प्रश्न. ‘‘भक्ति एवं सूफी आंदोलन ने न केवल भारतीय समाज को मौलिक रूप से सशक्त बनाया, बल्कि इसने ‘क्षेत्रीय साहित्य’ के विकास को आवश्यक गति भी प्रदान की।’’ टिप्पणी कीजिये।
11 Nov 2021 | सामान्य अध्ययन पेपर 1 | संस्कृति
दृष्टिकोण / व्याख्या / उत्तर
हल करने का दृष्टिकोण:
- भक्ति एवं सूफी आंदोलन का संक्षिप्त परिचय देते हुए उत्तर की शुरुआत कीजिये।
- स्थानीय भाषा एवं साहित्य के विकास में इन आंदोलनों की भूमिका को बताइये।
- भारतीय समाज एवं संस्कृति में इन आंदोलनों के महत्त्व को बताते हुए निष्कर्ष लिखिये।
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भक्ति एवं सूफी आंदोलनों का उद्भव मध्यकाल में भारत के विभिन्न भागों में हुआ। ये दोनों ही आंदोलन मूलत: ईश्वर से व्यक्ति के एकाकार होने के आध्यात्मिक दर्शन पर आधारित थे। इन दोनों ही आंदोलनों ने अपने-अपने क्षेत्र में प्रचलित रूढ़िवादी एवं रहस्यवादी प्रथाओं पर कटाक्ष किया तथा अंतर धार्मिक विरोध को नज़रअंदाज़ करते हुए सहिष्णुता पर बल दिया।
- सूफी एवं भक्ति संतों ने अपने विचारों के प्रसार के लिये परंपरागत भाषाओं जैसे संस्कृत, अरबी, फारसी का प्रयोग न करके स्थानीय भाषाओं का प्रयोग किया तथा हिन्दी, बंगाली, मराठी, तमिल, तेलुगू एवं मलयालम जैसी स्थानीय भाषाओं में रचनाएँ कीं तथा नि:संदेह ही क्षेत्रीय साहित्य एवं भाषाओं के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।
- पूर्वी उत्तर प्रदेश में प्रमुख सूफी संतों, जैसे- ‘चंदायन’ के लेखक मुल्ला दाउद, तथा ‘पद्मावत’ के लेखक मलिक मोहम्मद जायसी ने अपने ग्रंथों को हिन्दी भाषा में लिखा तथा इनमें सूफी दर्शन को आसान भाषा में प्रस्तुत किया। जिसे आर्य जनमानस द्वारा आसानी से समझा जा सकता था।
- चैतन्य तथा चंद्रीदास ने बंगाली भाषा का प्रयोग श्री कृष्ण एवं राधा की प्रेम लीला को लिखने में किया।
- पंद्रहवी सदी में ब्रह्मपुत्र घाटी के प्रमुख भक्ति संत शंकरदेव द्वारा अपने विचारों एवं शिक्षाओं के प्रसार हेतु असमी भाषा का प्रयोग किया।
- इसी प्रकार कबीर, नानक तथा तुलसी दास जैसे संतों ने भी स्थानीय भाषा का प्रयोग अपने उपदेशों एवं रचनाओं में किया।
- इन क्षेत्रीय भाषाओं में लिखे गए काव्य, दोहे, सबद आदि वर्तमान समय में भी अत्यधिक प्रतिष्ठा प्राप्त किये हुए हैं जिन्होंने क्षेत्रीय भाषाओं को सम्मान दिलाने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।
इस प्रकार देखें भक्ति एवं सूफी संतों ने भारतीय समाज की पंरपरागत रूढ़िवादी जड़ व्यवस्था पर प्रहार तो किया ही साथ में लोक भाषाओं के विकास में भी महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। जिनकी शिक्षाएँ, रचनाएँ वर्तमान समय में भी उतनी ही प्रासंगिक हैं जितनी की मध्यकाल में थीं।