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भारत में कार्यपालिका और विधायिका के मध्य शक्ति संतुलन बनाने रखने के लिये राष्ट्रपति द्वारा अध्यादेश जारी करने की शक्ति को उचित रूप से नियंत्रित एवं इसके दुरूपयोग की जाँच किये जाने की आवश्यकता है। टिप्पणी कीजिये। (250 शब्द)

09 Nov 2020 | सामान्य अध्ययन पेपर 2 | राजव्यवस्था

दृष्टिकोण / व्याख्या / उत्तर

दृष्टिकोण

  • राष्ट्रपति द्वारा अध्यादेश जारी करने की शक्ति, इसकी आवश्यकता एवं उपयोग की सीमाओं पर एक संक्षिप्त रूपरेखा प्रस्तुत कीजिये।
  • अध्यादेश का बार-बार एवं मनमाने ढंग से उपयोग करना संविधान को कमज़ोर करता है। इस संदर्भ में चर्चा कीजिये। 
  • अध्यादेश के प्रयोग को लेकर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा विभिन्न निर्णयों में निर्धारित की गई सीमाओं को सूचीबद्ध कीजिये।

परिचय: 

  • संविधान का अनुच्छेद 123 भारत के राष्ट्रपति को अध्यादेश जारी करने का विशेष अधिकार एवं शक्ति प्रदान करता है। राष्ट्रपति द्वारा इस अध्यादेश को तभी जारी किया जाता है जब किसी तत्काल कार्रवाई की आवश्यकता होती है तथा जब संसद के दोनों सदन सत्र में न हो। जारी अध्यादेश का बल और प्रभाव संसद द्वारा बनाए गए कानून के ही समान होता है जो संसद के पुनरावर्तन से केवल छह सप्ताह की अवधि के लिये ही मान्य होता है।
  • हालाँकि आर.सी. कूपर बनाम भारत संघ (1970) मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा माना गया कि राष्ट्रपति के अध्यादेश जारी करने के फैसले को इस आधार पर चुनौती दी जा सकती है कि 'तत्काल कार्रवाई' की आवश्यकता नहीं थी एवं
  • अध्यादेश को मुख्य रूप से विधायिका में बहस और चर्चा को दरकिनार करते हुए पारित किया गया।

प्रारूप: 

  • सदन में सदस्य संख्या में कमी के कारण या विधायी विचार-विमर्श को दरकिनार करते हुए अध्यादेश जारी करने के इस असाधारण प्रावधान का भारतीय राजनीति में बड़े पैमाने पर दुरुपयोग हुआ है जो संविधान की मूल भावना के विरुद्ध है क्योंकि:
    • सविधान का अनुच्छेद 50 शक्तियों के पृथक्करण (न्यायपालिका का कार्यपालिका से पृथक्करण) को संविधान की मूल संरचना के रूप में स्थापित करता है परंतु अध्यादेश की शक्ति संविधान की इस भावना का उल्लंघन करती है।
    • यह संसद में किसी भी मुद्दे पर विचार-विमर्श और चर्चा को दरकिनार करता है जो लोगों को संबंधित कानून के प्रति सच्ची विश्वसनीयता प्रदान करता है। अत: अध्यादेश कानून बनाने का एक अलोकतांत्रिक तरीका है।
    • वाद-विवाद एवं सहयोग के साथ अन्य अनछुए पहलुओं को भी कानून में शामिल किया जा सकता है।
    • सामान्यत: जब अध्यादेशों को प्रथम बार जारी करके पुनः जारी किया जाता है, तो यह संविधान की मूल भावना का उल्लंघन कर एक 'अध्यादेश राज' में परिवर्तित हो जाता है। डी.सी. वाधवा बनाम बिहार राज्य 1987 में, सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इस प्रथा की कड़ी निंदा की गई तथा इसे संवैधानिक धोखाधड़ी की संज्ञा दी।
    • वर्ष 1970 में रूस्तम कावसजी कूपर बनाम यूनियन ऑफ इंडिया मामले में, शीर्ष अदालत द्वारा अपने निर्णय में स्थापित किया गया कि न्यायिक हस्तक्षेप बिल्कुल आवश्यक है इसलिये जब कार्यपालिका द्वारा अध्यादेश जारी करने की शक्ति का दुरुपयोग किया जाता है तो न्यायपालिका उस कार्य में हस्तक्षेप कर सकती है।

निष्कर्ष: 

लोकतंत्र में आपातकाल के अलावा किसी भी अन्य स्थिति में अध्यादेश जारी करना अच्छी प्रवृत्ति का सूचक नहीं है। विपक्ष को उचित एवं परिपक्व व्यवहार प्रदर्शित करने के साथ-साथ विधायी प्रक्रियाओं का सम्मान करना चाहिये तथा संसद की कार्यवाही के सुचारू रूप के संचालन में अपनी भूमिका का निर्वहन भली-भाँति करना चाहिये। 

राष्ट्रीय महत्त्व से संबंधित ऐसे विषय या मुद्दे जिन पर वाद-विवाद की आवश्यकता हो तथा किसी विधेयकों पर अंतिम निर्णय लेने एवं देश में प्रक्रियात्मक कानून व्यवस्था को सुनिश्चित करने के संदर्भ में संसदीय सत्रों में उचित एवं उपयोगी तरीके से चर्चा की जानी चाहिये।