प्रश्न.अनुच्छेद 368 के तहत भारत के संविधान में संशोधन की प्रक्रिया का वर्णन कीजिये। इस संशोधन प्रक्रिया की अक्सर आलोचना क्यों की जाती है? (150 शब्द)
20 Nov 2021 | सामान्य अध्ययन पेपर 2 | राजव्यवस्था
दृष्टिकोण / व्याख्या / उत्तर
हल करने का दृष्टिकोण
- संविधान में संशोधन हेतु उपलब्ध संवैधानिक प्रावधानों का संक्षेप में उल्लेख कीजिये।
- अनुच्छेद 368 के तहत भारत के संविधान में संशोधन की प्रक्रिया की व्याख्या कीजिये।
- कारण दीजिये कि इस प्रक्रिया की अक्सर आलोचना क्यों की जाती है।
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बदलती परिस्थितियों और ज़रूरतों के साथ स्वयं को समायोजित करने के लिये भारत का संविधान इसके संशोधन का प्रावधान करता है। संविधान के भाग XX में अनुच्छेद 368 संविधान और इसकी प्रक्रिया में संशोधन करने के लिये संसद की शक्तियों से संबंधित है।
अनुच्छेद 368 के तहत निर्धारित संविधान के संशोधन की प्रक्रिया इस प्रकार है:
- संविधान में संशोधन की प्रक्रिया केवल संसद के किसी भी सदन में एक विधेयक पेश करके शुरू की जा सकती है, न कि राज्य विधानसभाओं में।
- विधेयक को या तो एक मंत्री या एक निजी सदस्य द्वारा पेश किया जा सकता है और इसके लिये राष्ट्रपति की पूर्व अनुमति की आवश्यकता नहीं होती है।
- विधेयक को प्रत्येक सदन में विशेष बहुमत से पारित किया जाना चाहिये अर्थात् सदन की कुल सदस्यता का बहुमत और सदन के उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत से।
- प्रत्येक सदन को अलग से विधेयक पारित करना होगा। दोनों सदनों के बीच असहमति के मामले में संयुक्त बैठक आयोजित करने का कोई प्रावधान नहीं है।
- यदि बिल संविधान के संघीय प्रावधानों में संशोधन करना चाहता है, तो इसे आधे राज्यों की विधायिकाओं द्वारा साधारण बहुमत से भी अनुमोदित किया जाना चाहिये।
- संसद के दोनों सदनों द्वारा विधिवत पारित होने और राज्य विधानसभाओं द्वारा अनुमोदित होने के बाद जहाँ आवश्यक हो, विधेयक को राष्ट्रपति की सहमति के लिये प्रस्तुत किया जाता है।
- राष्ट्रपति को विधेयक पर अपनी स्वीकृति देनी आवश्यक है। वह न तो विधेयक पर अपनी सहमति रोक सकता है और न ही विधेयक को पुनर्विचार के लिये संसद को लौटा सकता है।
- राष्ट्रपति की सहमति के बाद बिल एक अधिनियम (यानी एक संवैधानिक संशोधन अधिनियम) बन जाता है और अधिनियम की शर्तों के अनुसार संविधान में संशोधन किया जाता है।
संविधान संशोधन प्रक्रिया की आलोचना
- आलोचकों ने निम्नलिखित आधारों पर संविधान की संशोधन प्रक्रिया की आलोचना की है:
- संविधान में संशोधन प्रक्रिया शुरू करने की शक्ति संसद के पास है। राज्य विधायिका एक मामले को छोड़कर (राज्यों में विधानपरिषदों के निर्माण या उन्मूलन के लिये संसद से अनुरोध करने वाला प्रस्ताव पारित करना) संविधान में संशोधन के लिये कोई विधेयक या प्रस्ताव प्रस्तुत नहीं कर सकती है।
- संविधान के प्रमुख भागों में अकेले संसद द्वारा या तो विशेष बहुमत से या साधारण बहुमत से संशोधन किया जा सकता है। केवल कुछ मामलों में राज्य विधानसभाओं की सहमति की आवश्यकता होती है और वह भी उनमें से केवल आधी विधानसभाओं की।
- संविधान उस समयसीमा को निर्धारित नहीं करता है जिसके भीतर राज्य विधायिकाओं को उन्हें प्रस्तुत किये गए संशोधन की पुष्टि या उसे अस्वीकार करना चाहिये। इस मुद्दे पर भी यह चुप्पी साधे हुए है कि क्या राज्य इसके बाद अपनी मंज़ूरी वापस ले सकते हैं।
- संविधान संशोधन विधेयक के पारित होने पर गतिरोध होने की स्थिति में संसद के दोनों सदनों की संयुक्त बैठक आयोजित करने का कोई प्रावधान नहीं है।
- संशोधन की प्रक्रिया एक विधायी प्रक्रिया के समान है। विशेष बहुमत को छोड़कर, संविधान संशोधन विधेयकों को संसद द्वारा सामान्य विधेयकों की तरह ही पारित करना होता है।
संशोधन प्रक्रिया से संबंधित प्रावधान बहुत ही स्थूल हैं। इसलिये वे मामलों को न्यायपालिका तक ले जाने की व्यापक गुंजाइश प्रदान करते हैं। इन दोषों के बावजूद इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि यह प्रक्रिया सरल और आसान साबित हुई है और समाज की बदलती ज़रूरतों व परिस्थितियों को पूरा करने में सफल रही है। यह प्रक्रिया न तो इतनी लचीली है कि सत्ताधारी दलों को अपनी मर्जी के अनुसार इसे बदलने की अनुमति देती है और न ही यह बहुत कठोर है कि बदलती ज़रूरतों के लिये खुद को ढालने में असमर्थ हो।