प्रश्न. नरमपंथी नेताओं की राजनीतिक कार्य पद्धति की चर्चा करते हुए राष्ट्रीय आंदोलन में इनके योगदान पर भी प्रकाश डालिये। (250 शब्द)
दृष्टिकोण / व्याख्या / उत्तर
हल करने का दृष्टिकोण:
- नरमपंथी राजनीतिज्ञों का संक्षिप्त परिचय दीजिये।
- उनकी राजनीतिक कार्य-पद्धति की चर्चा कीजिये।
- राष्ट्रीय आंदोलन में उनके महत्त्व को बताइये।
- उचित निष्कर्ष दीजिये।
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भारतीय राष्ट्रीय कॉन्ग्रेस की स्थापना के शुरुआती चरण (1885-1905) को उदारवादी चरण अथवा नरमपंथी चरण के रूप में जाना जाता है। इस समय कॉन्ग्रेस ने सीमित उद्देश्यों के लिये कार्य किया और अपने संगठन को मज़बूत करने पर अधिक ध्यान केंद्रित किया। इस समय दादा भाई नौरोजी, पी.एन. मेहता, डी.ई. वाचा, डब्ल्यू.सी. बनर्जी, एस.एन. बनर्जी, गोपालकृष्ण गोखले जैसे राष्ट्रीय नेताओं का प्रभुत्व कॉन्ग्रेस पर था। ये उदारवाद एवं उदारवादी राजनीति में अत्यधिक विश्वास करते थे जिस कारण इन्हें नरमपंथी कहा गया।
नरमपंथियों का मुख्य उद्देश्य ब्रिटिश सत्ता के अंतर्गत स्वशासन प्राप्त करना था। वे हिंसा व टकराव के बजाय धैर्य एवं सामंजस्य में विश्वास करते थे। वे अपने उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु संवैधानिक एवं शांतिपूर्ण तरीकों में भरोसा करते थे।
उदारवादी नेताओं की राजनीतिक कार्य-पद्धति
- उन्होंने लोगों को शिक्षित करने, उनकी राजनीतिक चेतना जगाने और सार्वजनिक राय बनाने के लिये सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक विषयों पर बैठकें आयोजित की और उन पर व्यापक चर्चाएँ की।
- उन्होंने देश के सभी हिस्सों से भाग लेने वाले प्रतिनिधियों के साथ वार्षिक सत्र आयोजित किये। चर्चा के बाद जिन संकल्पों को अपनाया गया उनकी जानकारी और उचित कार्यवाही के लिये ब्रिटिश सरकार को प्रार्थना-पत्र सौंपे गए।
- ब्रिटिश जनमत को भारतीय पक्ष में करने के लिये इंग्लैंड के विभिन्न हिस्सों में व्याख्यानों की व्यवस्था की। एक साप्ताहिक पत्र ‘इंडिया’ का प्रकाशन ब्रिटिश जनता में भारतीय विचारों के प्रसार के लिये किया।
- नरमपंथियों ने विभिन्न समाचार-पत्रों तथा क्रोनिकल्स जैसे- ‘बंगाली’, बॉम्बे क्रॉनिकल, हिंदुस्तान टाइम्स, नेशनलिस्ट वीकली, इंदुप्रकाश, बॉम्बे-एंग्लो, मराठी डेली, रास्त गोफ्तार तथा साप्ताहिक जर्नलों की सहायता से ब्रिटिश नीतियों की आलोचना की।
- उन्होंने ब्रिटिश शासन की अपनी भाषाओं के माध्यम से आलोचना की तथा जगह-जगह प्रतिनिधि भेजे ताकि ब्रिटिश नीतियों के विरोध में जनमत जुटाया जा सके।
नरमपंथियों के प्रमुख योगदान
- ब्रिटिश साम्राज्यवाद की आर्थिक आलोचना: प्रारंभिक राष्ट्रवादियों ने ब्रिटिश शासन की शोषणमूलक आर्थिक नीतियों का अनावरण करते हुए ‘धन निकासी सिद्धांत’ का प्रतिपादन किया। इनका उद्देश्य भारत की गरीबी एवं आर्थिक पिछड़ेपन के लिये ब्रिटेन के विरुद्ध एक भारतव्यापी राय बनाने का था।
- व्यवस्थापिका में संवैधानिक सुधार एवं अधिप्रचार: भारत में 1920 तक व्यवस्थापिकाओं को कोई वास्तविक प्रशासनिक अधिकार प्राप्त नहीं थे। किंतु राष्ट्रवादियों ने उदासीन नौकरशाही के दोषों को उजागर करने, जनता की शिकायतों के निवारण के लिये, सार्वजनिक बिल के संदर्भ में प्रस्ताव लाकर इन व्यवस्थापिकाओं के महत्त्व को बढ़ाया तथा परिषदों के विस्तार, इनमें सुधार तथा इनमें भारतीयों की भागीदारी बढ़ाने में योगदान दिया।
- सामान्य प्रशासकीय सुधारों के लिये प्रयास: उन्होंने प्रशासन में सुधार के लिये कई प्रयास, जैसे- प्रतिनिधिमूलक विधानसभाएँ, सेवाओं का भारतीयकरण, सैन्य व्ययों में कटौती, शिक्षा, रोज़गार तथा सिविल सेवाओं का भारत में आयोजन एवं कृषकों पर करों के बोझ को कम करने के किये।
- नागरिक अधिकारों की सुरक्षा: उन्होंने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, संगठन बनाने एवं प्रेस की स्वतंत्रता तथा मानव की स्वतंत्रता जैसे अधिकारों की प्राप्ति हेतु सशक्त आंदोलन चलाए।
नरमपंथी आधुनिक राजनीतिक विचारों से लोगों को परिचित कराना चाहते थे और राजनीतिक मोर्चे पर एक प्रभावी जनमत बनाना चाहते थे। आलोचक अक्सर इन पर प्रार्थनाओं एवं याचिकाओं के माध्यम से राजनीतिक भिक्षावृत्ति जैसे आरोप लगाते हैं किंतु यदि कॉन्ग्रेस अपने शुरुआती चरण में उग्र रूप अपनाती तो उसे उसकी शैशवावस्था में ही कुचल दिया जाता। उदारवादियों ने आने वाले समय में एक सशक्त उग्रवादी व जनाधारित राष्ट्रीय आंदोलन के लिये एक मज़बूत आधार तैयार किया। इस प्रकार देखा जाए तो नरमपंथियों ने ब्रिटिश दमन से बचने के लिये अधिक विवेकपूर्ण, शांतिपूर्ण एवं संवैधानिक तरीके को अपनाया।