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21 Nov 2021
रिवीज़न टेस्ट्स
रिवीज़न टेस्ट्स
रिवीज़न टेस्ट्स - 1
प्रश्न.1 मौर्य कला किसी धर्म विशेष की नहीं थी। विस्तृत व्याख्या कीजिये। (150 शब्द)
प्रश्न.2 ब्रिटिश भू-राजस्व नीति ने भारत में कृषि संबंधों को गहराई से परिवर्तित कर दिया। चर्चा कीजिये। (150 शब्द)
प्रश्न.3 भूकंप आने की घटना के लिये उत्तरदायी परिघटना को बताइये। भूकंपीय तरंगें कैसे छाया क्षेत्र का विकास करती हैं?
प्रश्न.4 भारत जनसांख्यिकीय संक्रमण के एक ऐसे चरण में है कि यदि नीति निर्माता इस जनसांख्यिकीय बदलाव के साथ विकासात्मक नीतियों को संरेखित करते हैं तो यह देश के तीव्र सामाजिक-आर्थिक विकास के लिये एक सुनहरा अवसर प्रदान करेगा। चर्चा कीजिये। (250 शब्द)
प्रश्न.5 शहरी बाढ़ के प्रति भारतीय शहरों की सुभेद्यता पर प्रकाश डालिये। इससे निपटने के लिये क्या उपाय अपनाए जाने चाहिये? (150 शब्द)
प्रश्न.6 कॉलेजियम प्रणाली की दक्षता को समय-समय पर इसकी स्वतंत्रता और न्यायिक नियुक्तियों की पारदर्शिता के संदर्भ में चुनौती दी गई है। समालोचनात्मक परीक्षण कीजिये। (250 शब्द)
प्रश्न.7 हाल ही में घोषित खाद्य तेल पर राष्ट्रीय मिशन - ऑयल पाम भारत को खाद्य तेल में आत्मनिर्भर बनने और आयात पर निर्भरता कम करने में मदद करेगा। आलोचनात्मक वर्णन कीजिये। (250 शब्द)।
प्रश्न.8 SCO, यूरेशियाई दिक् में एक प्रमुख क्षेत्रीय संगठन के रूप में उभरा है। इस कथन के आलोक में भारत द्वारा अपने राष्ट्रीय हित को पूरा करने के लिये उपलब्ध अवसर की चर्चा कीजिये। (250 शब्द)
प्रश्न.9 नागरिक घोषणापत्र का भारत में अनुभव कई कमियों को दर्शाता है। इस प्रकार यह समय भारत में नागरिक घोषणापत्र प्रणाली को अधिक प्रभावी बनाने के लिये सबसे उपयुक्त है। चर्चा कीजिये। (250 शब्द)
प्रश्न. 10 लोकप्रिय धारणा के विपरीत, भारत में जन्म के समय लिंगानुपात में कमी आई है जबकि प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि हुई है। चर्चा कीजिये। (250 शब्द)
उत्तर-1:
मौर्य राजवंश की स्थापना चंद्रगुप्त मौर्य ने ईसा पूर्व 322 सदी में पाटलिपुत्र में की। इस काल में मूर्तिकला और वास्तुकला दोनों का ही विकास हुआ। इस काल के पॉलिशदार भव्य स्तंभ वास्तुकला की विलक्षण कृतियाँ हैं तथा मूर्तिकला के क्षेत्र में भी इस काल की उत्कृष्ट कलाकृतियाँ (दीदारगंज यक्षिणी की प्रतिमा) विद्यमान हैं। इसी के साथ-साथ इस काल में स्तूप स्थापत्य, मृद्भांड निर्माण एवं गुफा स्थापत्य का भी विकास दिखाई देता है।
मौर्य कला पर अधिकतर प्रभाव इस साम्राज्य में प्रचलित धार्मिक मान्यताओं का रहा। इस समय की कला में धार्मिक संकेतकों का पर्याप्त प्रभाव दृष्टिगत होता है किंतु यह एक धर्म मात्र के प्रतीक न होकर उस समय भारतीय उपमहाद्वीप में प्रचलित सभी महत्त्वपूर्ण धर्मों अथवा मान्यताओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। जैसे-
- भरूत एवं साँची स्तूप में न केवल बुद्ध के पुनर्जन्म की जातक कथाएँ उकेरीं गईं बल्कि यक्ष-यक्षिणी एवं नागाओं की भी प्रतिमाएँ इस स्तूपों में दृष्टिगत होती हैं।
- कलाकारों ने गुफाओं तथा स्तंभों पर प्रकृति चित्रण तथा जीवों की प्रतिमाएँ उकेरी जो कि इस कला की धर्मनिरपेक्ष प्रकृति को प्रदर्शित करती हैं।
- इस काल की कला में न सिर्फ भारतीय बल्कि विश्व की अन्य संस्कृतियों की भी झलक देखी जा सकती है जैसा कि गांधार कला के संदर्भ में देखा जा सकता है जिसमें भरतीय प्रभाव के साथ-साथ ग्रीक एवं यूनानी प्रभाव भी दृष्टिगत होता है।
- इस काल में बौद्ध चैत्य, विहार एवं स्तूपों का तो विकास हुआ ही साथ में कुछ क्षेत्रों में जैन स्मारकों तथा आजीवकों के लिये बनाई गई स्थापत्य संरचनाओं का भी विकास हुआ।
इस समय बनाए गए एकास्म स्तंभों पर ईरानी धर्म एवं संस्कृति के प्रभावों को स्पष्ट तौर पर देखा जा सकता है। इस प्रकार देखा जाए तो मौर्य काल भारत में वस्तुकला एवं मूर्तिकला का दूसरा चरण माना जाता है जिसमें स्थानीय प्रभाव के साथ-साथ विदेशिक प्रभाव भी विद्यमान था तथा यह किसी धर्म विशेष के लिये समर्पित न होकर सर्वधर्म समभाव पर आधारित थी इस कला की उत्कृष्टता ही थी कि स्वतंत्र भारत ने अपना राजकीय चिह्न इसी कला से लिया।
उत्तर-2:
हल करने का दृष्टिकोण:
- भारत में भू-राजस्व नीतियों के विकास लिये उत्तरदायी वास्तविक कारणों को बताइये।
- बताइये कि कैसे ब्रिटिश भू-राजस्व नीतियों ने भारतीय कृषि के संबंधों को बदला।
- इन नीतियों के दुष्परिणामों को बताते हुए निष्कर्ष लिखिये।
अंग्रेज़ों के आगमन से पूर्व भारत में परंपरागत भूमि व्यवस्था में भूमि पर कृषकों का मालिकाना अधिकार था तथा वे फसल का एक निश्चित भाग सरकार को देते थे किंतु वर्ष 1765 में बंगाल में दीवानी अधिकार प्राप्त करने के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी ने भू-राजस्व की दरों में वृद्धि कर दी तथा नई भू-राजस्व नीतियों का प्रतिपादन किया। इन नीतियों का लक्ष्य अधिकतम लाभ प्राप्त करना था जिन्होंने कृषकों से इनके परंपरागत भू-अधिकार छीन लिये तथा कृषक अपनी ही भूमि पर बँटाईदार बनकर रह गए।
प्रमुख भू-राजस्व नीतियाँ जिन्होंने भारत में कृषि संबंधों को परिवर्तित किया
- वर्ष 1793 में लॉर्ड कॉर्नवालिस ने ज़मींदारी प्रथा को प्रारंभ किया जिसमें ज़मींदारों को भूमि का स्वामी घोषित किया गया। भूमि पर उनका पैतृक एवं हस्तांतरणीय अधिकार घोषित किया गया। उन्हें उनकी भूमि से तब तक पृथक् नहीं किया जा सकता था, जब तक वे अपना निश्चित लगान सरकार को दे रहे थे। इस व्यवस्था ने कृषकों के साथ अत्यधिक अत्याचार किया उन्हें उनके पंरपरागत भूमि अधिकारों से वंचित होना पड़ा तथा उनका ज़मींदारों द्वारा अत्यधिक शोषण हुआ।
- इसी प्रकार सर टॉमस मुनरो ने मद्रास में रैयतवाड़ी व्यवस्था प्रारंभ की। जिसमें सरकार ने रैयतों (कृषकों) के साथ सीधा संबंध स्थापित किया। इसमें रैयतों को भूमि का मालिकाना हक तथा कब्जादारी अधिकार दिया गया हालाँकि इस व्यवस्था ने कृषकों को बलपूर्वक खेती करने हेतु बाध्य किया तथा राजस्व न चुकाने पर उन्हें भूमि से बेदखल भी कर दिया। इसी प्रकार महालवाड़ी प्रथा के अंतर्गत भूराजस्व का निर्धारण पूरे गाँव के उत्पादन के आधार पर किया। इसने मुखिया को अत्यधिक शक्तिशाली बनाया। जिन्होंने कृषकों का अत्यधिक शोषण किया।
ब्रिटिश सरकार द्वारा कृषकों को बागानी फसलों की खेती करने के लिये भी मज़बूर किया तथा इनकी इन सभी नीतियों के कारण भारतीय कृषकों का अत्यधिक शोषण हुआ। इस प्रकार अंग्रेज़ों द्वारा भारत में भू-राजस्व वसूलने की विभिन्न पद्धतियों को अपनाया किंतु इन सभी का उद्देश्य अंग्रेज़ों का हित था जिसने भारतीय कृषकों को खेतिहर मज़दूर मांग बनाकर रख दिया, भारत में इस काल में बार-बार अकालों की आवृत्ति ने शोषणकारी ब्रिटिश भू-राजस्व नीतियों की क्रूरता को उजागर किया।
उत्तर-3:
हल करने का दृष्टिकोण:
- संक्षेप में भूकंप एवं उसके प्रभाव पर चर्चा कीजिये।
- भूकंप की उत्पत्ति की क्रियाविधि को बताइये।
- छाया क्षेत्र को परिभाषित कीजिये तथा इसका निर्धारण कैसे किया जाता है? यह भी बताइये।
भूकंप एक प्राकृतिक परिघटना है, जिसका शाब्दिक अर्थ-धरती में होने वाला कंपन है। प्राकृतिक रूप से आने वाले सभी भूकंप दुर्बलता मंडल (क्रस्ट का निचला भाग व मेंटल का ऊपरी भाग) में उत्पन्न होते हैं। भूकंप सभी प्राकृतिक आपदाओं में सर्वाधिक अप्रत्याशित एवं विनाशकारी घटना है। यह न केवल आधारभूत अवसंरचना को क्षति पहुँचाता है, बल्कि व्यक्तियों एवं वन्य जीवों को भी क्षति पहुँचाता है।
- भूकंप की उत्पत्ति भू-गर्भ में उत्सर्जित ऊर्जा तरंगों के कारण होती है। इन तरंगों की उत्पत्ति भ्रंश निर्माण या वलन की प्रक्रिया के साथ होती है। इन प्रक्रियाओं का कारण खिंचाव एवं संपीडन की शक्तियाँ हैं। जब भ्रंशन की क्रिया होती है तो चट्टानों में दबाव उत्पन्न होता है, जिससे दरार उत्पन्न होती है और चट्टानें एक-दूसरे के विपरीत संचलन करने लगती हैं, जिस कारण भूकंप की उत्पत्ति होती है।
- ठीक इसी प्रकार वलन की क्रिया में भूपटल पर मोड़ बनते हैं तथा भारी प्लेट का क्षेपण होता है, जिस कारण ‘बेनी ऑफ ज़ोन’ के सहारे भूकंपों की उत्पत्ति होती है। इसके अलावा ज्वालामुखी क्रिया, जल दबाव, उल्कापात एवं भूस्खलन जैसी घटनाओं से भी भूकंप की उत्पत्ति होती है।
- भूकंप की उत्पत्ति जिस बिंदु पर होती है, उसे भूकंप मूल कहते हैं। भूकंपीय तरंग की उत्पत्ति P तथा S तरंग के रूप में होती है, जिन्हें ‘पिंड तरंगें’ कहते हैं। जैसे ही भूकंपीय तरंग पृथ्वी की सतह पर आती हैं तो L तरंग की उत्पत्ति होती है, जिसे सतही तरंग कहते हैं। पृथ्वी के संघटन एवं संरचना में भिन्नता के कारण इन तरंगों की गति व पथ भिन्न-भिन्न होता है।
- ‘पिंड तरंगों’ की उत्पत्ति भूकंप मूल पर होती है, जो कि अपने उत्पत्ति स्रोत से चारों दिशाओं में गति करती हैं।
- P-तरंग सबसे तीव्र गति की तरंग हैं, जो ठोस, तरल एवं गैस, तीनों माध्यमों में गमन करती हैं तथा जिनकी तीव्रता सबसे कम होती है।
- S- तरंग मध्यम गति एवं उच्च तीव्रता की तरंग हैं, जो केवल ठोस माध्यम से गमन करती हैं।
चूँकि, पिंड तरंगें पृथ्वी के भीतर सभी दिशाओं में गमन करती हैं जब ये तरंगें बाह्य कोर पर गुटेनबर्ग असांतत्य पर पहुँचती हैं तो S- तरंग समाप्त हो जाती है और P तरंग 103°-142 के बीच अत्यधिक धीमी हो जाती है तथा उसकी उपस्थिति दर्ज नहीं की जाती। इस 103°-142 के बीच के क्षेत्र को ही छाया क्षेत्र कहा जाता है। छाया क्षेत्र की उत्पत्ति बाह्य कोर के तरल अवस्था में होने का संकेत करती है, जहाँ S तरंग विलुप्त हो जाती है और P तरंग लगभग लुप्त हो जाती है। 142° के बाद P तरंग की उपस्थिति पुन: दर्ज की जाती है।
उत्तर-4:
हल करने का दृष्टिकोण
- जनसांख्यिकीय लाभांश के बारे में बताते हुए उत्तर की शुरुआत कीजिये और बताइये कि यह किस प्रकार भारत के सामाजिक-आर्थिक विकास के लिये एक सुनहरा अवसर है।
- भारत में जनसांख्यिकीय लाभांश की प्राप्ति के समक्ष आने वाले मुद्दों पर चर्चा कीजिये।
- सुझाव दीजिये कि जनसांख्यिकीय लाभांश की प्राप्ति के लिये क्या नीति होनी चाहिये।
परिचय
संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष (UNFPA) के अनुसार, जनसांख्यिकीय लाभांश का अर्थ है, "आर्थिक विकास क्षमता जो जनसंख्या की आयु संरचना में बदलाव के परिणामस्वरूप प्राप्त हो सकती है, मुख्य रूप से तब जब कार्यशील आबादी (15 से 64 वर्ष) की हिस्सेदारी गैर-कार्यशील (14 और उससे कम, तथा 65 एवं उससे अधिक) की आबादी से अधिक हो"।
भारत में 15-59 वर्ष आयु वर्ग में 62.5% आबादी है और इसमें लगातार वृद्धि हो रही है। वर्ष 2036 के आसपास यह चरम पर होगी तथा लगभग 65% तक पहुँच जाएगी। आर्थिक सर्वेक्षण 2018-19 के अनुसार, वर्ष 2041 के आस-पास भारत का जनसांख्यिकीय लाभांश चरम पर होगा, जब कामकाजी आबादी का हिस्सा कुल जनसंख्या के 59% तक पहुँचने की संभावना व्यक्त की गई है।
प्रारूप
जनसांख्यिकीय लाभांश सुनहरा अवसर प्रदान करता है:
- कामकाजी उम्र की अधिक आबादी और आश्रित आबादी में कमी के कारण आर्थिक गतिविधियों में वृद्धि होगी जिनके परिणामस्वरूप बेहतर आर्थिक विकास होगा। इसे निम्नलिखित के माध्यम से समझा जा सकता है:
- बढ़ी हुई श्रम शक्ति अर्थव्यवस्था की उत्पादकता को बढ़ाती है।
- महिलाओं के कार्यबल में वृद्धि, जो स्वाभाविक रूप से प्रजनन क्षमता में गिरावट लाती है, विकास का एक नया स्रोत हो सकती है।
- बचत दर में वृद्धि, काम करने की उम्र भी बचत के लिये प्रमुख अवधि होती है।
जनसांख्यिकीय लाभांश से जुड़ी चुनौतियाँ
- कौशल की कमी: भविष्य में सृजित होने वाली अधिकांश नई नौकरियाँ अत्यधिक कौशल केंद्रित होंगी और भारतीय कार्यबल में कौशल की कमी एक बड़ी चुनौती है। निम्न मानव पूंजी आधार और कौशल की कमी के कारण भारत अवसरों का लाभ उठाने में चूक सकता है।
- निम्न मानव विकास मानदंड: यूएनडीपी के मानव विकास सूचकांक में भारत की स्थिति चिंताजनक है। इसलिये भारतीय कार्यबल को कुशल बनाने हेतु स्वास्थ्य तथा शिक्षा के मानकों में पर्याप्त सुधार करने की आवश्यकता है।
- भारत में अर्थव्यवस्था की अनौपचारिक प्रकृति भारत में जनसांख्यिकीय संक्रमण के लाभों को प्राप्त करने में आने वाली एक और बाधा है।
- रोज़गारविहीन विकास: इस बात की चिंता बढ़ती जा रही है कि गैर-औद्योगीकरण, वि-वैश्वीकरण, चौथी औद्योगिक क्रांति और तकनीकी प्रगति के कारण भविष्य में बेरोज़गारी में वृद्धि हो सकती है। एनएसएसओ के आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण 2017-18 के अनुसार, 15-59 वर्ष के आयु वर्ग के लिये भारत की श्रम शक्ति भागीदारी दर लगभग 53% है, यानी कामकाजी उम्र की आबादी का लगभग आधा बेरोज़गार है।
आगे की राह:
नीति निर्माण की आवश्यकता
- मानव पूंजी का निर्माण: स्वास्थ्य देखभाल, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, नौकरियों और कौशल के माध्यम से लोगों में निवेश करने से मानव पूंजी का निर्माण होता है, जो आर्थिक विकास का समर्थन करने, अत्यधिक गरीबी को समाप्त करने तथा अधिक समावेशी समाज के निर्माण हेतु महत्त्वपूर्ण है।
- युवा आबादी की रोज़गार क्षमता बढ़ाने के लिये कौशल विकास: भारत की श्रम शक्ति को आधुनिक अर्थव्यवस्था के लिये सही कौशल के साथ सशक्त बनाने की आवश्यकता है।
- शिक्षा: प्राथमिक, माध्यमिक और उच्च शिक्षा में उचित निवेश करके शैक्षिक स्तर को बढ़ाना होगा। भारत, जिसकी लगभग 41% आबादी 20 वर्ष से कम उम्र की है, एक बेहतर शिक्षा प्रणाली के साथ ही जनसांख्यिकीय लाभांश प्राप्त कर सकता है। साथ ही आधुनिक उद्योग की मांगों और शिक्षाविदों में सीखने के स्तर के बीच तालमेल स्थापित करने के लिये अकादमिक-उद्योग सहयोग की आवश्यकता है।
- स्वास्थ्य: स्वास्थ्य सेवा के बुनियादी ढाँचे में सुधार से युवा श्रमशक्ति के लिये अधिक संख्या में उत्पादक दिन सुनिश्चित होंगे, जिससे अर्थव्यवस्था की उत्पादकता में वृद्धि होगी।
- रोज़गार सृजन: युवाओं को कार्यबल में शामिल करने के लिये राष्ट्र को प्रति वर्ष दस मिलियन रोज़गार सृजित करने की आवश्यकता है।
- व्यवसायों के हितों और उद्यमिता को बढ़ावा देने से बड़े श्रमबल को रोज़गार प्रदान करने के लिये रोज़गार सृजन में मदद मिलेगी।
- विश्व बैंक के ईज़ ऑफ डूइंग बिजनेस इंडेक्स में भारत की बेहतर रैंकिंग इस दिशा में एक अच्छा संकेत है।
- शहरीकरण: आने वाले वर्षों में बड़ी युवा और कामकाजी आबादी अपने और अन्य राज्यों के शहरी क्षेत्रों में प्रवास करेगी, जिससे शहरी आबादी में तेज़ी से और बड़े पैमाने पर वृद्धि होगी।
- शहरी क्षेत्रों में इन प्रवासी लोगों की बुनियादी सुविधाओं, स्वास्थ्य और सामाजिक सेवाओं तक पहुँच सुनिश्चित करने हेतु इस पर शहरी नीति नियोजन का ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता है।
निष्कर्ष
जापान और कोरिया जैसे देशों के वैश्विक दृष्टिकोण से सीखकर और घरेलू जटिलताओं को ध्यान में रखते हुए समाधान तैयार करके हम जनसांख्यिकीय लाभांश के लाभों को प्राप्त करने में सक्षम हो सकते हैं।
उत्तर-5:
हल करने का दृष्टिकोण:
- संक्षिप्त परिचय दीजिये।
- उन कारकों की चर्चा कीजिये जो इस आपदा के लिये ज़िम्मेदार हैं।
- शहरी बाढ़ के लिये भारतीय शहरों की सुभेद्यता का विश्लेषण कीजिये।
- संकट से निपटने के उपाय सुझाइये।
एक बड़ी जलराशि के किसी क्षेत्र में आप्लव को बाढ़ के रूप में परिभाषित किया गया है। शहरी क्षेत्रों में बाढ़ तीव्र और लंबे समय तक वर्षा के कारण आती है, जो जल निकासी प्रणाली की क्षमता को न्यून कर देती है। हमारे शहर घनी आबादी वाले हैं और एक शहरी बाढ़ बहुत छोटे क्षेत्र में बड़ी संख्या में लोगों को प्रभावित करती है।
शहरी बाढ़ चार मुख्य कारकों के कारण आती है- मौसम विज्ञान संबंधी, जल विज्ञान संबंधी, मानवीय कारक और अनियमित मौसम प्रतिरूप :
- मौसम विज्ञान संबंधी कारक: इसमें भारी वर्षा, चक्रवाती तूफान और गरज के साथ बौछारें शामिल हैं।
- जल विज्ञान संबंधी कारक: इसमें ओवरबैंक प्रवाह प्रणाली नेटवर्क की उपस्थिति या अनुपस्थिति और तटीय शहरों में जल निकासी को बाधित करने वाले उच्च ज्वार की घटना शामिल है।
- मानवीय कारक: इसमें भूमि-उपयोग परिवर्तन, शहरीकरण (जिसमें जल का प्रवाह बढ़ जाता है), बांधों से पानी को अचानक छोड़ना और शहरी नालों एवं जल निकास प्रणाली में ठोस अपशिष्ट का अंधाधुंध निपटान आदि शामिल हैं।
- त्रुटिपूर्ण मौसम प्रतिरूप : शहरी बाढ़ आपदा का एक कारण कम अवधि में अधिक मात्रा में वर्षा भी है। जलवायु परिवर्तन के साथ, ऐसी वर्षा की पुनरावृत्ति की संभावना बढ़ गई है।
शहरी बाढ़ के प्रति भारतीय शहरों की सुभेद्यता:
- किसी भी शहर में, निचले इलाके (जैसे- रेलवे लाइन, सड़कें और राजमार्ग) जहाँ अनधिकृत बस्तियाँ विस्तारित हैं, ऐसे क्षेत्र होते हैं, जिनमें बाढ़ का खतरा सबसे अधिक होता है। ऐसे क्षेत्रों में रहने वाले लोगों को बाढ़ की आवर्ती के कारण अस्थायी सामग्रियों से निर्मित अपने घरों से हाथ धोना पड़ता है, जिसका कोई हिसाब नहीं मिलता है।
- बाढ़ का पानी अनुपचारित ठोस अपशिष्ट और मलजल को लंबे समय तक अनधिकृत बस्तियों के आसपास प्रसारित करता है जो बारिश के मौसम की तुलना में मलेरिया, डेंगू, डायरिया आदि के प्रकोप को बढ़ा देता है।
- इसके अलावा, शहरी बाढ़ महत्त्वपूर्ण बुनियादी ढाँचे को नुकसान पहुँचाती है। इससे सड़क और सेवाओं में व्यवधान उत्पन्न होता है और जनजीवन प्रभावित होता है।
क्या किये जाने की आवश्यकता है?
- मौजूदा जल निकासी मार्ग को अच्छी तरह से सीमांकित किया जाना चाहिये। शहर के प्राकृतिक जल निकासी प्रणाली, खासकर नदियों के बाढ़ के मैदानों पर कोई अतिक्रमण नहीं होना चाहिये।
- विशाल स्तम्भ जिन पर पुल, फ्लाईओवर और मेट्रो परियोजनाएँ टिकी हुई हैं, जल निकासी प्रणाली में अवस्थित हैं। कैंटिलीवर निर्माण जैसे इंजीनियरिंग डिज़ाइनों का उपयोग करके इससे बचा जा सकता है।
- भारी वर्षा के दौरान पानी को संग्रह करने के लिये विवेकपूर्ण रूप से चयनित स्थानों पर भंडारण तालाब बनाए जाने चाहिये ताकि इससे बहाव में कमी न आए। एक बार बारिश कम हो जाए तो पानी धीरे-धीरे छोड़ा जा सकता है।
- ‘स्पंज शहरों’ का विचार एक समाधान हो सकता है। यह विचार है कि शहरों को और अधिक पारगम्य बनाया जाए ताकि जो पानी गिरता है उसका उपयोग किया जा सके। स्पंज शहर बारिश के पानी को अवशोषित करते हैं, जो प्राकृतिक रूप से मिटेी द्वारा फिल्टर किया जाता है और शहरी जलसंभर तक पहुँच पाता है।
- शहरों में आर्द्रभूमि की पुनर्बहाली की जानी चाहिये क्योंकि आर्द्रभूमियाँ भारी वर्षा के दौरान अतिरिक्त पानी को अवशोषित करती हैं।
- भेद्यता विश्लेषण और जोखिम मूल्यांकन को शहर के मास्टर प्लान का हिस्सा बनाया जाना चाहिये।
- सूचना के प्रसार तथा तैयारी एवं रोकथाम के आकलन के लिये प्रौद्योगिकी का उपयोग किया जा सकता है। उदाहरण के लिये, चेन्नई (तमिलनाडु) में बाढ़ शमन के लिये तटीय बाढ़ चेतावनी प्रणाली एप (CFLOWS - Chennai) का शुभारंभ।
बाढ़ से कोई भी शहर सुरक्षित नहीं है। किसी भी शहर में कभी भी भारी बारिश हो सकती है। शहर के अधिकारियों और निवासियों को बाढ़ की आशंका वाले क्षेत्रों की पहचान करनी चाहिये और बाढ़ से निपटने के लिये तैयार रहना चाहिये। उन्हें यह सुनिश्चित करने के लिये उपाय करना चाहिये कि भारी वर्षा के समय जल निकासी की पर्याप्त व्यवस्था हो ताकि भेद्य क्षेत्र बाढ़ की चपेट में न आए। सर्वोत्तम प्रबंधन पद्धतियों और उचित नियोजन के माध्यम से, हम अपने शहरों को बाढ़ के अधिक अनुकूल बना सकते हैं।
उत्तर-6 :
हल करने का दृष्टिकोण
- कॉलेजियम प्रणाली और न्यायिक प्रणाली में इसकी आवश्यकता के बारे में लिखते हुए उत्तर की शुरुआत कीजिये।
- कॉलेजियम प्रणाली के कामकाज संबंधी मुद्दों पर चर्चा कीजिये।
- प्रचलित मुद्दों से निपटने के लिये रास्ता सुझाइये।
परिचय
कॉलेजियम प्रणाली न्यायाधीशों की नियुक्ति और स्थानांतरण की प्रणाली है जो सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों के माध्यम से विकसित हुई है, न कि संसद के अधिनियम या संविधान के प्रावधान द्वारा।
इसकी स्थापना न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति में स्वतंत्रता सुनिश्चित करने के लिये की गई थी।
प्रारूप
कॉलेजियम सिस्टम से जुड़े मुद्दे
- पारदर्शिता की कमी: कार्य करने के लिये लिखित मैनुअल का अभाव, चयन मानदंड का अभाव, पहले से लिये गए निर्णयों में मनमाने ढंग से उलटफेर, बैठकों के रिकॉर्ड का चयनात्मक प्रकाशन कॉलेजियम प्रणाली की अपारदर्शिता को साबित करता है।
- कोई नहीं जानता कि न्यायाधीशों का चयन कैसे किया जाता है और इन नियुक्तियों ने औचित्य, आत्म-चयन तथा भाई-भतीजावाद को जन्म दिया है।
- NJAC, एक चूका अवसर: राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC) अनुचित राजनीतिकरण से प्रणाली की स्वतंत्रता की गारंटी दे सकता है, नियुक्तियों की गुणवत्ता को मज़बूत कर सकता है और प्रणाली के प्रति जनता में पुनः विश्वास जागृत कर सकता है।
- सर्वोच्च न्यायालय ने वर्ष 2015 में फैसले को इस आधार पर रद्द कर दिया था कि इससे न्यायपालिका की स्वतंत्रता को खतरा है।
- सदस्यों के बीच सहमति का अभाव: कॉलेजियम के सदस्यों को अक्सर न्यायाधीशों की नियुक्ति के संबंध में आपसी सहमति के मुद्दे का सामना करना पड़ता है।
- कॉलेजियम के सदस्यों के बीच अविश्वास न्यायपालिका के भीतर की खामियों को उजागर करता है।
- असमान प्रतिनिधित्व: चिंता का दूसरा क्षेत्र उच्च न्यायपालिका की संरचना है, जबकि जाति संबंधी आँकड़े उपलब्ध नहीं हैं, वहीं उच्च न्यायपालिका में महिलाओं का प्रतिनिधित्व काफी कम है।
- न्यायिक नियुक्तियों में देरी: उच्च न्यायपालिका के लिये कॉलेजियम द्वारा सिफारिशों में देरी के कारण न्यायिक नियुक्ति की प्रक्रिया में देरी हो रही है।
- अन्य आलोचना: भाई-भतीजावाद की गुंजाइश, सार्वजनिक विवादों में उलझना, कई प्रतिभाशाली कनिष्ठ न्यायाधीशों और अधिवक्ताओं की अनदेखी।
आगे की राह
- नियुक्ति के लिये स्वतंत्र निकाय: रिक्तियों को भरना, कार्यपालिका और न्यायपालिका को शामिल करते हुए एक सतत् और सहयोगी प्रक्रिया है।
- हालाँकि यह एक स्थायी, स्वतंत्र निकाय के बारे में सोचने का समय है जो न्यायपालिका की स्वतंत्रता को बनाए रखने के लिये पर्याप्त सुरक्षा उपायों के साथ प्रक्रिया को संस्थागत बनाने हेतु न्यायिक प्रधानता की गारंटी देता है लेकिन न्यायिक विशिष्टता की नहीं।
- सिफारिश की प्रक्रिया में बदलाव: एक निश्चित संख्या में रिक्तियों के लिये आवश्यक न्यायाधीशों की संख्या का चयन करने के बजाय कॉलेजियम को राष्ट्रपति को वरीयता और अन्य मान्य मानदंडों के क्रम में नियुक्त करने के लिये संभावित नामों का एक पैनल प्रदान करना चाहिये।
- NJAC की तर्ज पर अधिनियम की स्थापना पर पुनर्विचार: सर्वोच्च न्यायालय NJAC अधिनियम में संशोधन कर सकता है ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि न्यायपालिका अपने निर्णयों में बहुमत का नियंत्रण बरकरार रखे।
- पारदर्शिता सुनिश्चित करना: कॉलेजियम के सदस्यों को एक नई शुरुआत करनी होगी और एक-दूसरे के साथ जुड़ना होगा।
- एक पारदर्शी प्रक्रिया में जवाबदेही शामिल होती है जो गतिरोध को हल करने के लिये बहुत आवश्यक है।
निष्कर्ष
यह अत्यंत महत्त्वपूर्ण है कि न्यायपालिका, जो कि नागरिक स्वतंत्रता का मुख्य कवच है, पूरी तरह से स्वतंत्र हो और कार्यपालिका के प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष प्रभाव से अलग हो।
देश के सर्वोच्च न्यायालय में नियुक्ति के लिये उच्चतम सत्यनिष्ठा वाले न्यायाधीशों की पहचान करना और उनका चयन करना भारत की न्यायिक प्रणाली की स्वतंत्रता सुनिश्चित करने के लिये सबसे उपयुक्त हो सकता है।
उत्तर-7:
हल करने का दृष्टिकोण
- खाद्य तेल पर राष्ट्रीय मिशन - ऑयल पाम के बारे में लिखते हुए उत्तर का की शुरुआत कीजिये।
- इस मिशन के महत्त्व पर चर्चा कीजिये।
- मिशन से जुड़े मुद्दों पर चर्चा कीजिये।
- आगे की राह बताते हुए उपयुक्त निष्कर्ष लिखिये।
परिचय
हाल ही में प्रधानमंत्री ने पाँच वर्ष की अवधि में 11,000 करोड़ रुपये से अधिक के निवेश के साथ ‘खाद्य तेल पर राष्ट्रीय मिशन’- ऑयल पाम (NMEO-OP) की घोषणा की। NMEO-OP एक नई केंद्र प्रायोजित योजना है। वर्ष 2025-26 तक पाम ऑयल के लिये अतिरिक्त 6.5 लाख हेक्टेयर का प्रस्ताव है।
इसका उद्देश्य घरेलू खाद्य तेल की कीमतों का दोहन करना है जो कि महँगे पाम ऑयल के आयात से तय होती हैं तथा देश को खाद्य तेल में आत्मनिर्भर बनाने के साथ वर्ष 2025-26 तक पाम ऑयल का घरेलू उत्पादन तीन गुना बढ़ाकर 11 लाख मीट्रिक टन करना है।
प्रारूप
योजना का महत्त्व
- किसानों की आय में वृद्धि:
- इससे आयात पर निर्भरता कम करने और किसानों को बाज़ार में नकदी संबंधी मदद करने से पाम ऑयल के उत्पादन को प्रोत्साहित करने की उम्मीद है।
- पैदावार में वृद्धि और आयात में कमी:
- भारत विश्व में वनस्पति तेल का सबसे बड़ा उपभोक्ता है। इसमें से पाम ऑयल का आयात उसके कुल वनस्पति तेल आयात का लगभग 55% है।
- यह इंडोनेशिया और मलेशिया से पाम ऑयल, ब्राज़ील और अर्जेंटीना से सोया तेल तथा मुख्य रूप से रूस व यूक्रेन से सूरजमुखी तेल का आयात करता है।
- भारत में 94.1% पाम ऑयल का उपयोग खाद्य उत्पादों में किया जाता है, विशेष रूप से खाना पकाने के लिये। यह पाम ऑयल को भारत की खाद्य तेल अर्थव्यवस्था हेतु अत्यंत महत्त्वपूर्ण बनाता है।
- भारत विश्व में वनस्पति तेल का सबसे बड़ा उपभोक्ता है। इसमें से पाम ऑयल का आयात उसके कुल वनस्पति तेल आयात का लगभग 55% है।
चिंताएँ
- जनजातीय समुदायों की भूमि पर प्रभाव:
- ऑयल पॉम एक लंबी अवधि के साथ पानी की खपत वाली, मोनोकल्चर फसल है, अतः इसकी लंबी अवधि छोटे किसानों के लिये अनुपयुक्त होती है और ऑयल पॉम के लिये भूमि उत्पादकता तिलहन की तुलना में अधिक होती है, जो ऑयल पॉम की खेती के लिये अधिक भूमि प्रयोग करने पर एक सवाल उत्पन्न करती है।
- यह जनजातीय/आदिवासियों को भूमि के सामुदायिक स्वामित्व से जुड़ी उनकी पहचान से अलग कर सकता है और "सामाजिक ताने-बाने को अस्त-व्यस्त कर सकता है"।
- ऑयल पॉम एक लंबी अवधि के साथ पानी की खपत वाली, मोनोकल्चर फसल है, अतः इसकी लंबी अवधि छोटे किसानों के लिये अनुपयुक्त होती है और ऑयल पॉम के लिये भूमि उत्पादकता तिलहन की तुलना में अधिक होती है, जो ऑयल पॉम की खेती के लिये अधिक भूमि प्रयोग करने पर एक सवाल उत्पन्न करती है।
- वन्यजीवों के लिये खतरा:
- "जैव विविधता हॉटस्पॉट और पारिस्थितिक रूप से नाजुक" क्षेत्र इसके मुख्य फोकस क्षेत्र हैं, ऑयल पॉम के बागान लगाने से वन क्षेत्र में कमी होगी जिससे लुप्तप्राय वन्यजीवों के आवास नष्ट होने का खतरा उत्पन्न होगा।
- आक्रामक प्रजाति:
- पाम/ताड़ एक आक्रामक प्रजाति है जो पूर्वोत्तर भारत का प्राकृतिक वन उत्पाद नहीं है और यदि इसे गैर-वन क्षेत्रों में भी उगाया जाता है तो जैव विविधता के साथ-साथ मिट्टी की स्थिति पर इसके प्रभाव का विश्लेषण किया जाना चाहिये।
- स्वास्थ्य से संबंधित चिंताएँ:
- पाम ऑयल के प्रति पेड़ को प्रतिदिन 300 लीटर पानी की आवश्यकता होती है, साथ ही उन क्षेत्रों में उच्च कीटनाशकों के उपयोग की आवश्यकता होती है जहांँ यह एक देशी फसल नहीं है, जिससे उपभोक्ता स्वास्थ्य संबंधी चिंताएंँ भी पैदा होती हैं।
- किसानों को उचित मूल्य की प्राप्ति नहीं:
- पाम ऑयल की खेती में सबसे महत्त्वपूर्ण मुद्दा ताज़ेफलों के गुच्छों का किसानों को उचित मूल्य न मिल पाना है।
- पाम ऑयल के ताज़े फलों के गुच्छे (FFBs) अत्यधिक भंगुर/नाज़ुक होते हैं जिन्हें कटाई के चौबीस घंटे के भीतर संसाधित करने की आवश्यकता होती है।
निष्कर्ष
यदि इसी तरह की सब्सिडी और समर्थन उन तिलहनों को दिया जाता है जो भारत के लिये स्वदेशी हैं तथा शुष्क भूमि पर भी कृषि के लिये उपयुक्त हैं, तो पाम ऑयल पर निर्भरता के बिना भी आत्मनिर्भरता प्राप्त की जा सकती है। यदि किसान पाम ऑयल की खेती करने के इच्छुक हैं और सरकार इसे प्रोत्साहित करती है तो कृषि भूमि पर पाम आयल के वृक्षों को उगाना एक समाधान होगा। अंत में, मिशन ऑयल पाम की सफलता कच्चे पाम तेल पर आयात शुल्क पर भी निर्भर करेगी।
उत्तर-8:
हल करने का दृष्टिकोण
- यूरेशियाई दिक् में एक महत्त्वपूर्ण संगठन के रूप में उभरे SCO के बारे में संक्षेप में बताते हुए परिचय दीजिये।
- चर्चा कीजिये कि SCO भारत को अपने राष्ट्रीय हितों को पूरा करने का अवसर कैसे प्रदान करता है।
- समूह से संबद्ध कुछ मुद्दों को हाइलाइट कीजिये और उन्हें आगे बढ़ाने का सुझाव दीजिये।
परिचय
मात्र दो दशक से भी कम समय में SCO यूरेशियन क्षेत्र में एक महत्त्वपूर्ण क्षेत्रीय संगठन के रूप में उभरा है। यह समूह यूरेशिया के लगभग 60% से अधिक क्षेत्रफल, वैश्विक आबादी के 40% से अधिक हिस्से और वैश्विक जीडीपी के लगभग एक-चौथाई हिस्से का प्रतिनिधित्त्व करता है।
प्रारूप
भारत के अवसर और SCO
- क्षेत्रीय सुरक्षा: यूरेशियन सुरक्षा समूह के एक अभिन्न अंग के रूप में SCO भारत को इस क्षेत्र में धार्मिक अतिवाद और आतंकवाद के कारण उत्पन्न होने वाले शक्तियों को बेअसर करने में सक्षम बनाएगा।
- ग़ौरतलब है कि अफगानिस्तान से पश्चिमी देशों की सेनाओं की वापसी और इस क्षेत्र में खुरासान प्रांत की स्थापना के साथ इस्लामिक स्टेट (Islamic State-IS) की सक्रियता में हुई वृद्धि ने क्षेत्र की शांति और स्थिरता के लिये एक नई चुनौती खड़ी कर दी है।
- क्षेत्रवाद की स्वीकार्यता: SCO उन कुछ चुने हुए क्षेत्रीय संगठनों में से एक है, जिनमें भारत अभी भी शामिल है, गौरतलब है कि हाल के कुछ वर्षों में सार्क (SAARC), क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी (RCEP) और ‘बीबीआईएन (BBIN)समझौता’ जैसे समूहों में भारत की सक्रियता में गिरावट देखने को मिली है।
- मध्य एशिया से संपर्क: SCO भारत की ‘कनेक्ट सेंट्रल एशिया नीति’ को आगे बढ़ाने के लिये एक महत्त्वपूर्ण मंच का कार्य कर सकता है।
- पाकिस्तान और चीन से निपटना: SCO भारत को एक ऐसा मंच प्रदान करता है, जहाँ वह क्षेत्रीय मुद्दों पर चीन और पाकिस्तान के साथ रचनात्मक चर्चा में शामिल हो सकता है और अपने सुरक्षा हितों को उनके समक्ष रख सकता है।
- अफगानिस्तान की स्थिरता के लिये: SCO अफगानिस्तान में तेज़ी से बदल रही स्थितियों और इस क्षेत्र में धार्मिक अतिवाद और आतंकवाद से उत्पन्न होने वाली शक्तियों (जिनसे भारत की सुरक्षा और विकास को खतरा हो सकता है) से निपटने के लिये एक वैकल्पिक क्षेत्रीय मंच के रूप में कार्य कर सकता है।
- रणनीतिक संतुलन: इन सबसे परे SCO में बने रहने को इसलिये भी महत्त्वपूर्ण माना जा रहा है, क्योंकि यह पश्चिमी देशों के साथ भारत के मज़बूत होते संबंधों के बीच वैश्विक राजनीति में भू-राजनीतिक संतुलन को बनाए रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
चुनौतियाँ जिन पर भारत को नेविगेट करने की आवश्यकता है:
- प्रत्यक्ष स्थलीय संपर्क की बाधाएँ: पाकिस्तान द्वारा भारत और अफगानिस्तान (तथा इसके आगे भी) के बीच भू-संपर्क की अनुमति न देना, भारत के लिये यूरेशिया के साथ अपने विस्तारित संबंधों को मज़बूत करने में सबसे बड़ी बाधा रहा है।
- रूस और चीन के बीच मज़बूत होता संपर्क: रूस द्वारा भारत को SCO में शामिल होने के लिये प्रोत्साहित करने के पीछे एक बड़ा कारण चीन की बढ़ती शक्ति को संतुलित करना था।
- हालाँकि वर्तमान में जब भारत ने अमेरिका के साथ अपने संबंधों को मज़बूत करने पर विशेष ध्यान दिया है, तो इसी दौरान रूस और चीन की बढ़ती निकटता भारत के लिये एक नई चुनौती बनकर उभर रही थी।
- बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव परियोजना पर मतभेद: भारत ने ‘बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव परियोजना’ को लेकर प्रत्यक्ष रूप से अपना विरोध स्पष्ट कर दिया है परंतु SCO के अन्य सदस्यों ने चीन की इस महत्त्वाकांक्षी परियोजना का समर्थन किया है।
- भारत-पाकिस्तान प्रतिद्वंद्विता: SCO सदस्यों ने पूर्व में इस संगठन को भारत-पाकिस्तान के प्रतिकूल संबंधों का बंधक बनाए जाने की आशंका व्यक्त की थी, परंतु हाल के दिनों की स्थितियों को देखते हुए उनका भय और भी बढ़ गया होगा।
आगे की राह:
- मध्य एशिया के साथ संपर्क सुधार: भारत मध्य एशिया में अपनी पहुँच को मज़बूत करने के लिये इस क्षेत्र में चीन के बढ़ते प्रभुत्त्व से जुड़ी रूस की चिंताओं को भुना सकता है, इसके अतिरिक्त मध्य एशियाई देश भी इस क्षेत्र में भारत द्वारा एक बड़ी भूमिका निभाए जाने को लेकर उत्सुक हैं।
- चीन के साथ संबंधों में सुधार: 21वीं सदी की वैश्विक राजनीति में एशियाई नेतृत्व को मज़बूती प्रदान करने के लिये यह बहुत ही आवश्यक है कि भारत और चीन द्वारा आपसी मतभेदों को शांति के साथ दूर करने के लिये एक व्यवस्थित प्रणाली को विकसित किया जाए।
- सैन्य सहयोग में वृद्धि: हाल के वषों में क्षेत्र में आतंकवाद संबंधी गतिविधियों में वृद्धि को देखते हुए यह बहुत ही आवश्यक हो गया है कि SCO द्वारा एक ‘सहकारी और टिकाऊ सुरक्षा ढाँचे’ का विकास किया जाए, साथ ही क्षेत्रीय आतंकवाद विरोधी संरचना को और अधिक प्रभावी बनाए जाने का भी प्रयास किया जाना चाहिये।
निष्कर्ष:
SCO की भूमिका और इसके उद्देश्यों की व्यापकता वर्तमान में न सिर्फ क्षेत्रीय बल्कि वैश्विक रणनीतिक तथा आर्थिक परिदृश्य के लिये भी बढ़ती हुई प्रतीत होती है। वर्तमान परिदृश्य में SCO के एक नए सदस्य के रूप में भारत को एक उपयुक्त एवं व्यापक यूरेशियन रणनीति तैयार करने की आवश्यकता होगी।
उत्तर-9:
हल करने का दृष्टिकोण:
- नागरिक घोषणापत्र का अवलोकन करते हुए संक्षिप्त पृष्ठभूमि दीजिये।
- भारत में नागरिक घोषणापत्र की सीमाओं को रेखांकित कीजिये।
- इसकी प्रभावशीलता में सुधार के लिये उपाय सुझाइये।
- आगे की राह सुझाते हुए निष्कर्ष दीजिये।
नागरिक घोषणापत्र सुशासन के तीन अनिवार्य पहलुओं- पारदर्शिता, जवाबदेही तथा प्रशासन की क्रियाशीलता पर बल देता है। यह उन समस्याओं का समाधान करने का प्रयास करता है, जिनका सामना लोक सेवाएँ प्रदान करने वाले संगठनों से संपर्क करते हुए दिन-प्रतिदिन नागरिकों को करना पड़ता है। यह सेवा प्रदाता और इसके प्रयोक्ता के मध्य विश्वास स्थापित करने का कार्य करता है।
मई 1997 के बाद से भारत में विभिन्न मंत्रालयों, विभागों एवं अन्य संगठनों ने अपने-अपने नागरिक घोषणापत्रों को जारी किया था। सार्वजनिक सेवा वितरण को आसान बनाने में इसकी प्रगति के बावजूद अभी भी इसमें कई कमियाँ विद्यमान हैं, जिन्हें निम्नवत् देखा जा सकता है-
- डिज़ाइन एवं सामग्री का अत्यधिक कमज़ोर होना: अधिकांश संगठनों के पास सार्थक एवं संक्षिप्त नागरिक घोषणापत्र का मसौदा तैयार करने की पर्याप्त क्षमता का अभाव है।
- लोगों में जागरूकता का अभाव तथा घोषणापत्र का धीमा अद्यतनीकरण।
- घोषणापत्र का मसौदा तैयार करते समय अंतिम-उपयोगकर्त्ताओं एवं एन.जी.ओ. से सलाह न लेना।
- घोषणापत्र का प्रारूप तैयार करते समय विशिष्ट नागरिकों एवं दिव्यांगों की आवश्यकताओं पर विचार न करना।
- संगठनों में समीक्षा तंत्र का अभाव एवं परिवर्तन हेतु प्रतिरोधी रुख अपनाया जाना।
भारत में नागरिक घोषणापत्र को प्रभावी बनाए जाने हेतु निम्नलिखित उपाय किये जा सकते हैं-
- आंतरिक पुनर्गठन से पूर्व घोषणापत्र का नियमन: नागरिक घोषणापत्र का नियमन सुनिश्चित कर संगठन का आंतरिक पुनर्गठन किया जाना चाहिये।
- व्यापक परामर्श प्रक्रिया: घोषणापत्र को संगठन के भीतर व्यापक विचार-विमर्श के पश्चात् ही तैयार किया जाना चाहिये।
- घोषणापत्र के निर्माण में फर्मों की प्रतिबद्धता सुनिश्चित करना।
- डिफाल्ट के केस में विवाद निवारण तंत्र का प्रयोग करना।
- नागरिक घोषणापत्रों का आवधिक मूल्यांकन किया जाना चाहिये।
- संगठनों द्वारा नागरिक घोषणापत्र तैयार करने की प्रक्रिया में सिविल सोसायटीज़ को शामिल किया जाना चाहिये।
यद्यपि नागरिक घोषणापत्र के प्रावधानों को लागू करने के लिये न्यायपालिका द्वारा बाध्य नहीं किया जा सकता, किंतु प्रत्येक संगठन को यह सुनिश्चित करना चाहिये कि उनके द्वारा किये गए वादों को पूरा करें तथा डिफॉल्ट के मामले में एक उपयुक्त प्रतिपूरक उपचारात्मक तंत्र उपलब्ध करना चाहिये। इसके अतिरिक्त नागरिक घोषणापत्र के संदर्भ में जनता की ज़िम्मेदारियों को भी निर्धारित करना चाहिये।
उत्तर-10:
हल करने का दृष्टिकोण
- दिये गए कथन का संदर्भ देते हुए परिचय दीजिये।
- जन्म के समय कम लिंगानुपात से संबंधित मुद्दों पर प्रकाश डालिये।
- जन्म के समय कम लिंगानुपात में सुधार के लिये आवश्यक उपायों पर चर्चा कीजिये।
- एक उपयुक्त निष्कर्ष लिखिये।
परिचय
सरकारी आँकड़ों का विश्लेषण करके इंडियास्पेंड (IndiaSpend) ने बताया कि भारत का पिछले 65 वर्षों में जन्म के समय लिंगानुपात कम हुआ है जबकि इसी अवधि में प्रति व्यक्ति आय लगभग 10 गुना बढ़ी है। हाल ही में प्रकाशित नमूना पंजीकरण प्रणाली (Sample Registration System) रिपोर्ट, 2018 से भी यह स्पष्ट होता है कि भारत में जन्म के समय लिंगानुपात वर्ष 2011 के 906 से घटकर वर्ष 2018 में 899 के स्तर पर पहुँच गया।
आय में वृद्धि इसका एक प्रमुख कारण हो सकती है जिसके परिणामस्वरूप साक्षरता में वृद्धि के साथ ही परिवारों के लिये लिंग-चयनात्मक (Sex-Selective) प्रक्रियाओं तक पहुँच आसान हो जाती है। इस तथ्य की पुष्टि इस बात से की जा सकती है कि कई भारतीय शहरों में ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में उच्च आर्थिक विकास होने के बाद भी लिंगानुपात कम है।
प्रारूप
- भारत में प्रति व्यक्ति आय में सुधार होने के बावजूद, पितृसत्तात्मक दृष्टिकोण और भेद-भावपूर्ण सांस्कृतिक प्रथाओं के कारण लिंगानुपात मौजूद है।
- लिंग पूर्वाग्रह की निरंतरता: UNPFA के अनुसार, महिला विरोधी पूर्वाग्रह कन्या भ्रूण हत्या के प्रमुख कारणों में शामिल है, क्योंकि वर्तमान समय में भी महिलाओं को पुरुषों के अधीनस्थ के रूप में देखा जाता है। परिणामस्वरूप बालिकाओं को शैक्षिक, स्वास्थ्य और पोषण संबंधी भेदभाव का सामना करना पड़ता है।
- पुत्र को वरीयता: भारत में लैंगिक समानता के विचार को विकसित करने हेतु किये गए विभिन्न प्रयासों के बावजूद भी कई माता-पिता ऐसे हैं जो यह मानते हैं कि बुढ़ापे में पुत्र ही उनकी अच्छी देखभाल कर सकते हैं, क्योंकि परिवार में केवल पुरुषों को धन कमाने वाला माना जाता है।
- सामाजिक प्रथाएँ: भारत में दहेज़ पर प्रतिबंध लगाने और इसे एक अपराध घोषित करने के बावजूद यह अभी भी प्रचलित है। बालिकाओं के माता-पिता को अभी भी माँगे गए दहेज़ (जो कि कभी-कभी बहुत अधिक होता है) के रूप में धन को खर्च करना पड़ता है। कई मामलों में यह भी देखा गया है कि लड़की आत्मनिर्भर हो तो भी दहेज़ लिया जाता है।
- प्रसवोत्तर लिंग चयन तकनीकों तक पहुँच: भारत में पाँच वर्ष से कम उम्र की प्रत्येक 1000 लड़कियों पर तेरह से अधिक मौते दर्ज की गई हैं। यह विश्व में पाँच वर्ष से कम उम्र की लड़कियों की मृत्यु की उच्चतम दर है। इस निराशाजनक तस्वीर के लिये बेहतर आय और प्रसव के बाद लिंग चयन तकनीक के बारे में जागरूकता को ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है।
जन्म के समय निम्न लिंगानुपात से संबंधित अन्य मुद्दे
- लैंगिक-असंतुलन: प्रो. अमर्त्य कुमार सेन ने अपने विश्व प्रसिद्ध लेख "मिसिंग वूमेन" में सांख्यिकीय रूप से यह साबित किया है कि पिछली शताब्दी के दौरान दक्षिण एशिया में 100 मिलियन महिलाएँ लापता हुई हैं।
- भेदभाव उनकी मृत्यु में वृद्धि का एक कारण होता है जिसे वे पूरे जीवन चक्र में अनुभव करती हैं। प्रतिकूल बाल लिंगानुपात भी पूरी आबादी के विकृत लैंगिक ढाँचे में परिलक्षित होता है।
- विवाह प्रणाली में विकृति: प्रतिकूल अनुपात के परिणामस्वरूप पुरुषों और महिलाओं की संख्या में व्यापक असंतुलन हो जाता है, जिसका प्रभाव विवाह प्रणाली तथा साथ ही महिलाओं को अन्य दूसरी परेशानियों के रूप में दिखाई देता है।
- भारत में हरियाणा और पंजाब के कुछ गाँवों में लिंगानुपात इतना कम है कि पुरुष दूसरे राज्यों से वधु का "आयात" करते हैं। ऐसी स्थिति में अक्सर उनका शोषण होता है। यह भी चिंता का मुद्दा है कि विषम लिंगानुपात हिंसा के साथ-साथ मानव-तस्करी का भी कारण बनता है।
जन्म के समय निम्न लिंगानुपात में सुधार के उपाय:
- व्यवहार परिवर्तन: महिला शिक्षा में वृद्धि तथा और आर्थिक समृद्धि से अनुपात में सुधार करने में मदद मिल सकेगी।
- इस दिशा में, सरकार के बेटी-बचाओ-बेटी पढ़ाओ अभियान ने समाज के व्यवहार को परिवर्तित करने में उल्लेखनीय सफलता प्राप्त की है।
- युवाओं को संवेदनशील बनाना: प्रजनन स्वास्थ्य शिक्षा और सेवाओं के साथ-साथ लिंग निष्पक्षता मानदंडों को विकसित करने के लिये युवाओं तक तत्काल पहुँच स्थापित करने की आवश्यकता है।
- इसके लिये, मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्त्ता (आशा) की सेवाओं का लाभ उठाया जा सकता है, विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में।
- कानून का सख्त प्रवर्तन: भारत को पूर्व गर्भाधान और प्रसव पूर्व निदान तकनीक (लिंग चयन का प्रतिषेध) अधिनियम, 1994 को और अधिक सख्ती से लागू करना चाहिये तथा लड़कों को प्राथमिकता देने वाली अवधारणाओं से लड़ने के लिये अधिक संसाधन समर्पित करने चाहिये।
- इस संदर्भ में ड्रग्स तकनीकी सलाहकार बोर्ड द्वारा अल्ट्रासाउंड मशीनों को ड्रग्स एंड कॉस्मेटिक्स एक्ट, 1940 में शामिल करने का निर्णय सही दिशा में उठाया गया एक कदम है।
निष्कर्ष
यद्यपि भारत ने अपनी जनसंख्या वृद्धि दर को कम करने के लिये कई प्रभावशाली लक्ष्य बनाए हैं, भारत और शेष विश्व को सार्थक जनसंख्या नीति को प्राप्त करने के लिये एक लंबा रास्ता तय करना है जो न केवल मात्रात्मक नियंत्रण बल्कि गुणात्मक नियंत्रण पर भी आधारित है