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चुनाव बजट का निर्धारण कैसे होता है?

लोकतांत्रिक देशों में चुनाव एक महंगा और जटिल कार्य है। लोकतंत्र में सरकार बनाने के लिए समय-समय पर चुनाव कराए जाते हैं। ऐसे में नियमित चुनावों के संपादन के लिए देश के संसाधनों का कुशल वित्तीय प्रबंधन सुनिश्चित करने के लिए कई महत्वपूर्ण पहलुओं पर विचार किया जाना चाहिए, जैसे कि देश के वित्तीय संसाधनों के आधार पर चुनाव के वित्तीय प्रबंधन को समझना और चुनाव कानूनों का पालन करते हुए चुनाव संबंधी गतिविधियों की योजना बनाना।

चुनावों के लिए लागत तय करने की प्रक्रिया में कई तरीके हैं जिसका एक सामान्य अवलोकन इस प्रकार हैः

1. इस प्रक्रिया में सबसे पहले निर्वाचन प्रबंधन निकाय (इलेक्टोरल मैनेजमेंट बॉडी) आम तौर पर चुनाव कराने के लिए खर्च की जाने वाली राशि का प्रारंभिक आकलन करता है और चुनाव के लिए पात्र मतदाताओं की संख्या, क्षेत्र, आवश्यक सामग्री, सुरक्षा बल और अन्य संसाधनों का आकलन करता है।
2. प्रारंभिक आकलन के आधार पर, ईएमबी बड़े पैमाने पर बजट तैयार करता है। इस बजट में अनुमानित लागतों के साथ चुनाव प्रक्रिया के विभिन्न पहलुओं को शामिल किया जाता है और फिर इस लागत को आवश्यकतानुसार विभिन्न श्रेणियों में विभाजित किया जाता है।
3. अक्सर चुनाव प्रक्रिया में चुनाव लागत को चुनाव प्रबंधन में शामिल विभिन्न एजेंसियों और संगठनों के बीच साझा किया जाता है। इसके अतिरिक्त, देश में चुनाव संपन्न कराने के लिए बनाया गया कानून भी इस पर होने वाले व्यय को निर्धारित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, क्योंकि कई बार कानूनी तौर पर ही यह निर्धारित कर दिया जाता है कि निर्वाचन प्रबंधन संगठनों को कहां खर्च करना आवश्यक है। उदाहरण के लिए, मतदाता पंजीकरण या मतपत्र मुद्रण जैसी जिम्मेदारियाँ निर्वाचन प्रबंधन संगठन के अधिकार क्षेत्र में आती हैं।
4. कई बार ऐसी परिस्थितियाँ आती हैं जहाँ चुनाव की समय सीमा निकट आ रही होती है, लेकिन परिस्थितियों में अप्रत्याशित बदलाव के कारण बजट में समायोजन की आवश्यकता हो सकती है। ऐसे मामलों में, बजट का पुनः आवंटन किया जाता है।
5. चुनाव व्यय पर नियंत्रण बनाए रखने के लिए नियमित निगरानी आवश्यक है। चुनाव प्रबंधन में प्रभावी वित्तीय प्रबंधन के लिए लागत का उचित लेखांकन आवश्यक तौर पर किया जाना चाहिए। वर्तमान में सभी बड़े लोकतांत्रिक देशों में इस प्रक्रिया को अपनाया जा रहा है परंतु कई बार तकनीकी दक्षता के अभाव में यह अधिकांश सरकारी एजेंसियों में व्यापक रूप से उपलब्ध नहीं है, जिससे चुनाव व्यय को नियंत्रित करना मुश्किल हो जाता है। ऐसे में निर्वाचन प्रक्रिया के सुचारु प्रशासन को चलाने के लिए उचित वित्तीय लागत प्रबंधन के साथ-साथ समावेशी चुनावों के लिए अंतर्राष्ट्रीय मानदंडों का पालन करना आवश्यक है।

चुनाव बजट तय करने के दो तरीके प्रमुख रुप से अपनाये जाते है।
1. चुनाव के वर्षों में, चुनाव से संबंधित खर्चों के लिए बजट को नियमित वार्षिक बजट से अलग किया जाता है।
2. गैर-चुनावी वर्षों में, चुनाव से संबंधित खर्चों के लिए बजट नियमित वार्षिक बजट से आता है।

भारत में, चुनाव से संबंधित बजट तैयार करने के लिए भारत निर्वाचन आयोग जिम्मेदार है, जबकि वित्त मंत्रालय इसकी समीक्षा करता है और संसद अनुमोदन प्रदान करती है। एक स्थिर लोकतांत्रिक देश में, चुनाव खर्च वहां चुनाव संपन्न कराने वाले निर्वाचन प्रबंधन संगठनों और अन्य सार्वजनिक एजेंसियों के बीच साझा किया जाता है। ये खर्च मुख्य रूप से मतदाता सूची प्रबंधन, सीमा परिसीमन, मतदाता सूचना, चुनाव विवादों को हल करना, सुरक्षा, मतदाता जागरूकता और कई अन्य गतिविधियों को कवर करते हैं। इनमें से कुछ गतिविधियों को सीधे आरक्षित चुनाव बजट से वित्त पोषित किया जाता है, जबकि अन्य को राज्य और जिला-स्तरीय प्रशासन के बजट में एकीकृत किया जाता है।

किसी भी देश के राष्ट्रीय चुनाव के लिए चुनावी लागत तय करने की प्रक्रिया उस देश की सामाजिक, भौगोलिक, आर्थिक और राजनीतिक आवश्यकताओं के अनुसार अलग-अलग हो सकती है लेकिन इसे तय करते समय कुछ प्रमुख बिंदुओं पर फोकस किया जाता है।

कोर लागतः इसमें चुनाव कराने की बुनियादी प्रक्रियाएँ शामिल हैं, जैसे मतदाता पंजीकरण, चुनाव के लिए प्रशासनिक अधिकारियों की नियुक्ति, मतदान केंद्रों का चिह्नांकन, मतदान केंद्र बनाने की लागत, मतपत्र की तैयारी, मतपत्र मशीन की तैयारी, सुरक्षा बलों की तैयारी, परिवहन, संचार, चुनावी प्रशासनिक ढाँचा तैयार करने की लागत, मतगणना की तैयारी, निर्वाचन कानून की तैयारी और सुरक्षा एजेंसियों के लिए उपकरणों की व्यवस्था, चुनाव कराने के लिए आवश्यक अन्य रसद तैयारियाँ।

डिफ्यूज लागतः चुनावों में दूसरा सबसे बड़ा खर्च डिफ्यूज लागत है जिसे आसानी से पहचाना नहीं जा सकता है लेकिन यह चुनावों में विभिन्न हितधारकों की भागीदारी बढ़ाने के लिए खर्च किया जाता है। उदाहरण के लिए, इसमें मतदाता जागरूकता अभियान और मीडिया कवरेज शामिल हैं। इसमें विभिन्न नागरिक समाज संगठनों की भागीदारी तथा समाज के विभिन्न वर्गों और समूहों की समावेशी भागीदारी शामिल है। चुनाव प्रबंधन में जैसे-जैसे समावेशी प्रक्रिया बढ़ती जाती है, चुनाव खर्च में डिफ्यूज लागत बढ़ती जाती है। उदाहरण के लिए, यदि मतदाता सूची में मतदाताओं को पंजीकृत करने के लिए सिविल रजिस्ट्री कार्यालय की भागीदारी भी सुनिश्चित की जाती है, तो डेटा संग्रह और डेटा सुरक्षा के कारण मतदाता पंजीकरण प्रक्रिया की लागत बढ़ जाएगी, लेकिन यह बढ़ी हुई लागत सीधे दिखाई नहीं देगी। चुनाव प्रक्रिया में डिफ्यूज लागत का पता नहीं चल पाने का सबसे बड़ा कारण प्रभावी लागत ऑडिट का न होना है।

इंटीग्रिटी लागतः इंटीग्रिटी लागत में चुनावों की अखंडता को सुनिश्चित करने और स्वच्छ, पारदर्शी और शांतिपूर्ण चुनाव कराने के लिए आवश्यक मूल्य शामिल हैं। इसमें मुख्य रूप से ईवीएम की सुरक्षा, मतपत्र की सुरक्षा, नैतिक मतदान को बढ़ावा देने की प्रक्रिया शामिल है। इसमें वोट खरीदने और भ्रष्ट चुनावी प्रथाओं को रोकने के लिए तंत्र विकसित करने की लागत शामिल है। इसमें सुरक्षा एजेंसियों को सुदृढ़ करने, तकनीकी अनुप्रयोगों के विकास, साइबर सुरक्षा, नैतिक चुनावों को बढ़ावा देने के लिए मतदाता जागरूकता पर खर्च शामिल है। इसके साथ ही इसमें वर्तमान में, इलेक्ट्रॉनिक और सोशल मीडिया पर खर्च भी शामिल है। इसके अलावा, चुनाव प्रक्रिया की मजबूत निगरानी और पर्यवेक्षण की लागत भी इंटीग्रिटी लागत के अंतर्गत आती है। चुनाव में किसी भी प्रकार के खर्च को नियमित करने में लागत लेखांकन और लागत ऑडिट बहुत महत्वपूर्ण प्रक्रियाएँ हैं।

अंत में, किसी भी देश के चुनावी तंत्र को समझने के लिए यह समझना आवश्यक है कि चुनाव पर उस देश की सरकार कितना खर्च कर रही है। निर्धारित समय पर लोकतांत्रिक सरकार का निर्वाचन और शांतिपूर्ण एवं पारदर्शी चुनाव का आयोजन एक चुनौतीपूर्ण कार्य है, जिसे देश की आर्थिक स्थिरता बहुत प्रभावित करती है। यदि किसी देश की आर्थिक स्थिति कमजोर है, तो वहां लोकतांत्रिक व्यवस्था को स्थाई रखना एक चुनौतीपूर्ण कार्य बन जाता है।

  कपिल शर्मा  

(लेखक कपिल शर्मा भारतीय जनसंचार संस्थान (IIMC), नई दिल्ली से पत्रकारिता की पढ़ाई किये हैं। आईआईएमसी के पश्चात इन्होंने बिजनेस स्टैंडर्ड के लिए बिजनेस पत्रकारिता और टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल सांइस से चुनाव प्रबंधन का अध्ययन किया। कपिल पिछले एक दशक से ज़्यादा समय से बिहार में निर्वाचन अधिकारी एवं चुनाव प्रबंधन के अध्येता के रूप में कार्यरत हैं।)

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