्रिटेन ने मिलकर कश्मीर में अब्दुल्ला सरकार को हटाए जाने और जनमत संग्रह होने तक कश्मीर को संयुक्त राष्ट्र के नियंत्रण में लाए जाने की मांग की।
अब आइए जूनागढ़ की बात करते हैं। जहां शासक तो मुसलमान था लेकिन अधिसंख्य आबादी हिंदू, जो भारत में मिलना चाहती थी। जूनागढ़ में नवाब मुहम्मद महाबत खान और दीवान शाह नवाज भुट्टो की मंशा हिन्दू बहुसंख्यक आबादी के बावजूद पाकिस्तान में विलय की थी। मोहम्मद अली जिन्ना ने उन्हें पाकिस्तान में विलय के लिए बड़े-बड़े सपने दिखाए थे। जिन्ना पेपर्स के अनुसार जूनागढ़ के दीवान और जुल्फिकार अली भुट्टो के पिता शाह नवाज ने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री लियाकत अली खान को 19 अगस्त को पत्र लिखा, “हम जूनागढ़ के पाकिस्तान में मिलाए जाने के लिए औपचारिक स्वीकृति का इंतजार कर रहे हैं और मुझे खुशी होगी कि अगर आप इसे जल्दी से जल्दी अमलीजामा पहना सकें।”
इस मामले में देरी होते देख उन्होंने चार सितंबर को जिन्ना को फिर दिल्ली में उनके द्वारा किए गए वादे को याद दिलाते हुए पत्र लिखा, पाकिस्तान नहीं चाहेगा कि जूनागढ़ उससे छिटके और वेरावल कराची से बहुत ज्यादा दूर नहीं है। जिन्ना ने जवाब दिया, कल हम कैबिनेट मीटिंग में इस बारे में विचार विमर्श करेंगे और तय नीति बनाएंगे।
पाकिस्तान ने आठ सिंतबर को पाकिस्तान-जूनागढ़ समझौते की घोषणा की, जिसमें ये कहा गया था कि जूनागढ़ के शासक पाकिस्तान में विलय को तैयार हैं। नेहरू ने इसका विरोध करते हुए 12 सितंबर को लियाकत अली खान को पत्र लिखा और कहा कि चूंकि जूनागढ़ की 80 फीसदी आबादी हिन्दू है और इस बारे में रायशुमारी करके उनकी राय नहीं ली गई है, लिहाजा ये मामला जूनागढ़ के लोगों की सहमति के बगैर कदम उठाए जाने का है। भारत सरकार इस तरह से जूनागढ़ के पाकिस्तान में विलय को सहमति नहीं देगी। इस विलय का भी कोई संवैधानिक आधार नहीं बनता। ये मामला जूनागढ़ और भारत के बीच बनता है। इसके बावजूद 15 सितंबर 1947 को जूनागढ़ ने पाकिस्तान के साथ विलय को औपचारिक तौर पर स्वीकार कर लिया। बस इसके बाद भारतीय फौजों की रवानगी शुरू हो गई। भुट्टो को खतरा समझ में आ गया और उन्होंने 16 सितंबर को लियाकत से मदद मांगते हुए कहा, कम से कम हमें ये तो बताइए कि आप हमें किस तरह की मदद दे रहे हैं और हमें किस तरह से कार्रवाई करनी चाहिए। भारत जूनागढ़ में सैन्य कार्रवाई के लिए तैयार था। दिल्ली में केवल ये मुद्दा था कि कार्रवाई कैसे की जाए। एचवी हडसन की किताब ‘द ग्रेट डिवाइड’ के अनुसार गर्वनर जनरल माउंटबेटन ने किंग को रिपोर्ट दी कि जूनागढ़ के मामले पर विचार के लिए शाम को एक कैबिनेट मीटिंग इस पर विचार करेगी। मुझे कैबिनेट के सदस्यों ने मीटिंग से पहले सूचित किया है। वो इस फैसले पर पहुंच चुके हैं कि सैन्य कार्रवाई ही एकमात्र जवाब है। जिन्ना ने भारतीय फौजों की हलचल की शिकायत माउंटबेटन से की। माउंटबेटन ने उन्हें जो जवाब दिया, उसका सार यही था कि पाकिस्तान जो भी कर रहा है, वह भारत सरकार के साथ उसके समझौते का उल्लंघन है। उन्होंने जूनागढ़ की आबादी के इस विलय पर रायशुमारी की बात कही, जिसमें वहां की 80 फीसदी जनता भारत के साथ जाने को तैयार थी। पाकिस्तान निरुत्तर हो गया। 25 सितंबर को जूनागढ़ मुक्त करा लिया गया।
पुस्तक ‘सरदार लेटर्स’ के अनुसार, बंबई में उस दिन स्वतंत्र जूनागढ़ की अस्थाई सरकार गठित की गई। सामलदास गांधी को प्रेसीडेंट बनाया गया। इस सरकार में मंत्री बने के एम. मुंशी ने घोषणा की कि जूनागढ़ की अस्थाई सरकार सौराष्ट्र से कामकाज करेगी और राजकोट के जूनागढ़ हाउस को इसके लिए कब्जे में ले लिया गया। सौराष्ट्र के कोने-कोने से युवा स्वतंत्रता का बैनर लिए वहां जुटने लगे। अस्थाई सरकार ने कामकाज शुरू कर दिया। लोग जूनागढ़ कई इलाके में नवाब के शासन के खिलाफ खुलेआम तौर पर सामने आ गए। हालांकि पाकिस्तान सरकार अभी जूनागढ़ पर गोलमोल थी। वीपी मेनन की पुस्तक ‘इंटीग्रेशन आफ इंडिया इनस्टेड’ के अनुसार हालात और दबाव के आगे भुट्टो टूटते जा रहे थे। पाकिस्तान की ओर से कोई खास पहल होती नहीं दिख रही थी। इन्हीं सब परिस्थितियों के बीच 09 नवंबर को भारतीय फौजें जूनागढ़ में प्रवेश कर गईं। नेहरू ने औपचारिक तौर पर इसकी सूचना लियाकत अली खान को दी। 20 फरवरी 1948 को जूनागढ़ में भारत सरकार ने जनमत संग्रह कराया। इसे एक आईसीएस अफसर सीबी नागरकर की देखरेख में कराया गया। कुल 2,01,457 वोटरों में 1,90,870 ने अपने वोट डाले। पाकिस्तान के पक्ष में केवल 91 वोट पड़े। इस तरह जूनागढ़ भारत का अंग बन गया।
जूनागढ़ के नवाब ने अपनी रियासत को पाकिस्तान में मिलाने के लिए सबकुछ किया। लेकिन जब सारी चालें उल्टी पड़ने लगीं तो वह खुद पाकिस्तान भाग गए। हालांकि पाकिस्तान पहुंचने के बाद जूनागढ़ के नवाब महाबत खान बहुत पछताए। क्योंकि अब वो पाकिस्तान के किसी काम के नहीं रह गए थे और इसलिए पाकिस्तान ने उनसे सौतेला व्यवहार करना शुरू कर दिया।
उनके लिए जो प्रिवी पर्स की रकम बांधी गई, वो पाकिस्तान के प्रिंसले स्टेट के पूर्व राजाओं और नवाबों के मुकाबले कम थी। उन्हें वैसा महत्व भी नहीं मिलता था। उनके निधन के बाद पाकिस्तान में उनके वंशजों की हालत पस्त ही है। उन्हें गुजारे के तौर पर महीने का जो पैसा मिलता है, वो आज के चपरासी के वेतन से भी कम होता है अर्थात केवल 16 हजार रुपए। इसको लेकर उनके वंशज कई बार विरोध भी जता चुके हैं और इस संबंध की खबरें पाकिस्तान के मीडिया में आती रही हैं। रह-रहकर वो पाकिस्तान में मीडिया को बताने की कोशिश करते हैं कि पाकिस्तान के लिए उन्होंने कितनी बड़ी कुर्बानी दी है और ये मुल्क उन्हें किनारे कर चुका है। पाकिस्तान के कराची शहर में अब नवाब महाबत खान के जो तीसरे वंशज रह रहे हैं, उनका नाम है नवाब मुहम्मद जहांगीर खान। कुछ समय पहले उन्होंने पाकिस्तान में कहा कि अगर उन्हें पता होता कि पाकिस्तान जाने के बाद उनका मान-सम्मान सबकुछ ख़त्म हो जाएगा तो वे कभी भारत छोड़कर नहीं आते।
अब नवाब के परिवार का हाल ये है कि मौजूदा पाकिस्तान सरकार उन्हें अन्य राज परिवारों के समान न तो मान-सम्मान देती है और न ही किसी गिनती में गिनती है। खटास इस बात की भी है कि अपने जिस वजीर के उकसावे में आकर वो पाकिस्तान से भागे, उस वजीर भुट्टो का परिवार पाकिस्तान का मुख्य राजनीतिक परिवार बन गया। ये वही परिवार है, जिससे पाकिस्तान के प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो, उनकी बेटी बेनजीर भुट्टो निकले। बेनजीर का बेटा बिलावल अली भुट्टो पाकिस्तान का विदेश मंत्री रहा है और मौजूदा गठजोड़ सरकार में अहम भूमिका निभा रही पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी का प्रमुख भी।
संजय श्रीवास्तवसंजय श्रीवास्तव सीनियर जर्नलिस्ट हैं। इन्हें प्रिंट, टी.वी. और डिजिटल पत्रकारिता का 30 वर्षों से ज़्यादा का अनुभव है। ये कुल 4 किताबों का लेखन कर चुके हैं। |