इंदौर शाखा पर IAS GS फाउंडेशन का नया बैच 11 नवंबर से शुरू   अभी कॉल करें
ध्यान दें:

दृष्टि आईएएस ब्लॉग

नारी शक्ति के वंदन में लग रहा लंबा समय

सितंबर की 21 तारीख जो अब इतिहास बन चुकी है। इस दिन देश की सर्वोच्च पंचायत में जो ऐतिहासिक पटकथा लिखी गई, वह सदन की सर्वसम्मति की भी कथा है। महिला आरक्षण बिल के लिये 128 वें संविधान संशोधन विधेयक को पहले लोकसभा और फिर राज्यसभा में पास कर दिया गया लेकिन इसे कानून के रूप में लागू करने के लिये लंबा ब्रेक मांगा गया है। राज्यसभा में इसे सभी सदस्यों और दलों का समर्थन मिला फिर भी बहस में कुछ आपत्तियाँ थीं, जो OBCकोटे को लेकर थीं। महिलाओं के लिये लोकसभा और राज्यसभा में मिलने वाले कुल 33 प्रतिशत आरक्षण में अनुसूचित जाति और जनजाति के साथ एंग्लो इंडियन महिलाओं के लिये भी आरक्षण होगा। कुछ सदस्यों का कहना था कि इसे लागू करने के लिये यह सरकार इतना लंबा इंतज़ार क्यों करा रही है जबकि इस सरकार की तेज़ रफ्तार जनता ने रात आठ बजे की घोषणाओं में कई बार देखी है, फिर ‘नारी शक्ति के वंदन’ में वक्त का लंबा ब्रेक क्यों लिया जा रहा है। हालाँकि कुछ महिला सदस्यों को तो नारी शक्ति वंदन नाम पर भी एतराज़ था और उन्होंने अपने भाषण में कहा कि मानो महिलाओं को कोई दान-दक्षिणा दी जा रही है जबकि यह तो हमारा अधिकार है। क्या वाकई जनगणना और फिर परिसीमन की लम्बी प्रक्रिया का हवाला देकर सरकार ने गूढ़ चुनावी गणित को साधने की कोशिश की है? महिलाओं द्वारा इसे मास्टर स्ट्रोक भी कहा गया क्योंकि इस बिल से न केवल 2024 बल्कि 2029 में भी महिलाओं के पार्टी से जुड़े रहने की संभावनाएँ बढ़ गई हैं?

फिलहाल इस 33 फीसदी आरक्षण के लागू होने का कोई साल, कोई तारीख महिलाओं को नहीं मिली है। उनकी यह खुशीवक्त का ब्रेक साथ लेकर आई है। उन्हें प्रधानमंत्री से उम्मीद थी कि जब नोटबंदी, कोरोना में देशबन्दी, कश्मीर से धारा 370 की विदाई जैसे निर्णयों में उन्होंने कोई वक्त नहीं लिया फिर बहनों को अधिकार देने में ऐसा क्यों? महिलाओं को लग रहा है कि इस बार कसौटी पर आधी आबादी की भावनाएँ जुड़ी हैं और अब वे भी कहीं पॉलिटिकल इवेंट्स की सियासत में इस्तेमाल ना हो जाएँ।

बिल से देश की जनता वाकिफ है, इसकी ज़रूरत से भी। लेकिन इसे लेकर कुछ सवाल सभी बुद्धिजीवियों के मन में तैर रहे हैं। क्योंकि इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि देश के लोकतंत्र के सर्वोच्च मंदिर आज़ादी के साढ़े सात दशकों के बाद भी पुरूषों के वर्चस्व तले ही रहे हैं। अगर सरकार वाकई गंभीर है तो महिलाओं को उनका अधिकार जल्द मिलना चाहिये। बिल टालने की वैचारिकता और इस बिल को लेकर सियासत के हालात बिलकुल नहीं बनने चाहिये। नई संसद में दाखिल होने के ऐतिहासिक अवसर पर संसद में सुशासन के प्रतीक सेंगोल की स्थापना के समय भी महिला राष्ट्रपति की अनुपस्थिति मन में महिलाओं के अधिकारों की समानता को लागू करने की गंभीरता को लेकर सवाल पैदा करती है। बेशक महिला आरक्षण बिल लाना अच्छी सोच है, लेकिन इसके कहीं अधिक आवश्यक है कि महिलाओं की सामाजिक हैसियत मज़बूत हो तथा वे इस तरह सशक्त हों कि खुद अपने लिये लड़ सकें और गरिमा के साथ जी सकें। हमारी संसद और विधानसभाओं में यह भागीदारी कभी भी 15 प्रतिशत से ज़्यादा नहीं रही। यहाँ तक की हमारे पड़ोसी देश जैसे- पाकिस्तान (20 प्रतिशत), नेपाल (21 प्रतिशत) और बांग्लादेश (33 प्रतिशत) में भी महिला सांसदों की संख्या हमसे ज़्यादा है। इस मामले में दुनिया का औसत भी 26 फीसदी है। उस तरह से देखा जाए तो भारत दुनिया में 141वें स्थान पर है। यानी, 140 देश महिलाओं को चुनने में हमसे आगे हैं। वर्तमान लोकसभा में सवार्धिक महिला सांसद (82) हैं। सभी दलों ने बिल का स्वागत तो कर दिया है लेकिन ये खुद कभी अपने दलों में 33 फीसदी टिकट भी महिलाओं को नहीं देते।

नारी शक्ति वंदन विधेयक लागू होने में परिसीमन बड़ी चुनौती इसलिये साबित हो सकता है क्योंकि जनसंख्या के आधार पर सीटें पाने में उत्तर भारत हावी रहा है। दक्षिण भारत में शिक्षा और परिवार नियोजन अपनाने के बाद आबादी पर नियंत्रण हुआ है। 1971 की जनगणना के बाद आखिरी बार लोकसभा क्षेत्रों की संख्या 543 हुई। ज़्यादा आबादी ज़्यादा सीटों के फॉर्मूले पर दक्षिण को एतराज़ है। अगर जनगणना की प्रक्रिया अगले दो सालों में पूरी हो पाती है और उसके बाद परिसीमन की, तब ही 2029 में सदन महिला सदस्यों की बढ़ी हुई संख्या देख पाएँगे। यह सच है कि 2019 के चुनाव में पुरुषों की तुलना में महिलाओं ने ज़्यादा मतदान किया और भाजपा इसे अपनी सफलता में भी एक बड़ा कारण मानती है। लगभग तीन दशक से अधर में झूल रहे इस बिल को आधार देने के प्रयास पर जनता की पैनी नज़र होगी। स्त्री शक्ति ने देश में ऐसा सकारात्मक माहौल तो बनाया है कि एक समय विरोध करती रही पार्टियाँ भी आज समर्थन की मुद्रा में आ गई हैं। यह विरोध तब भी था जब तत्कालीन राजीव गांधी सरकार ने पंचायतो में यह हक दिया था। उस समय भी तत्कालीन विपक्षी दलों ने तमाम तर्कों के आधार पर इसका विरोध किया था।

साल 1989 में तत्कालीन राजीव गांधी सरकार ने संसद में महिला आरक्षण विधेयक पेश किया था जो लोकसभा में तो पारित हुआ लेकिन राज्यसभा में गिर गया। अच्छी बात यह है कि लगभग तीन दशकों से देश पंचायत और शहरी निकायों में 33 फ़ीसदी महिला आरक्षण का भी साक्षी रहा है। 1992- 93 में नरसिंह राव सरकार ने 72 और 73वाँ संविधान संशोधन विधेयक पेश किया जो दोनों सदनों में पारित होकर देश का कानून बना। इन बातों में कोई दम नहीं है कि सरपंच पति या मुखिया पति बनकर महिलाओं के पति ही कामकाज़ चलाते हैं। जैसा पुरुष प्रधान हमारा समाज है, वहाँ इस दौर से भी गुज़रना होगा। महिला किस तरह बेड़ियों को तोड़कर अपनी संवैधानिक ताकत को पहचानती है, उसके लिये नीना गुप्ता और रघुवीर यादव की वेब सीरीज़ पंचायत देखनी चाहिये। यहाँ अनपढ़ महिला पंच तो बन गई है लेकिन पंचायत उनके पति ही चलाते हैं। एक वक्त आता है जब वह अपनी शक्ति को पहचानती है और पंच की भूमिका में लौटती है। देश इस बार भी थोड़ा वक्त लेगा और देश की शासन व्यवस्था की सूरत बदली हुई नज़र आएगी।

हल्ला कोटे में कोटा को लेकर भी है। महिलाओं में भी पिछड़ी महिलाओं के आरक्षण की बात दलों के मुखिया कर रहे हैं। इसमें ओ.बी.सी. कोटा को शामिल करने का आग्रह है जबकि पुराने बिल में ऐसा नहीं था। देखना होगा कि ये दल किस प्रकार सहमति बनाते हैं। अभी जिस शक्ति के साथ सत्ताधारी दल (संगठन) संसद में मौजूद हैं, वह अगर चाहते तो इस बार ही यह सौगात देश को दे सकते थे। और शायद यही असली राष्ट्रवाद भी होता। बेशक महिला मतदाता अब बड़ी भूमिका में होंगी। इस नए दौर में उन्हें एहसास है कि लोकतंत्र की जननी कहे जाने वाले भारत की संसद में उसकी बेटियाँ अब ज़्यादा से ज़्यादा शिरकत करेंगी। दोहराना ज़रूरी है कि उन्हें चौकन्ना रहना होगा जिससे वे दलों की नीयत और इवेंट मैनेजमेंट के बारीक फर्क को भी समझ सकें। चुनावी वैतरणी पार करने के लिये उनकी भावनाओं का इस्तेमाल ना हो सके। चुनकर वही महिलाएँ आएँ जो स्त्रियों की आवाज़ को लोकतंत्र के सर्वोच्च शिखर पर बुलंद कर सकें, दल की परछाई बनकर नहीं। नारी शक्ति वंदन अधिनियम के लागू होने का समय पुरुष प्रधान समाज और नेताओं की असल परीक्षा होगी तथाउनके रिपोर्ट कार्ड में स्त्रियाँ अंक भरेंगी। राजनीतिज्ञ और सामाजिक कार्यकर्ता राममनोहर लोहिया ने कहा था- "जितने भी आधार हैं, समाज में गैरबराबरी और नाइंसाफी के, उनमें यह चट्टान सबसे बड़ी है- मर्द औरत के बीच की गैरबराबरी।"

(लेखिका वर्षा भम्भाणी मिर्ज़ा लगभग ढाई दशक से अधिक समय से पत्रकारिता में सक्रिय हैं। ये दैनिक भास्कर, नईदुनिया,पत्रिका टी.वी.,राजस्थान पत्रिका,जयपुर में डिप्टी न्यूज़ एडिटर पद पर काम कर चुकी हैं। इन्हें संवेदनशील पत्रकारिता के लिये दिये जाने लाडली मीडिया अवार्ड के राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है। )
-->
close
एसएमएस अलर्ट
Share Page
images-2
images-2