ऑनर किलिंग: झूठे दंभ में अपनों को ही लीलते अपने
- 01 Mar, 2024 | वर्षा भम्भाणी मिर्ज़ा
"न्याय और शक्ति को एक साथ लाया जाना चाहिए ताकि जो कुछ न्यायसंगत है वह शक्तिशाली हो सके और जो शक्तिशाली है वह न्यायपूर्ण हो"-ब्लैज़ पास्कल
ऐसा कौन प्राणी इस धरती पर होगा जो अपने झूठे दम्भ में अपनों को ही समाप्त कर देता होगा। किसी जंगल राज में भी ऐसा नहीं देखा जाता जो मनुष्यों ने अपनी कथित सभ्य दुनिया में रचा लिया है। अपने झूठे मान के लिए अपनों के ही क़त्ल के बाद कानून और व्यवस्था भी किसी लाचार का भेस धर कर कोने में बैठी टुकुर-टुकुर ताका करती है। अगर ऐसा नहीं होता तो इन अपराधियों का कंविक्शन रेट केवल दो फीसदी ही क्यों होता। कभी खाप, कभी परिवार तो कभी समाज जज बनकर ऑनर किलिंग जैसी भयावह हिंसा को सही ठहराने लगते हैं और व्यवस्था अपराधी की हमदर्द बनकर उसे बचने के रास्ते बताने लगती है। देश में हर हिस्से में ऐसी घटनाएं हो रही हैं लेकिन एनसीआरबी (नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो)के आंकड़े कहते हैं कि 2020 में देशभर में ऑनर किलिंग्स के केवल 25 मामले दर्ज हुए हैं। युवा लड़के-लड़कियाँ मौत के घाट उतार दिए जाते हैं और लड़के अपहरण के मामले बना कर जेल के अंदर पहुंचा दिए जाते हैं। जबकि इनमें से अधिकांश मामले प्रेम से जुड़े होते हैं। वह प्रेम, जिसे परिवार बर्दाश्त नहीं कर पाते। ऑनर किलिंग के अपराधियों में केवल दो फीसदी को सजा होती है। सरकार 2017 से 2019 के बीच ऑनर किलिंग मामलों के केवल 145 आंकड़ा देती है जबकि तमिलनाडु की एक एनजीओ जो दलितों और आदिवासियों के मानव अधिकारों के लिए काम करती है, उसने अकेले तमिलनाडु में ही पांच साल में 195 मामलों का ब्यौरा दिया है। ज़ाहिर है, ऐसे अधिकांश मामलों में रिपोर्ट दर्ज़ नहीं की जाती। दुख और हैरानी तब और ज़्यादा होती है, जब पत्रकार भी इन हत्याओं का शिकार हो जाता है।
बरसों तक झारखण्ड के क़स्बे झुमरीतलैया के साथ मीठी फर्माइशों का नाम जुड़ा रहा था। आकाशवाणी के विविध भारती चैनल पर कई मधुर गीत केवल यहीं के बाशिंदों के आग्रह पर बजते थे। कुछ साल पहले यह नाम सुर्ख़ियों में था लेकिन अपनी सुरीली फरमाइशों के लिए नहीं बल्कि एक लड़की की चीत्कार के लिए। 22 साल की निरुपमा पत्रकार थी और प्रियभान्शु रंजन नाम के हमपेशा लड़के को हमसफ़र बनाना चाहती थी। लड़की ब्राह्मण और लड़का कायस्थ। दोनों दिल्ली में थे। छोटे शहरों से झोला उठाकर चलने वाले लड़के-लड़कियों में माता-पिता तमाम ख्वाब तो भर देते हैं लेकिन उन ख्वाबों का अहम् हिस्सा अपने कब्ज़े में रखना चाहते हैं। खूब पढो, अच्छा जॉब चुनों, ज्यादा कमाओ लेकिन जीवनसाथी? नहीं, नहीं…वह तुम खुद मत चुनों। ऐसा करने पर आसमान टूट पड़ता है। पढ़े-लिखे अभिभावक भी यहां पहुंचकर उनके पंख कतर देना चाहते हैं। निरुपमा के साथ भी यही हुआ। पुलिस ने मां को गिरफ्तार करते हुए कहा था कि उसने ख़ुदकुशी नहीं की बल्कि उसकी गला दबाकर हत्या की गयी है और वह दस हफ्ते के गर्भ से थी।
दरअसल, हर मध्यमवर्गीय भारतीय परिवार के भीतर एक खाप जिंदा है। वे उस खाप से बाहर आना नहीं चाहते। शादी के ज़रिये वे यह साबित करते हैं कि अपने बच्चों पर उनकी नकेल अब भी कसी हुई है। यह कसी हुई रहे तो ही उन्हें लगता है कि उनके संस्कार सही दिशा में हैं। इस सोच को ही क्या कहा जाए कि इक्कीसवीं सदी में भी दो वयस्कों का अपनी मर्ज़ी से शादी करना परिवारों को बर्दाश्त नहीं होता। ऐसा करने पर लड़का-लड़की दोनों के परिवार खून के प्यासे हो जाते हैं। अपने बच्चों को जी-जान से पालने वाले आखिर क्यों इतने कटु और सख्त हो जाते हैं? क्यों उन्हें कथित सम्मान अपनी संतान से प्यारा हो जाता है? क्यों वे राहत की सांस केवल तब लेते हैं, जब उनकी शिक्षित बेटी उनकी कही जगह पर ब्याह कर विदा हो जाती है? राम-सीता, शिव-पार्वती और राधे-कृष्ण का जाप करने वाला समाज कितने दोहरे मानदंडों को लेकर चलता है।
नीतीश कटारा और भारती यादव की हकीकत दिल दहला देने वाली है। भारती बाहुबली नेता डीपी यादव की बेटी थी और नीतीश के पिता रेलवे में अधिकारी रहे थे। दोनों गाज़ियाबाद के एक मैनेजमेंट इंस्टीट्यूट में मिले थे। मुलाकात प्रेम में बदल गई। कॉलेज के बाद भी दोनों में खतों-किताबत चलती रही। बाहुबली नेता डीपी को यह मंज़ूर न था। भारती के भाई विकास यादव ने कई बार नीतीश को धमकाया लेकिन वे दोनों इन धमकियों से नहीं डरे। गाज़ियाबाद में शादी के एक कार्यक्रम में डीपी का पूरा परिवार आया हुआ था। भारती के भाई विकास यादव का नीतीश से झगड़ा हुआ। उसके बाद विकास और उसके भाई उसे टाटा सफारी में डालकर वहां से ले गए। अगली सुबह नीतीश की लाश मिली। नीतीश की माँ नीलम कटारा को इस रिश्ते के बारे में मालूम था। उन्होंने भारती से फ़ोन पर बात की थी। भारती ने ही उन्हें बताया था कि शायद नीतीश को पंजाब लेकर गए हैं और उन्हें तुरंत पुलिस की मदद लेनी चाहिए। कोई मदद उन्हें नहीं मिली और एक मां के युवा बेटे को असमय मौत की नींद सुला दिया गया था। नीलम कटारा ने न्याय पाने के लिए ज़मीन-आसमान एक कर दिया। वे हर पेशी पर हाज़िर होती। घटना 2002 की है। केस साफ़ होकर भी उलझता रहा क्योंकि डीपी का रसूख था। गवाह पलट रहे थे। आखिरकार साल 2014 में नीतीश की माँ को न्याय मिला। भारती के भाइयों विशाल और विकास को अपहरण और हत्या के जुर्म में 30 साल के आजन्म कारावास की सजा मिली और कोर्ट ने अपने फैसले में इसे ‘ऑनर किलिंग’ का मामला बताया। नीतीश की माँ नीलम कटारा चाहती थीं कि बेटे के हत्यारों को फांसी की सजा मिले।
जटिल समाज और सामाजिकता
ऑनर किलिंग में शामिल व्यक्ति में यह भी देखा गया है कि अपराधी का आत्मविश्वास बुलंदी पर होता है। उसे कोई गिल्ट या तकलीफ की अनुभूति नहीं होती। कभी-कभार तो वह हत्या के बाद विजेता के भाव लिए थाने भी पहुंच जाता है। ऑनर किलिंग के इस अभिशाप से जाति और धर्म में बंटे समाज का कोई भी हिस्सा अछूता नहीं है। देश के लगभग हर हिस्से और हर तबके में ऐसी हिंसा देखी गई है। ऐसी हिंसा जो बहुत आम है लेकिन रिपोर्ट बहुत कम होती है। परिवार के बीच ही उसे या तो जला दिया जाता है या फिर दफ़न कर दिया जाता है। पुलिस भी इसमें बहुत रूचि नहीं ले पाती। वह अक्सर बाहुबलियों के या फिर समाज के ठेकेदारों का दबाव होता है। नेताओं को वोट बैंक टूटने का खतरा रहता है, इसलिए वे भी मामले को छिपाने में ही दिलचस्पी रखते हैं। नतीजतन, युवा आबादी पर हमेशा यह तलवार लटकी रहती है। कभी लड़के को तो कभी लड़की को और कभी दोनों को ही मार दिया जाता है। कभी दबाव में और अलग कर दिए जाने के डर से जोड़े ख़ुदकुशी भी कर लेते हैं। ट्रेन के नीचे आकर, कुँए में कूदकर, जहर पीकर ये युवा जान दे देते हैं। ये भी ऑनर किलिंग्स ही होती हैं। परिवार इनके रिश्तों को स्वीकार नहीं करते और ये दुनिया छोड़ देते हैं। राधा, कृष्ण और मीरा को पूजने वाला यह समाज अपने बच्चों के मामले में एकदम पाखंडी हो जाता है। जाति का झूठा मान उसके अपने बच्चों से ज़्यादा अहम् हो जाता है। वर्ण संकर से उसे परहेज है लेकिन अपने ही विशुद्ध बच्चों को वह मौत की नींद सुला देता है। क्या सच में हमें हमारी ही जड़ों और मूल्यों का ठीक-ठीक पता नहीं।
खाप पंचायतें और ऑनर किलिंग
जून 2023 की घटना है। कर्नाटक की नेत्रवती के पिता को उसका दलित लड़के से मेलजोल बिल्कुल पसंद नहीं था। पिता परशुराम ने उसकी कॉलेज की पढ़ाई छुड़वा दी और और उसका रिश्ता कहीं और तय कर दिया। नेत्रवती घर छोड़ कर चली गई। परिवार को लगा कि ऐसा करके लड़की ने परिवार कि इज़्ज़त मिट्टी में मिलाई है। उसे जहर पीने के लिए मजबूर किया गया। जब नेत्रवती ने ऐसा नहीं किया तो परशुराम ने अपने दोनों बेटों के साथ मिलकर नेत्रवती का गला दबा कर हत्या कर दी और फिर जुर्म को छिपाने के लिए खेतों में ही उसका दाह संस्कार भी कर दिया।
पश्चिम बंगाल का जिला बीरभूम, जो हमारे पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी का गृह जिला भी है, साल 2014 में संविधान की धज्जियां उड़ाने वाला जिला बनकर सामने आया था। एक लड़की के पड़ोसी, नाते-रिश्तेदार केवल इसलिए उसके साथ बलात्कार करने के लिए छोड़ दिए गए थे, क्योंकि उसने एक गैर-आदिवासी के साथ प्रेम किया था और इस प्रेम के अपराध के भुगतान के लिए पंचों द्वारा तय किए गए 25000 रुपए उसके पास नहीं थे। पश्चिम बंगाल के बीरभूम जिले के राजारामपुर-सबुलपुर गांव की आदिवासी लड़की ने एक गैर-आदिवासी लड़के से प्रेम किया था। भेद खुल गया। एक तरह की पंचायत सालिशि (मायने बिचौलिये से मिलते-जुलते हैं) सभा को यह गवारा नहीं था। उन्होंने दंडस्वरूप पच्चीस हजार रुपए लड़के को और 25 हजार रुपए लड़की के परिवार को जमा कराने का हुक्म सुना दिया। लड़के ने निर्धारित धन जमा करा दिया। वह पहले से शादीशुदा था और वहां से भाग गया। लडकी का परिवार यह राशि नहीं जुटा पाया तो पंचायत ने यह खौफनाक फरमान जारी कर दिया लड़की को ऐसा सबक सिखाओ कि फिर कभी कोई लड़की प्रेम का नाम भी ना ले सके। मुंशी प्रेमचंद की कहानी पंच परमेश्वर पढ़कर लगा था कि पंचों में परमेश्वर बसता है, लेकिन ये कैसे पंच हैं? और ये पंच स्त्रियों के मामले में इतने अनैतिक क्यों हो जाते हैं? हरियाणा में खाप पंचायत झूठे मान-सम्मान के नाम पर लड़की-लड़के दोनों को मरवा कर सीना तानती है। तमिलनाडु में कट्टा पंचायत है, जिनका भी राष्ट्र के संविधान से कोई लेना-देना नहीं। आखिर क्यों चलने दी जा रही हैं, यह समानांतर व्यवस्था। लानत है ऐसी व्यवस्था पर, जो अमानुषिक फरमान के खिलाफ कुछ नहीं कर पाती है। पंचायतें, खाप आखिर क्यों अब भी चल रही हैं, जबकि देश चलाने वाले संविधान की शपथ लेकर अपना पद धारण करते हैं?
कानून हो और स्पष्ट
दरअसल हम कितनी ही जटिल सामाजिक रचना वाले समाज क्यों ना हों, हमारे संविधान ने हर नागरिक को अधिकार दिए हैं। इन अधिकारों में स्पष्ट है कि भारत एक लोकतांत्रिक गणराज्य है, जिसमें हर नागरिक चाहे वह किसी भी जाति, धर्म और लिंग का क्यों न हो, अपनी मर्ज़ी से जीवनसाथी चुन सकता है और किसी भी धर्म का पालन कर सकता है। संविधान के आर्टिकल 14, 15, 19 और 21 उसकी इच्छा, चयन और आज़ादी को सुरक्षित करते हैं। अनुच्छेद 14 नागरिक के समान अधिकार की पैरवी करता है और 15 उसकी बराबरी को सुनिश्चित करता है। हर नागरिक कानून के आगे बराबर है, उसका जन्मस्थान भी कोई मायने नहीं रखता। यहां समाज भेदभाव करता है। ऑनर किलिंग के मामले में लड़कियां अधिक मारी जाती है। परिवार अपनी लड़कियों से ज़्यादा झूठी इज़्ज़त को महत्व देते हैं। आर्टिकल 19 नागरिक की आज़ादी को सुनिश्चित करता है और आर्टिकल 21 उसे गरिमा से जीवन जीने का अधिकार देता है। ऑनर किलिंग नागरिक के दोनों अधिकारों को खत्म करती है। यह जीवनसाथी चुनने के उसके चयन पर भी हमला है और उसकी आज़ादी पर भी। फिर भी इस अपराध को कानून में और स्पष्ट किए जाने की आवश्यकता है।
मनोज और बबली केस को एक ज़रूरी और लैंडमार्क निर्णय के बतौर देखा जा सकता है। 2007 में हरियाणा के बबली और मनोज अपनी मर्ज़ी से शादी कर ली थी। तब खाप ने मनोज के परिवार के खिलाफ फैसला सुनाया कि जो भी इनसे संपर्क रखेगा उनसे 25 हज़ार रूपए दंड लिया जाएगा। बबली के दादाजी खुद इस खाप पंचायत के सदस्य थे। बबली के परिवार ने मनोज के खिलाफ पुलिस में शिकायत दर्ज़ कराई कि मनोज ने बबली का अपहरण किया है। वे इसे समान गोत्र की शादी मान रहे थे। इस बीच दोनों पुलिस के सामने पेश हो गए और बताया कि दोनों ने शादी कर ली है। पुलिस ने दोनों को सुरक्षा प्रदान करते हुए शादी को वैध करार दिया। बबली के परिवार ने दोनों की हत्या कर दी। ऐसा उस समय किया गया, जब वे दोनों पुलिस प्रोटेक्शन में चंडीगढ़ जा रहे थे। आखिरकार साल 2010 में इस मासूम जोड़े को अपनी मौत के बाद न्याय नसीब हुआ। एक दूजे के लिए जीना चाहने वालों को समाज जीने नहीं देता। मनोज की मां को इन बच्चों से हमदर्दी थी लेकिन उसका इकलौता बेटा मार दिया गया था। पांच दोषियों को सजा सुनाई गई। उस ड्राइवर को भी सात साल की सजा हुई जिसने इस जोड़े का अपहरण किया था। ऑनर किलिंग को लेकर यह पहला महत्वपूर्ण निर्णय था।
परिवार की ओर से विचार किया जाए तो उन्हें सबसे बड़ा डर समाज का देखा गया है। उन्हें लगता है कि वे बिरादरी का सामना नहीं कर पाएंगे। वही बिरादरी जो उनके छोटे-बड़े समारोहों में महज़ औपचारिकता पूरी करने के लिए इकट्ठी हो जाती है, उन्हें अपनी लगती है। शादी हो या मौत, बड़ी भीड़ सभी को प्रभावित करती है। ख़ुशी और गम में चंद करीबियों का साथ सुकून नहीं देता। हम सब ऐसी शादियों के साक्षी हैं, जहां दूल्हा-दुल्हन बिना परिचय के आने वालों के लिए नकली मुस्कान बिखेरते चले जाते हैं। सच तो यह है कि हम एक नकली समाज हैं, जो भ्रम में जीता है। माता-पिता इसी समाज का हिस्सा। गैर धर्म और जाति में शादी जैसे मामलों में वे खुद को केवल ठगा हुआ ही नहीं, मृत महसूस कर लेते हैं। हताशा में वे अपने ही बच्चों की जान ले लेते हैं। मार डालते हैं। ताकि समाज उन्हें दोषी ना ठहराए। पीढ़ियों से यह भारतीय परिवारों की कश्मकश है। अब भी इसे गंभीरता से नहीं लिया गया तो इस समस्या और संघर्ष के बढ़ने की आशंका भी और बढ़ जाएगी।
निरुपमा के मामले में दुःख इसलिए भी होता है क्योंकि यह एक पढ़ा-लिखा परिवार था। पिता बैंक में, बड़ा भाई इनकम टैक्स में, छोटा भाई रिसर्च स्कॉलर। बात एक निरपराध निरुपमा की नहीं बल्कि उन सब लड़कियों की है, जिन्हें हम आज़ादी तो दे रहे हैं लेकिन नाप-तौल के। परिवार आज भी लकीर के फ़कीर ही मालूम होते हैं। शिक्षित लड़की जब अपनी राह चुनती है तो बर्दाश्त नहीं कर पाते। जाति का दंभ पशुता करने पर उतर आता है। इस दंभ के खिलाफ निरुपमा के मित्रों ने ज़रूर आवाज़ उठाई थी। यह कदम बहुत कुछ बदल सकता है। बदलाव इंसान को ही लाना होगा। लड़कियां सबसे पहले इंसान हैं। कविता ‘लेटर बॉक्स’ में राजस्थानी कवि विनोद विट्ठल अपनी बेटी के लिए लिखते हैं-
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और लहराओ जेठ की लू में, लहराती है लाल ओढ़नी जैसे।
वर्षा भम्भाणी मिर्ज़ा(लेखिका वर्षा भम्भाणी मिर्ज़ा ढाई दशक से अधिक समय से पत्रकारिता में सक्रिय हैं। ये दैनिक भास्कर, नईदुनिया, पत्रिका टीवी, राजस्थान पत्रिका, जयपुर में डिप्टी न्यूज़ एडिटर पद पर काम कर चुकी हैं। इन्हें संवेदनशील पत्रकारिता के लिए दिए जाने वाले लाडली मीडिया अवार्ड के राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है।) |