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12 Dec 2020
सामान्य अध्ययन पेपर 2
राजव्यवस्था
मूल/आधारभूत संरचना का सिद्धांत क्या है? संवैधानिकता की भावना को मज़बूत करने में इस सिद्धात के विकास और महत्त्व पर चर्चा कीजिये। (250 शब्द)
उत्तर
दृष्टिकोण
- परिचय में मूल/आधारभूत संरचना के सिद्धांत का अर्थ बताइये।
- सिद्धांत के विकासक्रम को बताएँ।
- भारतीय संवैधानिक भावना को मज़बूत करने में इस सिद्धांत का महत्त्व बताएँ।
- उपयुक्त निष्कर्ष दीजिये।
परिचय
- बुनियादी संरचना का सिद्धांत : इसे भारतीय न्यायपालिका द्वारा 24 अप्रैल, 1973 को केशवानंद भारती मामले में संसद की संशोधित शक्तियों पर अंकुश लगाने के लिये प्रस्तावित किया गया था ताकि संविधान की बुनियादी संरचना को संशोधित न किया जा सके।
- हालाँकि संविधान में मूल संरचना को स्पष्ट रूप से परिभाषित नहीं किया गया है लेकिन समय-समय पर न्यायपालिका द्वारा इसको परिभाषित/स्पष्ट किया जाता है।
- इसके कुछ महत्त्वपूर्ण घटकों में कानून के नियम, संप्रभुता, स्वतंत्रता, भारतीय राजनीति की स्वतंत्रता, न्यायिक समीक्षा, सत्ता के पृथक्करण, धर्मनिरपेक्षता और भारतीय गणतंत्र की प्रकृति इत्यादि शामिल हैं।
प्रारूप
बुनियादी संरचना के सिद्धांत के विकास क्रम को निम्नलिखित चरणों में विभाजित किया जा सकता है:
- शंकरी प्रसाद वाद , 1951: शुरू में न्यायपालिका का विचार था कि संसद की संशोधन शक्ति अप्रतिबंधित है, अर्थात् यह संविधान के किसी भी भाग में संशोधन कर सकती है, यहाँ तक कि अनुच्छेद-368 में भी जो कि संसद को संशोधित करने की शक्ति प्रदान करता है।
- गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य, 1967: इस वाद में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा संसद की संशोधन शक्ति पर अंकुश लगाते हुए निर्णय दिया गया कि संसद संविधान के भाग III अर्थात् मौलिक अधिकारों में संशोधन नहीं कर सकती है तथा इस प्रकार मौलिक अधिकारों को "ट्रांसेंडेंटल पोज़ीशन" से सम्मानित किया गया है।
- केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य, 1973: इस वाद में न्यायालय द्वारा ऐतिहासिक निर्णय दिया गया, जिसमें कहा गया था कि संसद को संविधान की मूल संरचना में परिवर्तिन करने की शक्ति प्राप्त नहीं है। अभी तक संसद को संविधान में संशोधन करने की असीम शक्ति प्राप्त थी लेकिन यह संविधान की मूल संरचना या ढाँचें को परिवर्तित नहीं कर सकती है क्योंकि इसमें केवल संविधान संशोधन की शक्ति के द्वारा ही परिवर्तित किया जा सकता है।
- इंदिरा नेहरू गांधी बनाम राज नारायण और मिनर्वा मिल्स बनाम भारत संघ वाद में सर्वोच्च न्यायालय की पीठ ने बुनियादी ढांँचे के सिद्धांत का प्रयोग करते हुए क्रमशः 39वें संशोधन और 42वें संशोधन के कुछ हिस्सों को समाप्त कर दिया और भारतीय लोकतंत्र की बहाली का मार्ग प्रशस्त किया। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिये गए निर्णय के अनुसार, वर्तमान स्थिति यह है कि संसद संविधान में संशोधन तो कर सकती है लेकिन इसके "मूल ढांँचे" में किसी भी प्रकार का संशोधन नहीं कर सकती है।
संवैधानिकता को मज़बूत करने का महत्त्व
- सत्तावादी शासन से सुरक्षा: इसने निश्चित रूप से भारतीय लोकतंत्र को एक सत्तावादी शासन में परिवर्तित होने से बचाने में मदद की है (मूलभूत कानूनों को विकसित करने में मदद करके)।
- न्यायपालिका की स्वतंत्रता: सविधान ने शक्तियों के प्रथक्करण के वास्तविक चित्रण को उजागर कर लोकतंत्र को मज़बूती प्रदान की है जहांँ न्यायपालिका अन्य दो अंगों से स्वतंत्र है। इसने सर्वोच्च न्यायालय को भी बिना शर्त शक्तियांँ प्रदान की हैं तथा सर्वोच्च न्यायालय को विश्व में सर्वोच्च शक्तिशाली बना दिया है।
- नागरिक अधिकार: यह राज्य के विधायी अंगों की संशोधित शक्तियों पर अंकुश लगाकर नागरिकों को मूल अधिकार प्रदान करता है जिसे राज्य का कोई भी निकाय प्रदान नहीं कर सकता है।इन अधिकारों को ही मौलिक अधिकार कहा जाता है।
- अपनी प्रकृति में अधिक गतिशील होने के कारण, यह पहले के निर्णयों की कठोर प्रकृति के विपरीत समय में बदलाव के प्रति अधिक प्रगतिशील और खुला है।
निष्कर्ष
- भले ही न्यायपालिका द्वारा इस बात का परीक्षण नहीं किया गया कि बुनियादी ढांँचा क्या है? फिर भी इसने संसद की विधायी शक्ति पर अंकुश लगाने का कार्य किया है, ताकि संविधान निर्माताओं द्वारा लागू किये गए मूल आदर्शों को संरक्षण प्रदान कर लोकतंत्र को मज़बूत किया जा सके।