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दृष्टि आईएएस ब्लॉग

भारतीय लोकतंत्र में अवसर की लागत

जीवन में कोई भी मूर्त या अमूर्त चीज तभी मिलती है, जब उसकी कीमत चुका दी गई हो। ये यूं ही कही गई बात नहीं है, बल्कि इसके पीछे एक आर्थिक सिद्धांत है, अवसर की लागत का सिद्धांत। अवसर की लागत, इसका अर्थ यह है कि किसी चीज को प्राप्त करने के लिए वह कौन सी कीमत या लागत है जो अदा की गई है। एक तरह से देखा जाये तो किसी चीज का त्याग करने के पश्चात बदले में जो भी मिलता है यदि वह उम्मीदों के हिसाब से नहीं हुआ तो इसे अवसर की लागत की तुलना में हानि माना जाता है जबकि उम्मीदों से बेहतर हुआ तो इसे लाभ माना जाता है। यदि हम विश्व में पिछले कुछ दशकों में घटी घटनाओं पर नजर डालें तो पाते हैं कि उपनिवेशवाद के पिंजरे से बाहर निकलकर लोकतंत्र का रास्ता अपनाने वाले कई देश लोकतंत्र को कायम रखने में सफल नहीं हो सके और उन्होंने अवसर की लागत की तुलना में उम्मीदों से कम पाया और हानि उठाई। इन देशों में या तो सत्ता को पलट दिया गया या सैन्य शासन स्थापित कर दिया गया। उदाहरण के लिए- पाकिस्तान, म्यांमार, ट्यूनीशिया और अन्य छोटे अफ्रीकी देश आदि।

ऐसा माना जाता है कि लोकतंत्र एक बहुत महंगा विचार है और इसे जीवित रखने के लिए आर्थिक समृधि, सामाजिक गतिशीलता, शैक्षणिक और वैज्ञानिक प्रगति की आवश्यकता होती है लेकिन भारत के सन्दर्भ में इन बातों को कसौटी पर देखने की आवश्यकता है। औपनिवेशिक शासन से आजादी के बाद से भारत ने खुद को दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के रूप में सफलतापूर्वक स्थापित किया है।

इसका मतलब यह नहीं है कि भारत में लोकतंत्र के खिलाफ चुनौतियां नहीं हैं बल्कि भारत में लोकतंत्र के अस्तित्व के लिए एक स्वतः विकसित तंत्र प्रांरभ से अस्तित्व में है] जो लोकतंत्र को अक्षुण्ण बनाए हुए है। यदि हम इन बिंदुओं का अन्वेषण करें तो पाते है कि भारत में संतुलित संविधान] सार्वभौमिक मताधिकार तथा निष्पक्ष चुनावों ने राजनीतिक सत्ता का ऐसा व्यवस्थित प्रबंधन किया है जहाँ संपन्न वर्ग के हित भी सुरक्षित है तथा विपन्न वर्ग की सुरक्षा और प्रगति भी प्राथमिकता में है और नीति निर्माण का प्रमुख आधार बनाती है।

ऐसे में शक्तिशाली वर्ग तथा कमजोर वर्ग दोनों का ही लोकतंत्र के विरुद्ध जाने की संभावना कम हो जाती है। भारत में जाति, धर्म, क्षेत्र और भाषा की व्यापक सामाजिक विविधता है लेकिन औपनिवेशिक शासन के खिलाफ राष्ट्रवादी आंदोलनों के कारण स्वतंत्रता-पूर्व से विविधता में एकता का विचार मजबूत हुआ है। स्वतंत्र भारत में अल्पसंख्यकों की सांस्कृतिक स्वायत्तता को सुरक्षित करने के प्रयास किए गए हैं। राज्यों का पुनर्गठन भाषाई आधार पर किया गया है और गैर-हिंदी भाषी राज्यों में हिंदी नहीं थोपी गई है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 30 के अनुसार अल्पसंख्यकों को अपने धार्मिक एवं शैक्षणिक संस्थानों की व्यवस्था करने का अधिकार है। विविध धर्मों और जातियों की उपस्थिति के कारण, राजनीतिक दल भी विविध एजेंडे के साथ उभरे हैं। ये राजनीतिक दल आम नागरिकों के लिए धर्म, जाति और सांस्कृतिक पहचान के साथ उनकी राजनीतिक भागीदारी की जगह बना रहे हैं। यह व्यवस्था टिकट वितरण के समय तथा विभिन्न राजनीतिक दलों में वोट प्राप्त करने हेतु जारी किये जाने वाले घोषणापत्रों में देखी जा सकती है।

भारत की जाति व्यवस्था लोकतंत्र में अपने लिए जगह बनाने में सफल साबित हुई है। अनुसूचित जाति एवं जनजाजि वर्गों के लिए आरक्षण की नीतियों के कारण उन्हें विधायिका और कार्यकारी प्रशासन दोनों में प्रतिनिधित्व के सशक्त अवसर हैं। संवैधानिक व्यवस्था के तहत कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के बीच शक्तियों का स्पष्ट विभाजन है जो एक-दूसरे को संतुलित कर रहे हैं। संतुलन की इस स्थिति को देखते हुए कोई भी संवैधानिक संस्था दूसरे पर हावी होने में सक्षम नहीं है। यह संतुलन निरंकुशता को पनपने नहीं देता।

संविधान में यह प्रावधान किया गया है कि राज्य की भूमिका कल्याणकारी हो और वह कमजोर, ग्रामीण तथा गरीब वर्गों के हितों की रक्षा के लिए कार्य करे। यहीं कारण है कि ग्रामीण क्षेत्रों के विकास के लिए हरित क्रांति की शुरूआत सामाजिक-आर्थिक दृष्टि से क्रांतिकारी परिवर्तन लाने के लिए की गई थी। बिजली, पानी, सड़क, ऋण व्यवस्था, श्रम कानून तथा बुनियादी ढांचे का विकास सभी को आगे ले जा रहा है।

यह सारी बातें भारत में लोकतंत्र के स्थायित्व के लिए आदर्श रूप को प्रस्तुत करती है लेकिन इसके इतर भारत में लोकतंत्र की स्थिरता इतनी सरल और आसान भी नहीं है। सार्वभौमिक मताधिकार ने संख्या का महत्व बढ़ा दिया है और गुणात्मक भागीदारी कम कर दी है। ऐसी स्थिति में विभिन्न क्षेत्रों में बहुसंख्यक वर्ग के प्रभुत्व की संभावना बनी रहती है, जो बहुधा संघर्ष का कारण बनती है। गठबंधन की राजनीति में वृद्धि हुई है और कुछ मामलों में राष्ट्रीय महत्व और राष्ट्रीय सुरक्षा के सवालों पर भी आम सहमति बनाना दूर की बात हो जाती है। जाति, धर्म के आधार पर प्रतिनिधित्व बढ़ने से उनमें प्रतिस्पर्धा भी बढ़ी है। इसके कारण अक्सर कानून एवं व्यवस्था की समस्या उत्पन्न हो जाती है, विभिन्न आंदोलन एवं उनके विरोधी आंदोलन लगातार प्रचलित होते रहते हैं जिसके कारण लोक-व्यवस्था को संघर्ष करना पड़ता है। पिछले कुछ दशकों में सामाजिक-आर्थिक असमानता के मानदंड बदल गए हैं और देश के कई राज्यों में नक्सलियों और उग्रवाद के रुप में संकट जगह बनाता रहता है। शहरी गरीबी भी बढ़ रही है और सामाजिक व्यवस्था में अशांति पैदा कर रही है। विभिन्न समुदायों और समूहों के बीच बढ़ते सामाजिक और आर्थिक मतभेद भी लोकतंत्र के सामने गंभीर चुनौतियाँ हैं। भारतीय लोकतंत्र में विभिन्न समूहों के अलग-अलग हित है। ऐसे में उनके हितों में टकराव होना और जनहित वाले मुद्दे पर पूर्ण सहमति बन पाना संभव नहीं है लेकिन इसके बावजूद भारत में यह संतुलन देखने को मिलता है कि जनसहमति के लिए विभिन्न समूह अपने हितों की प्राथमिकता में पर्याप्त लोचशीलता अपनाते है और संघर्ष की जगह समायोजन और समावेशन की रणनीति को अपनाते है। भारत का इतिहास समावेशन का है, विविध धर्मो, जातियों, समूह एवं वर्गो को यहां ऐतिहासिक रुप से न केवल पनपने और विकसित होने के अवसर मिले है बल्कि भारतीय समाज की संपूर्ण व्यवस्था के रुप में उन्हें स्वीकार किया गया है। इस एकीकरण और समावेशन प्रवृत्ति के दूरगामी प्रभाव के चलते ही हम कह सकते हैं कि अनेक चुनौतियों और विरोधाभाषों के बावजूद भारत का लोकतंत्र सम्मिलित प्रयासों से आगे बढ़ रहा है और और अपनी उपलब्ध क्षमता से नये अवसरों को विकसित कर उम्मीद से बेहतर कर रहा है। इसके साथ ही यह समावेशी प्रगति की नई उम्मीदों को विकसित करने के लिए प्रयासरत है।

  कपिल शर्मा  

(लेखक कपिल शर्मा भारतीय जनसंचार संस्थान (IIMC), नई दिल्ली से पत्रकारिता की पढ़ाई किये हैं। आईआईएमसी के पश्चात इन्होंने बिजनेस स्टैंडर्ड के लिए बिजनेस पत्रकारिता और टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल सांइस से चुनाव प्रबंधन का अध्ययन किया। कपिल शर्मा पिछले एक दशक से ज़्यादा समय से चुनाव प्रबंधन क्षेत्र में निर्वाचन अधिकारी के रूप में बिहार में कार्यरत हैं।)

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