‘मुस्लिमों ने स्थानीय संस्कृतियों और परंपराओं की कई विशेषताओं को आत्मसात कर उन्हें स्वयं की वास्तु प्रथाओं में शामिल किया।’ इस संदर्भ में चर्चा कीजिये कि वास्तुकला की प्रांतीय शैली इंडो-इस्लामिक शैली से किस प्रकार प्रभावित थी। (250 शब्द)
05 Nov 2020 | सामान्य अध्ययन पेपर 1 | संस्कृति
दृष्टिकोण / व्याख्या / उत्तर
हल करने का दृष्टिकोण:
- ‘इंडो-इस्लामिक वास्तुकला’ पद का वर्णन कीजिये।
- उदाहरण के साथ इंडों-इस्लामिक वास्तुकला से प्रभावित विभिन्न प्रांतीय वास्तु कलाओं की चर्चा कीजिये।
- उपयुक्त निष्कर्ष दीजिये।
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परिचय:
- ‘इंडो-इस्लामिक’ पद, मध्यकाल में भारत और इस्लामिक विश्व के आपसी संपर्क, अंतर्मिश्रण और सांस्कृतिक परंपरा को आत्मसात करने के परिणामस्वरूप हुए समग्र सांस्कृतिक विकास को दर्शाता है।
- वास्तुकला के क्षेत्र में विभिन्न तत्त्वों की स्वीकृति, अस्वीकृति अथवा संशोधन के निरंतर हस्तक्षेप के परिणामस्वरूप कई संरचनात्मक तकनीकों, शैलीगत आकृतियों और पृष्ठीय सजावट का मिश्रण सामने आया। कई शैलियों को दर्शाने वाली वास्तुकला की इन इकाइयों को इंडो-सरसेनिक या इंडो-इस्लामिक वास्तुकला के रूप में जाना जाता है।
प्रारूप:
- 12 वीं शताब्दी के बाद इंडो-इस्लामिक वास्तुकला का विकास शुरू हुआ जब इसमें बंगाल, गुजरात, जौनपुर, गोलकोंडा, मालवा और दक्कन के प्रांतीय राज्यों की स्थानीय विशिष्टताओं को शामिल किया गया।
- इंडो-इस्लामिक वास्तुकला की विशेषताएँ
- मेहराब और गुंबद विधि (चाप शैली)
- मीनारों की उपस्थिति।
- मेहराब और गुंबद के निर्माण में सीमेंटिंग एजेंट के रूप में चूने का प्रयोग।
- मानव आकृतियों से परहेज।
- हिंदू वास्तुकला को विशालता और व्यापकता प्रदान करना।
- पिएट्रा ड्यूरा तकनीक का उपयोग।
- अरबी पद्धति का उपयोग।
- समरूपता को महत्त्व।
- परिसर में जल का उपयोग।
- वास्तुकला की प्रांतीय शैली की विशेषताएँ:
- मालवा शैली: मालवा के पठार पर स्थित धार और मांडू शहर मालवा शैली के प्रमुख स्थल है। यहाँ की इमारतों की सबसे प्रमुख विशेषता विभिन्न रंग के पत्थरों तथा संगमरमर का उपयोग है। पिएट्रा ड्यूरा तकनीक का उपयोग सजावट के उद्देश्यों के लिये किया गया था।
- इमारतों में बड़ी-बड़ी खिड़कियों के प्रयोग किया गया है जिन्हें मेहराबों और स्तंभों के एक शैलीगत उपयोग द्वारा सजाया गया था। इनके प्रयोग से इमारतों और कमरों को हवादार बनाया गया है।
- ‘बावली’ नामक कृत्रिम जलाशयों का निर्माण शाही वास्तुकला में किया गया जिसका उपयोग जल के भंडारण के लिये किया जाता था।
- तुगलकों के समय शुरू की गई बैटर/घोल प्रणाली के उपयोग ने इमारतों को और अधिक मज़बूती प्रदान की।
- अन्य इंडो-इस्लामिक वास्तुकलाओं जिनमें रानी रूपमती मंडप, जहाज़ महल, अशर्फी महल इत्यादि शामिल है में मीनारों का कोई उपयोग नहीं किया गया।
- जौनपुर शैली: मेहराब के साथ विशाल आयताकार तोरण (प्रवेश द्वार) शर्की मस्जिदों की मुख्य विशेषता है। मेहराबों का उपयोग जौनपुर की तीन मुख्य मस्जिदों में किया गया है जिनमें अटाला मस्जिद, जामा मस्जिद और लाल दरवाजा शामिल है।
- इन सभी मस्जिदों के निर्माण में पत्थरों का प्रयोग किया गया है तथा इन पर नक्काशी एवं जालीदार कार्य किया गया है। इसी काल की दिल्ली की मस्जिदों के विपरीत इनमें मीनारें नहीं हैं।
- यहाँ के इमारतों की अनूठी विशेषता प्रार्थना कक्ष एवं साथ की दीवारों पर विशाल पटल पर साहसी एवं बलशाली पात्रों का चित्रण है।
- बीजापुर या दक्कन शैली: बीजापुर शैली की मुख्य विशेषता यह है कि छत के निर्माण में किसी भी प्रकार के आधार या सहारे का उपयोग नहीं किया गया।
- इमारतों को एक मज़बूत आधार प्रदान करने के लिये लोहे की कीलकों और चूने के मज़बूत प्लास्टर/लेप का इस्तेमाल किया गया साथ ही दीवारों को नक्काशियों से सजाया गया है।
- तीन धनुषाकार मुखौटे वाले लगभग गोलाकार और संकरी भाग के साथ निर्मित मस्जिदों, मकबरों और महलों का निर्माण अद्वितीय था।
- बीजापुर या दक्कन शैली में बड़े आकार के गुंबदों के निर्माण पर ज़ोर दिया गया है सतह की सजावट एवं कलात्मक मुंडेर के माध्यम से स्मारकों को सुशोभित किया गया है। गोल गुम्बज, बीजापुर में आदिलशाह का मकबरा इसके उदाहरण हैं।
- गुजरात शैली: इस शैली के प्रमुख तत्त्वों को क्षेत्रीय मंदिर परंपराओं के ग्रहण किया गया है जिसमे तोरण, चौखट युक्त मेहराब, घंटी और शृंखला रूपांकनों की नक्काशी, कब्रों, मस्जिदों और दरगाहों के लिये पेड़ों को चित्रित करने वाली नक्काशीदार पट्टिकाएँ शामिल हैं।
- बंगाल शैली: ईंटों एवं काले संगमरमर का उपयोग इस शैली की मुख्य विशेषता है जो भारी वर्षा के लिये उपयुक्त है। बंगाल शैली को इंडो-इस्लामी वास्तुकला की एक विशिष्ट स्थानीय शैली में अपनाया गया ।
- इस अवधि के दौरान निर्मित मस्जिद में ‘बंगला छतों’ का उपयोग जारी रखा गया जिनका उपयोग पहले मंदिरों में किया जाता था। गौर में कदम रसूल मस्जिद, पंडुआ में आदिना मस्जिद आदि इस शैली के मुख्य उदाहरण है।
निष्कर्ष:
प्रांतीय शैली पर दिल्ली की इंडो-इस्लामिक वास्तुकला का प्रभाव दिल्ली से प्रांत की दूरी और दिल्ली के साथ प्रांतीय शासकों के संघ के संबंधों पर निर्भर करता था। हालाँकि स्थानीय वास्तुकारों द्वारा स्थानीय वास्तुकला परंपराओं की कुछ विशेषताओं को बनाए रखा गया।भवन निर्माण कला विभिन्न कारकों जैसे- स्थानीय सामग्रियों की उपलब्धता, निर्माण तकनीकों यहाँ तक कि जलवायु परिस्थितियों आदि से प्रभावित थी।