ईरान में उदारवाद का उदय!
- 15 Jul, 2024 | वर्षा भम्भाणी मिर्ज़ा
ईरान हमारा सदियों पुराना मित्र रहा है। सांस्कृतिक आदान-प्रदान के आलावा ईरान से हमारे व्यापारिक रिश्तों की कहानी, ईसा से भी 600 साल पहले से शुरू हो जाती है। भारतीय कला, साहित्य, खानपान और शिल्प पर भी जबरदस्त ईरानी प्रभाव रहा है। यह वह दौर था, जब दुनिया किसी एक देश के प्रभाव तले नहीं थी और रिश्ते केवल तेल और ताकत के दम पर नहीं बनते थे। मुग़लकाल में तो प्रशासन की भाषा ही फ़ारसी रही थी। अंग्रेजों के दौर में ज़रूर ये रिश्ते उतने प्रभावी नहीं रहे क्योंकि उनकी दिलचस्पी और दृष्टि अलग कारणों से ईरान पर हो गई थी। यह मज़बूत ऐतिहासिक और सांस्कृतिक रिश्तों का ही नतीजा था कि आज भी हम ईरान से सबसे ज़्यादा तेल आयात करते हैं और चाबहार बंदरगाह परियोजना के बाद तो भारत के लिए सीधे ईरान, अफगानिस्तान और मध्य एशिया के देशों से व्यापार के रास्ते खुल जाएंगे। पाकिस्तान को किनारे कर इन देशों के लिए रास्ता बनाया गया है। पाकिस्तान ने चीन के साथ मिलकर बलूचिस्तान में समुद्र के भीतर ग्वादर बनाया है। बेहद महात्वाकांक्षी इस चाबहार बंदरगाह योजना में भारत ने बड़ा निवेश किया है। बंदरगाह के साथ भारत उस क्षेत्र में छोटे उद्योगों में निवेश भी करेगा।
भारत के लिए और बेहतर
इसी ईरान में अब एक उदारवादी व्यक्ति का उदय हो गया है जो भारत के लिए बेहतर द्विपक्षीय रिश्तों की मज़बूत वजह बनेगा। बीते जून में राष्ट्रपति इब्राहिम सईदी की हेलीकॉप्टर क्रैश में मौत और लगभग दो साल पहले एक युवती की हिजाब न पहनने को लेकर पुलिस हिरासत में मौत ने पूरी दुनिया को सकते में ला दिया था। वह भयावह समय था जब औरतों को हिजाब ना पहनने के लिए पीटा गया, पुलिस हिरासत में लिया गया और उन्हें फांसी दी गई। यह सब कट्टरपंथी और पूर्व इब्राहिम सईदी के कार्यकाल में हुआ। उन्होंने सार्वजनिक स्थानों पर कैमरे लगा कर 'मोरल पोलिसिंग' को नई धार दी थी। नए चुने गए नेता मसूद पेजेश्कियान (69) औरतों के हक़ में यकीन रखते हैं और हिजाब को पहनने या ना पहनने का फैसला उनकी मर्ज़ी पर छोड़ना चाहते हैं। वे अपने पूर्ववर्ती कट्टरपंथी नेताओं से अलग हैं। उम्मीद की जा सकती है कि ईरान में अब नए दौर की शुरूआत हो। ईरान जो कभी बेहद आधुनिक और तरक्की पसंद देश था, बीते कुछ दशकों से कट्टरपंथियों के साए में अपनी स्त्री आबादी को दोयम दर्जे का नागरिक बना चुका है और पश्चिम से उसकी लड़ाई भी दुनिया से उसे अलग-थलग कर देने वाली रही।
लगभग दो साल एक युवती महसा अमिनी को वहां की पुलिस ने हिजाब ठीक से ना पहनने के जुर्म में गिरफ्तार रखा और फिर पुलिस हिरासत में ही उसकी मौत हो गई। उसके बाद से हज़ारों महिलाएं सड़कों पर आ गईं। हॉलीवुड से भी कई एक्टर्स ने अपने बालों के एक हिस्से को काटकर इस अंदोलन को अपना समर्थन दिया। भारतीय अभिनेत्री प्रियंका चोपड़ा ने अपनी इंस्टाग्राम पोस्ट में ने लिखा था कि जो आवाज़ें सदियों की चुप्पी के बाद बोलती हैं, उन्हें चुप नहीं कराया जा सकता। वे अब ज्वालामुखी की तरह फटेंगी। प्रियंका ने लिखा था कि पितृसत्ता को यूं चुनौती देते हुए आपके साहस को सलाम है। इस दौर में यह वाक़ई दुःख और हैरानी की बात है कि एक स्त्री को अपने बाल खुले रखने के लिए इतना बड़ा दंड। ख़ुशी की बात है कि उसी ईरान ने अब अपने तंग दिमाग वाले सियासतदानों को जवाब दे दिया है। पेशे से हार्ट सर्जन डॉ मसूद पेजेश्कियान उदार विदेश नीति, सामाजिक मुद्दों और परमाणु समझौते के पक्षधर हैं। नए राष्ट्रपति पेजेश्कियान ने तत्कालीन ईरानी हुकूमत का विरोध किया था, जब सलमान रुश्दी की किताब ‘द सैटनिक वर्सेज’ (शैतान की आयतें) के विरोध में लेखक के ख़िलाफ़ मौत का फ़तवा जारी कर दिया गया था। उन्होंने महिलाओं से जुड़े कानूनों को उदार बनाने, इंटरनेट फ्री करने और दुनिया में शांति लाने जैसे मुद्दों पर चुनाव लड़ा, जबकि पूर्व राष्ट्रपति इब्राहिम सईदी और ईरान के सुप्रीम लीडर के बेहद करीबी माने जाने वाले सईद जलीली (58) दोनों ही कट्टरपंथ की सियासत के हिमायती रहे। जलीली से दस फीसदी से ज़्यादा वोट पेजेश्कियान को मिले। यूं पेजेश्कियान को पहले चरण के चुनाव में कोई बढ़त हासिल नहीं हुई थी, मतदान भी 40 फीसदी से कम था। चुनाव जीतने के लिए प्रत्याशी को 50 फीसदी मतों का मिलना ज़रूरी है। इसके बाद पेजेश्कियान की शहरी मतदाताओं से की गई अपील ने उन्हें घरों से बाहर निकाला और नतीजों में जबरदस्त बदलाव आया।
जब ईरान में आया था इंकलाब
बेशक नतीजे बेहद उत्साह जनक हैं। खासकर उस इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ़ ईरान में जिसका इतिहास कट्टरपंथियों और क्रांतिकारियों के खूनी संघर्ष से रंगा हुआ है। 1979 में यहां कभी एक उदारवादी सरकार का गठन हुआ था लेकिन कट्टरपंथियों ने सेना के समर्थन से सरकार का तख्ता पलट कर दिया और इंकलाब ईरान के पहले प्रधानमंत्री शाहपोर बख्तियार को भागकर फ्रांस में शरण लेनी पड़ी। वे कानून के विद्वान थे और दूसरे विश्वयुद्ध में फ्रांस की ओर से लड़ चुके थे। वे अंत तक निर्वासित जीवन जीते रहे और उन पर दो बार जानलेवा हमले हुए। साल 1991 में वे चाकुओं से हमले के चलते पेरिस के नज़दीक एक गांव में मृत पाए गए। आशय यही है कि आज अगर ईरान में उदारवादी कामयाब हुए हैं तो उसके पीछे लम्बे संघर्ष की दास्तान जुड़ी हुई है। कई अन्य बुद्धिजीवी, साहित्यकार, शिक्षाविद भी देश छोड़कर दूसरे मुल्कों में शरणार्थी बनकर रहे और कई ईरान की जेलों में बंद रहते हुए मौत के घाट उतार दिए गए। साहित्यकार नासिरा शर्मा ने इस दौर का विस्तार से ब्योरा दिया है। उन्होंने लिखा है कि कैसे एक मित्र को, जो क्रांति के समर्थन में था, उसे सूली पर चढ़ा दिया गया। नासिरा शर्मा ने इन इंकलाबी नेताओं से फ्रांस व लन्दन में विस्तार से इंटरव्यू किए थे। इनमें से कई अपने निर्वासित जीवन से तंग आ चुके थे और वतन को बहुत याद कर रहे होते थे। असल में क्रांति की कीमत इन्हीं नेताओं ने चुकाई थी।
देश में है दोहरी शासन प्रणाली
डॉ मसूद पेजेश्कियान राजनीति में तब ज़्यादा सक्रिय हुए जब उनकी पत्नी और बेटी की दुर्घटना में मौत हो गई लेकिन क्या वे ईरान को उदारवाद के रास्ते पर ले जाने में कामयाब होंगे? यह कहना जल्दबाज़ी ही होगा कि नए राष्ट्रपति बड़े कानूनी परिवर्तन कर पाएंगे क्योंकि ईरान में सत्ता के सर्वोच्च शिखर पर अयातुल्ला अली खोमेनी (85) हैं। यहां तक कि चुनाव में कौन-कौन राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार होगा यह भी वे ही तय करते हैं। उम्मीदवार का सार्वजनिक जीवन में ज़िम्मेदार होने के साथ धर्म की समझ रखना ज़रूरी है। इस्लामी गणराज्य ईरान में दोहरी शासन व्यवस्था है। इसमें धर्म और गणतंत्र दोनों शामिल हैं। ईरान के राष्ट्रपति परमाणु कार्यक्रम और अरब देशों के साथ संबंधों में कोई नीतिगत बदलाव नहीं कर सकते हैं। यहां संसद में उम्मीदवार को पहुंचाने के लिए एक गार्जियन काउंसिल है जो यह तय करती है कि सुधारवादियों और कट्टरपंथी विचारधारा के बीच सही अनुपात कायम रखा जा सके। काउंसिल यह भी सुनिश्चित करती है कि कोई अस्वीकार्य व्यक्तित्व वाला नुमाइंदा मजलिस यानी संसद में चुन कर ना आ जाए। अतीत में ऐसा भी हुआ है कि सुधारवादियों के ज़्यादा संख्या में चुने जाने के बाद उनके कानूनों को मंज़ूरी मिली है। फिर भी ऐसे सभी कानूनों को अंतिम मंज़ूरी गार्जियन काउंसिल से ही मिलती है।
दुनिया से कटना नहीं चाहता ईरान
पेजेश्कियान ने पश्चिमी देशों के साथ साल 2015 के असफल परमाणु समझौते के नवीनीकरण पर सकारात्मक बातचीत का भी आह्वान किया है जबकि उनके प्रतिद्वंद्वी कट्टरपंथी सईद जलीली यथास्थिति के पक्ष में थे। जलीली पूर्व परमाणु वार्ताकार रह चुके हैं और उन्हें ईरान के सबसे ताक़तवर धार्मिक समुदायों में मज़बूत समर्थन हासिल रहा है। जलीली पश्चिम विरोधी रहे हैं। वे परमाणु समझौते को बहाल करने के भी ख़िलाफ़ रहे हैं। फिलहाल यह माना जा रहा है कि इस वक्त ईरान को पश्चिमी देशों का रवैया बदलने के लिए उदारवादी चेहरे की ज़रूरत थी। जनता इस सतत पश्चिमी संघर्ष के हक़ में नहीं है। अपने परमाणु कार्यक्रम की वजह से कड़े प्रतिबन्ध ईरान को झेलने पड़े हैं। ईरान एशिया में बड़ा खिलाड़ी साबित हो सकता है खासकर तब, जब दुनिया एक तरफ चीन और रूस की जुगलबंदी तथा दूसरी और यूरोप और अमेरिका के बीच अंतर्विरोधों को साफ़ देख रही हो। ग़ज़ा पर इजराइल के हमले और दिल्ली के लिहाज़ से वह अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान को संतुलित करने में बड़ी भूमिका निभा सकता है। जो भी हो, यह समय बदलता हुआ दिख रहा है जबकि यूरोपीय संघ में धुर दक्षिण पंथियों की सीटें बढ़ी हैं और इसके तुरंत बाद ईरान, इंग्लैंड और फ्रांस के नतीजों में दक्षिणपंथियों की हार। ज़ाहिर है, दुनिया के लोग सियासत को कट्टरपंथ की दिशा में नहीं सहयोग देंगे और सौहार्द की राह पर देखना चाहते हैं। ईरानी कवि साबिर हका की एक कविता जिसका शीर्षक है, राजनीति-
बड़े-बड़े बदलाव भी
कितनी आसानी से कर दिए जाते हैं।
हाथ-काम करने वाले मजदूरों को
राजनीतिक कार्यकर्ताओं में बदल देना भी
कितना आसान रहा, है न!
क्रेनें इस बदलाव को उठाती हैं
और सूली तक पहुंचाती हैं।
वर्षा भम्भाणी मिर्ज़ा(लेखिका वर्षा भम्भाणी मिर्ज़ा ढाई दशक से अधिक समय से पत्रकारिता में सक्रिय हैं। ये दैनिक भास्कर, नईदुनिया, पत्रिका टीवी, राजस्थान पत्रिका, जयपुर में डिप्टी न्यूज़ एडिटर पद पर काम कर चुकी हैं। इन्हें संवेदनशील पत्रकारिता के लिए दिए जाने वाले ‘लाडली मीडिया अवार्ड’ के राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है। ) |