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दृष्टि आईएएस ब्लॉग

हिंदी भाषा का सामाजिक दृष्टिकोण

भाषाओं का भी अपना एक समाज होता है, संस्कृति होती है। भाषाएँ केवल सामाजिक सम्प्रेषण का माध्यम भर नहीं होतीं यह सामाजिक निर्मिति का भी महत्त्वपूर्ण आधार है। समाज भाषा की संरचना करता है और भाषाएँ भी समाज को गढ़ती हैं। जब कहा जाता है कि प्रत्येक दस कोस पर बोली या भाषा बदल जाती है तो इसका अर्थ यह नहीं कि केवल बोली ही बदलती है बल्कि सूक्ष्म तौर पर उसके साथ पूरी सामाजिकता, व्यवहार, विचार और संस्कृति तक बदल जाती है। और दस कोस तो फिर भी एक मुहावरा है वास्तविकता यह है कि एक भौगोलिक सीमा में बसे हर छोटे पारिवारिक समूह के बाद भाषा का स्वरूप कुछ-न-कुछ बदल जाता है। इसमें शब्दों का उच्चारण, बोलने का लहजा या एक्सेंट, व्याकरण, प्रयोग किये जाने वाले शब्द, गीत तथा गालियाँ आदि शामिल हैं। इस बदलाव का कारण सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, भौगोलिक और मानवशास्त्रीय परिवर्तन होता है। यह दूरी ज्यों-ज्यों अधिक होती है भाषाओँ के स्वरूप उसी अनुपात में भिन्न होते जाते हैं और यहाँ तक कि एक सीमा के बाद उसे दूसरी भाषा स्वीकारा जा सकता है। प्रसिद्ध भाषासमाजशास्त्री विलियम लाबोव ने केवल आर (r) शब्द के उच्चारण को लेकर एक गहरा सामाजिक प्रयोग किया था। उन्होंने पाया कि केवल न्यूयॉर्क शहर में ही अलग-अलग सामाजिक वर्ग के लोग ‘r’ का उच्चारण अलग-अलग प्रकार से करते हैं। यहाँ तक कि एक ही उच्च वर्गीय दुकान के उच्च स्टाफ एक ही शब्द में r को मिलाकर उच्चारण करते हैं तो वहीं अन्य निचले कर्मचारी r को हटाकर शब्दों का उच्चारण करते हैं। भाषा की सामाजिकता को लेकर अंग्रेज़ी सहित अन्य समृद्ध भषाओं में खूब प्रयोग हुए हैं। यहाँ तक केवल r लेटर पर भी एलन हबल, रोजर फोलर, मेथर जैसे कई भाषा विज्ञानियों ने काम किया है। इसके बेहद रोचक निष्कर्ष निकले हैं। जहाँ तक मेरी जानकारी है हिंदी में ऐसे शोध नगण्य हैं। हिंदी में ऐसे काम इसलिये भी कम हैं क्योंकि इसके लिये साक्षात्कार तथा फील्ड एक्सपेरिमेंट जैसे जिन शोध प्रविधियों की आवश्यकता है उसके लिये अथक श्रम, प्रोत्साहन और आर्थिक-प्रशासनिक मदद की आवश्यकता है और शायद ही कोई शोधार्थी और गाइड इतना जोखिम उठाने की हिम्मत करे।

हिंदी भाषा के परस्पर सामाजिक प्रभाव की बात करें तो दो क्षेत्रों की सामाजिकता का वहाँ बोले जाने वाली भाषा पर प्रभाव स्पष्ट होता है। उदाहरण के लिये हरियाणवी हिंदी और बिहारी हिंदी में एक गहरा अंतर नज़र आता है। हरियाणवी हिंदी में जहाँ एक ठसक दिखती है, एक अलग प्रकार का तेवर नज़र आता है वहीं बिहारी हिंदी में सम्मान का भाव तथा विनम्रता अधिक रहती है। इसका कारण वहाँ की भौगोलिक-सामाजिक-ऐतिहासिक परिस्थिति है। राजस्थान-हरियाणा के क्षेत्रों को भारत की पश्चिमी सीमा पर सटे होने के कारण अक्सर आक्रमणकारियों का सामना करना पड़ता था, यहाँ के लोग युद्ध के अभ्यस्त हो चुके थे, इसलिये इनकी भाषा में एक ओज का गुण है जबकि पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार तथा बंगाल जैसे क्षेत्रों को ऐसी समस्या का सामना लगभग नहीं करना पड़ा। इन क्षेत्रों को बुद्ध तथा महावीर के ज्ञान की संपदा मिली, खेती के लिये गंगा का उपजाऊ मैदान उपलब्ध था तथा समृद्ध प्रांत मिला, कबीर, तुलसी, विद्यापति, चैतन्य महाप्रभु की थाती मिली ,प्राकृत और पाली भाषा की विरासत मिली, इसलिये यहाँ की भाषा में ओज के गुण की बजाय ज्ञान, प्रेम, भक्ति और शृंगार अधिक हावी है। हरियाणवी हिंदी में जहाँ ‘ट वर्ग एवं संयुक्ताक्षरों तथा तुम, तू ,तेरे जैसे संबोधनों का अधिक प्रयोग होता है वहीं बिहारी हिंदी में ण तथा ड़ जैसे अक्षरों का प्रयोग नहीं के बराबर होता है तथा ये अक्षर वहाँ ‘न’एवं ‘र के रूप में प्रयुक्त होते हैं। साथ ही, वहाँ की भाषा में आप, वे, उन्होंने जैसे संबोधनों का प्रयोग अधिक होता है एवं सम्मानसूचक संज्ञा/सर्वनाम के साथ क्रिया में भी ‘इये’लगाया जाता है। स्वाभाविक है कि यह अंतर केवल भाषा के स्तर पर नहीं हैं, बल्कि यह अंतर वहाँ की सामाजिक स्थिति, संस्कृति तथा रहन-सहन में भी स्पष्ट होता है। यहाँ तक कि एक ही भौगोलिक क्षेत्र में निवास करने वाले भिन्न जातियों एवं धर्मों के लोगों की भाषा शैली अलग हो जाती है। एक ही व्यक्ति के अपने से इतर जाति, लिंग, धर्म तथा पेशा के व्यक्ति से बात करने की भाषा शैली अलग हो जाती है। और यह भेद साहित्य के स्तर पर भी स्पष्ट होता है। अलग-अलग व्यापार की भाषा अलग-अलग है। प्रबंधन की भाषा जहाँ अलग होती है, विभिन्न स्तर के कर्मचारियों की भाषा अलग हो जाती है। ऑटो चलाने वाले की भाषा अलग होती है तो रिक्शा चलाने वाले और हल चलाने वाले की भाषा बदल जाती है। एक छोटी दुकान के दुकानदार की भाषा अलग होती है तो वहीं मॉल के कर्मचारियों की भाषा और फुटपाथ के दुकानदार की भाषा अलग होती है। यहाँ तक कि कोई व्यक्ति किससे बात कर रहा है इस संदर्भ में भी उसकी भाषा बदल जाती है। संस्कृत नाटकों के पुरुष पात्र संस्कृत का प्रयोग करते हैं जबकि स्त्रियों और निम्न वर्ग के पात्रों के लिये प्राकृत का प्रयोग किया जाता है। फिल्मों और नाटकों के निम्न वर्गीय पात्रों की भाषा पर क्षेत्रीय बोलियों का प्रभाव होता है जबकि श्रेष्ठ पात्र परिनिष्ठित हिंदी बोलते हैं। ‘मैला आँचल' में एक ही अंचल में रहने के बावजूद ज़मींदार विश्वनाथ की भाषा अलग है जबकि अन्य पात्रों की अलग। प्रेमचंद की कहानी ‘शतरंज के खिलाड़ी में नवाब मीर और मिर्ज़ा आपसी बातचीत में जहाँ आप का प्रयोग करते हैं वहीं लड़ाई होने पर दोनों तुम, तू पर उतर उतर आते हैं। नवाब और बेगम दोनों अपनी दासी के लिये ‘तू’ का इस्तेमाल करते हैं। गोदान के मेहता और मालती की भाषा, गाँव के होरी और धनिया जैसे पात्रों से अलग है। यहाँ तक कि जब होरी का बेटा गोबर शहर से कमाकर लौटता है तो भी उसकी भाषा बदल जाती है। ऐसे बदलाव हम अक्सर आस-पास देखते रहते हैं। इसके अलावा भी अलग-अलग भाषाओं की संरचना भी बहुत कुछ कहती है। संस्कृत भाषा में जहाँ तीन लिंग होते हैं तथा तृतीय लिंग यानी नपुंसक लिंग को भी बराबर महत्त्व दिया जाता है वहीं हिंदी या अंग्रेज़ी में दो ही लिंग होते हैं पुल्लिंग तथा स्त्रीलिंग। संस्कृत, अंग्रेज़ी तथा फ़ारसी जैसी भाषाओं में लिंग के अनुसार क्रिया के रूप नहीं बदलते जबकि हिंदी में संज्ञा के लिंग के अनुसार क्रिया के रूप बदल जाते है। उदाहरण के लिये संस्कृत में रामः आम्रम् खादति और सीता आम्रम् खादति , अंग्रेज़ी में Ram eats a mango और Sita eats a mango जबकि हिंदी में राम आम खाता है और सीता आम खाती है, होता है।

भाषाओं की संरचना तथा शैली के स्तर पर यह अंतर क्षेत्र तथा समाज विशेष की अलग-अलग स्थितियों का द्योतक है। भाषा का सामाजिक अध्ययन कर यह ज्ञात किया जा सकता है कि किसी देश-काल में कोई समाज कितना सहिष्णु है,कितना विविधता युक्त है, वहाँ स्त्रियों, किन्नरों और निम्न वर्गों, दिव्यांगों, अलग-अलग जातियों-धर्मों तथा विभिन्न पेशे से जुड़े लोगों के साथ कैसा व्यवहार किया जाता है। वहाँ के लोगों का मूल स्वभाव क्या है, रहन-सहन कैसा है? यह अकारण नहीं है कि आदि काल (वीर गाथा काल ) की अधिकांश कविताएँ डिंगल पिंगल शब्दों से युक्त हैं तथा उनमें ओज ,वीरता आदि के स्वरूप देखने को मिलते हैं जबकि भक्ति काल आते-आते कविता की भाषा अधिक सौम्य हो जाती है तथा रीति तक आकर ये श्रृंगार युक्त तथा प्रेम की भाषा से युक्त हो जाती हैं। किसी भी समाज के अध्ययन के लिए वहाँ की भाषा का अध्ययन अति आवश्यक है निश्चित ही बिना भाषा के अध्ययन के कोई भी सामाजिक अध्ययन अधूरा रहेगा।

भौगोलिक स्तर पर बात करें तो बर्फीले क्षेत्रों की भाषा, पहाड़ी क्षेत्रों की भाषा, समुद्री क्षेत्रों की भाषा और मैदानी क्षेत्रों की भाषा में पर्याप्त अंतर हो जाता है। अंग्रेज़ी में जहाँ बर्फ़ के लिए ‘आइस’ और ‘स्नो’ शब्द मिलते हैं वहीं एस्कीमो भाषा में इसके लिए कई शब्द हैं। प्रसिद्ध मानवविज्ञानी फ्रांज़ बोस तथा जॉन स्टेक्ली जैसे लोगों ने इसपर पर्याप्त शोध किया है। उन्होंने एस्कीमो भाषा में बर्फ़ के लिए 50 से अधिक शब्दों को चिन्हित किया है। उसी तरह समुद्रीतटीय क्षेत्रों में तूफ़ान, चक्रवात आदि के लिये विविध शब्द तथा मुहावरे मिल जाएंगे। हिंदी में यदि हम दिल्ली के आस-पास के क्षेत्र की भाषा को रेफरेंस बिंदु मान लें तो ज्यों-ज्यों भारत के नक़्शे पर पूर्वी किनारे लगे हुए दिल्ली से दक्षिण की ओर बढ़ते हैं हम पाएंगे कि यह भाषा धीरे-धीरे अधिक लचीली तथा नर्म होती जाती है। दिल्ली के आस-पास की कौरवी भाषा फिर ब्रज क्षेत्र की भाषा, बुन्देली, आगे अवधी ,भोजपुरी, मगही, अंगिका से मैथिली तक पहुँचते पहुँचते भाषा इतनी मुलायम हो जाती है कि इन भाषाओं को एक ही स्रोत भाषा से उत्पन्न मानना मुश्किल हो जाता है। फिर यदि हम मैथिली से आगे बढ़ते हैं तो यह और अधिक गोल होकर बंगाली बन जाती है और फिर उड़िया जिसे द्रविड़ भाषाओं का संक्रमण बिंदु माना जा सकता है। इसी तरह अगर हम पश्चिमी सीमा से सटकर बढ़ें तो राजस्थानी, गुजराती, मध्य प्रदेश की भाषा, मराठी इन सब में एक क्रमवार संयोजन नज़र आता है। इसी तरह दिल्ली से उत्तर के क्षेत्रों में कुमाऊँनी, गढ़वाली तथा कश्मीरी हिंदी में भी एक संयोजन नज़र आता है। और भाषा के इस क्रमिक परविर्तन के साथ-साथ सामाजिक-भौगोलिक स्थितियाँ भी समानांतर रूप से बदलती रहती है। इसके आगे के क्षेत्रों में भाषा परिवार का परिवर्तन हो जाता है। हालाँकि भाषा परिवारों के बदलने में क्रमिक विकास के कारक कितना काम करते हैं और उसमें कौन से कारक अतिरिक्त जुड़ते हैं तथा भाषाओं के व्याकरण किस प्रकार बदल जाते हैं इसकी समझ अलग शोध की मांग करती है।

पुरुषोत्तम ‘प्रतीक'

(लेखक ‘दृष्टि करेंट अफेयर्स टुडे’ के कार्यकारी संपादक हैं)

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