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  • 15 Nov 2021 सामान्य अध्ययन पेपर 2 राजव्यवस्था

    प्रश्न. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने स्वयं को एक नखदंतविहीन बाघ कहा है जो वैधानिक निकाय के मज़बूर होने की एक अपमानजनक स्वीकृति है। कथन का विश्लेषण कीजिये।

    उत्तर

    हल करने का दृष्टिकोण:

    • राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का संक्षिप्त परिचय दीजिये।
    • राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की शक्तियों का उल्लेख कीजिये और तत्पश्चात् आयोग द्वारा सामना की जाने वाली विभिन्न चुनौतियों तथा सीमाओं को उजागर कीजिये।
    • समाधान सुझाते हुए निष्कर्ष लिखिये।

    राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एन.एच.आर.सी.) एक वैधानिक निकाय है, जिसे वर्ष 1993 में मानव अधिकारों के संरक्षण अधिनियम (पी.एच.आर.ए.) के अंतर्गत स्थापित किया गया था और वर्ष 2006 में इसका संशोधन किया गया। यह संस्थान मानव अधिकारों के संवर्द्धन एवं संरक्षण के लिये भारत की सजगता का प्रतीक है।

    यह पेरिस सिद्धांतों जिन्हें अक्तूबर 1991 में मानव अधिकारों के संवर्द्धन एवं संरक्षण के लिये राष्ट्रीय संस्थान पर पहली अंतर्राष्ट्रीय कार्यशाला में अपनाये गए थे, के अनुरूप है।

    एन.एच.आर.सी. की शक्तियाँ निम्न हैं:

    • एन.एच.आर.सी. के अधीन मानवाधिकारों के उल्लंघन से संबंधित शिकायतों पर स्वत: संज्ञान लेने या याचिका प्राप्त करने के बाद जाँच करने की शक्ति है।
    • इसके पास मानवाधिकारों के उल्लंघन के किसी भी आरोप में किसी न्यायालय के समक्ष लंबित किसी भी कार्यवाही में उसी न्यायालय के अनुमोदन के साथ हस्तक्षेप करने की शक्ति है।
    • अधिनियम के तहत शिकायतों की जाँच करते समय, इसमें दीवानी न्यायालय की सभी शक्तियाँ निहित होती हैं और यह अंतरिम राहत प्रदान कर सकती है।
    • यह केंद्र और राज्य सरकारों दोनों को मानव अधिकारों के उल्लंघन को रोकने के लिये उपयुक्त कदम उठाने की सिफारिश कर सकता है। यह भारत के राष्ट्रपति को अपनी वार्षिक रिपोर्ट प्रस्तुत करता है जो संसद के प्रत्येक सदन के समक्ष रखी जाती है।
    • इसके पास पीड़ित पक्ष को मुआवजे के भुगतान की सिफारिश करने का भी अधिकार है।

    तथापि, एन.एच.आर.सी. की सामान्यत: वास्तविकता में परिवर्तन लागू करने में असमर्थता के लिये आलोचना की जाती है और इसे केवल एक नखदंतविहिन बाघ बना दिया गया है:

    • एन.एच.आर.सी. को सलजी सोराबजी (भारत के पूर्व महान्यायवादी) ने ‘दर्द देने वाला भ्रम-जाल’ (India's Teasing Illusion) की संज्ञा दी है, क्योंकि यह पीड़ित पक्ष को कोई व्यावहारिक राहत प्रदान करने में असमर्थ है।
    • एन.एच.आर.सी. के अधीन जाँच का कोई समर्पित तंत्र नहीं है। अधिकांश मामलों में, यह केंद्र तथा संबंधित राज्य सरकारों से मानवाधिकारों के उल्लंघन के मामलों की जाँच करने के लिये कहता है।
    • एन.एच.आर.सी. के पास निर्णय लागू करने की शक्ति नहीं है, यह केवल सिफारिशें कर सकता है।
    • बड़ी संख्या में शिकायतें अनसुनी हो जाती हैं क्योंकि एन.एच.आर.सी. घटना के एक वर्ष के बाद दर्ज की गई शिकायत की जाँच नहीं कर सकता है।
    • सरकार अक्सर एन.एच.आर.सी. की सिफारिशों को स्पष्ट रूप से खारिज कर देती है या इन सिफारिशों का आंशिक अनुपालन ही होता है।
    • राज्य मानवाधिकार आयोग राष्ट्रीय सरकार से जानकारी नहीं मांग सकते हैं, जिसका अर्थ है कि इनके पास राष्ट्रीय नियंत्रण में आने वाले सशस्त्र बलों की जाँच करने की शक्ति नहीं है।
    • सशस्त्र बलों द्वारा मानवाधिकारों के उल्लंघन की जाँच करने संबंधी राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की शक्तियाँ बहुत ही सीमित हैं।
    • सीमित स्वीकृत शक्ति के अलावा, एन.एच.आर.सी. का लगभग 50 प्रतिशत कर्मचारी अन्य सेवाओं से प्रतिनियुक्ति पर है। ये अधिकारी बदलते रहते हैं और आयोग में हमेशा जरूरत से कम अधिकारी ही रह जाते हैं।
    • यह अधिनियम जम्मू-कश्मीर तक विस्तृत नहीं है, आयोग को वहां हो रहे मानवाधिकारों के उल्लंघन को नजरंदाज करना पड़ता है।
    • अधिनियम में जब निजी पार्टियों के माध्यम से मानव अधिकारों का उल्लंघन होता है, स्पष्ट रूप से एन.एच.आर.सी. को कार्यवाही करने का अधिकार नहीं है।

    एन.एच.आर.सी. को कुछ अन्य उपाय शामिल करके और अधिक मज़बूत बनाया जा सकता है जैसे:

    • यदि आयोग के निर्णयों को लागू किया जाए। सरकार द्वारा एन.एच.आर.सी. की कार्यकुशलता को बढ़ाया जा सकता है,
    • एन.एच.आर.सी. को उचित अनुभवी कर्मचारियों का एक स्वतंत्र कैडर विकसित करने की आवश्यकता है।
    • अधिकारियों को इसकी सिफारिशों को लागू करने के लिये आयोग को अवमानना शक्तियाँ भी दी जा सकती हैं।

    इस प्रकार यह तर्क दिया जा सकता है कि देश में मानवाधिकारों के एक सच्चे प्रहरी के रूप में एन.एच.आर.सी. को और अधिक प्रभावी बनाने के लिये पुनर्जीवित करने की आवश्यकता है।

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