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  • 20 Nov 2021 सामान्य अध्ययन पेपर 2 राजव्यवस्था

    प्रश्न. सहकारी क्षेत्र की अपार परिवर्तनकारी शक्ति को अभी तक बेहतर ढंग से महसूस नहीं किया जा सका है। इस कथन के आलोक में इस क्षेत्र की क्षमता का पूर्ण दोहन करने के उपाय सुझाइये। (250 शब्द)

    उत्तर

    हल करने का दृष्टिकोण

    • सहकारी क्षेत्र और राष्ट्र के विकास में इसके महत्त्व के बारे में लिखते हुए उत्तर की शुरूआत कीजिये।
    • सहकारी क्षेत्र से जुड़े मुद्दों पर प्रकाश डालिये।
    • इस क्षेत्र की क्षमता का पूर्ण उपयोग करने के लिये कुछ उपाय सुझाइये।

    परिचय

    अंतर्राष्ट्रीय सहकारिता गठबंधन (International Cooperative Alliance- ICA), सहकारिता (Cooperative) को "संयुक्त स्वामित्व वाले और लोकतांत्रिक रूप से नियंत्रित उद्यम के माध्यम से अपनी आम आर्थिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक ज़रूरतों एवं आकांक्षाओं को पूरा करने के लिये स्वेच्छा से एकजुट व्यक्तियों के स्वायत्त संघ" के रूप में परिभाषित करता है।

    संविधान (97वाँ संशोधन) अधिनियम, 2011 द्वारा भारत में काम कर रही सहकारी समितियों के संबंध में भाग IXA (नगरपालिका) के ठीक बाद एक नया भाग IXB जोड़ा गया।

    प्रारूप

    सहकारिता का महत्त्व

    • बाज़ार विकृतियों से कमज़ोर वर्गों की रक्षा: सहकारिता आवश्यक है क्योंकि बाज़ार कमज़ोर वर्गों की आवश्यकताओं का ध्यान नहीं रख सकता है। सहकारी संस्थाओं को जहाँ भी सफलता मिली है, वहाँ उन्होंने बाज़ार विकृतियों (market distortions) को सफलतापूर्वक संबोधित किया है।
      • इन संस्थाओं ने बिचौलियों/मध्यस्थों को हटाकर आपूर्ति श्रृंखला को सुगठित भी किया है, जहाँ उत्पादकों के लिये बेहतर मूल्य और उपभोक्ताओं के लिये प्रतिस्पर्द्धी दरें सुनिश्चित हुई हैं।
    • आपात बिक्री पर रोक: बुनियादी अवसंरचना और वित्तीय संसाधनों से लैस सहकारी समितियाँ आपात बिक्री को रोकती हैं और सौदेबाजी की शक्ति को संपुष्ट करती हैं।
    • विकेंद्रीकृत विकास: उनमें विकेंद्रीकृत विकास के प्रतिमान को साकार करने की क्षमता होती है।
      • जिस प्रकार पंचायती राज संस्थाएँ (PRI) विकेंद्रीकृत ग्रामीण विकास को आगे बढ़ाती हैं, उसी प्रकार सहकारी संस्थाएँ व्यावसायिक आवश्यकताओं की पूर्ति का माध्यम बन सकती हैं।

    सहकारी संस्थाओं के समक्ष विद्यमान चुनौतियाँ

    • कुप्रबंधन और हेरफेर:
      • अधिक सदस्य संख्या वाली सहकारी संस्थाओं में यदि प्रबंधन के कुछ सुरक्षित उपायों को नियोजित नहीं किया जाता तो उनके कुप्रबधंन की समस्या उत्पन्न होती है।
      • शासी निकायों के चुनावों में धनबल इतना शक्तिशाली उपकरण बन गया है कि अध्यक्ष और उपाध्यक्ष के शीर्ष पद आमतौर पर समृद्ध किसानों द्वारा हथिया लिये जाते हैं जो फिर अपने लाभ के लिये संगठन में हेरफेर करते हैं।
    • जागरुकता की कमी:
      • लोगों में सहकारिता आंदोलन के उद्देश्यों, उसके नियमों-विनियमों के संबंध में जागरूकता की कमी है।
    • प्रतिबंधित दायरा: इनमें से अधिकांश समितियाँ सीमित सदस्यता रखती हैं और उनका परिचालन भी एक-दो गाँवों तक ही सीमित है।
    • कार्यात्मक अक्षमता: सहकारिता आंदोलन को प्रशिक्षित कर्मियों की अपर्याप्तता का सामना करना पड़ा है।

    आगे की राह:

    • स्थानीय के साथ ही राष्ट्रीय आवश्यकता की पूर्ति करना: स्थानीय स्तर पर सहकारी समितियों को प्राथमिक क्षेत्र के सभी खंडों में अपने सदस्यों की आवश्यकताओं की पूर्ति करना जारी रखना चाहिये।
      • इसके साथ ही राष्ट्रीय स्तर पर उन्हें निजी क्षेत्र की अग्रणी कंपनियों के साथ प्रतिस्पर्द्धा करने में सक्षम संगठनों के रूप में उभरने की आवश्यकता है।
    • आकारिक मितव्ययता: प्राथमिक क्षेत्र के विभिन्न खंडों को सफलतापूर्वक विकसित किया जा सकता है और इन्हें सहकारी संस्थाओं में रूपांतरित किया जा सकता है। इसके बाद द्वितीयक और तृतीयक क्षेत्रों के विभिन्न खंडों को भी प्रोत्साहित किया जा सकता है।
    • सहकारिता ब्रांडिंग को बढ़ावा देना: सहकारी समितियों के उत्पादों और सेवाओं की गुणवत्ता में उन्नयन और मूल्यवर्धन के माध्यम से उनकी ब्रांडिंग को बढ़ावा देने की भी आवश्यकता होगी।
      • इसके लिये उत्पादन, संचालन, वितरण और आकारिक मितव्ययिता का विस्तार करना होगा।
    • अति-विनियमन से परहेज करना: सरकार और सहकारी समितियों के बीच नियंत्रण और स्वायत्तता के बीच का समीकरण दुविधापूर्ण है।
      • अति-विनियमन से सहकारी समितियाँ अपने स्वायत्त चरित्र को खो देने का खतरा रखती हैं।
      • सरकार द्वारा सहकारी समितियों को अपना बचाव स्वयं करने के लिये छोड़ देने से ये समितियाँ कुप्रबंधन का शिकार हो सकती हैं। अतः यह यह वांछनीय है कि इस द्वंद्व को सुलझाया जाए।
    • पारदर्शिता: सरकार को यह सुनिश्चित करना होगा कि प्रक्रियाएँ पारदर्शी हों। प्रबंधन के साथ इन समितियों की अखंडता और उनकी परिचालन स्वायत्तता आवश्यक है।

    निष्कर्ष

    सरकार, सहकारी विकास संस्थानों सहित सभी हितधारकों और संपूर्ण सहकारी आंदोलन को आपसी सहयोग की आवश्यकता होगी ताकि स्थानीय और राष्ट्रीय स्तर पर आधुनिक व्यावसायिक अभ्यासों को शामिल करते हुए सामुदायिक और जन-केंद्रित विकास के लक्ष्य को प्राप्त किया जा सके।

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