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  • 12 Nov 2020 सामान्य अध्ययन पेपर 2 सामाजिक न्याय

    छोटे बच्चों के लिये स्कूली शिक्षा को मौलिक अधिकार के रूप में गारंटी देने में भारत को आज़ादी के बाद 62 वर्ष का लंबा समय लगा, किंतु अभी भी बहुत कुछ किया जाना शेष है। चर्चा कीजिये। (250 शब्द)

    उत्तर

    दृष्टिकोण:

    • शिक्षा का अधिकार अधिनियम की आवश्यकता पर प्रकाश डालते हुए भूमिका लिखिये।
    • शिक्षा का अधिकार अधिनियम के प्रमुख प्रावधानों का संक्षेप में उल्लेख कीजिये।
    • इसके महत्त्व के बारे में बताएं।
    • इस अधिनियम की कमियों के बारे में बताएं।
    • सुधार हेतु जिन उपायों को लाने की आवश्यकता है उनके बारे में बताते हुए निष्कर्ष दीजिये।

    परिचय :

    आजादी के समय केवल 18% भारतीय ही बुनियादी रूप से साक्षर थे। पूरी पीढ़ी को शैक्षिक रूप से सशक्त बनाने की दिशा में शिक्षा के परिवर्तनकारी मूल्य के रूप में ‘शिक्षा का अधिकार अधिनियम- 2009’ (Right to Education Act-2009) इस दिशा में एक मील का पत्थर है क्योंकि इस अधिनियम को भारतीय नागरिकों के एक बेहतर भविष्य के निर्माण के उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए लाया गया था।

    प्रारूप:

    शिक्षा का अधिकार अधिनियम के प्रमुख प्रावधान:

    • यह अधिनियम 6-14 वर्ष की आयु के प्रत्येक बच्चे के लिये शिक्षा का मौलिक अधिकार प्रदान करता है।
    • यह अधिनियम सभी निजी स्कूलों में वंचित वर्ग के बच्चों के लिये 25% निशुल्क सीटें आरक्षित करने का प्रावधान करता है। इसमें आरक्षण प्रतिपूर्ति राज्य द्वारा की जाती है।
    • यह अधिनियम बच्चे के स्कूल में नामांकन के पूर्व माता-पिता के लिये अनिवार्य साक्षात्कार प्रक्रिया और डोनेशन या कैपिटेशन शुल्क के लिये कोई प्रावधान नहीं करता है।
    • यह अधिनियम इस बात की पुष्टि करता है कि समाज के कमज़ोर वर्गों को मुख्यधारा में लाकर समाज में ‘सामाजिक न्याय’ को सुनिश्चित किया जा सके तथा राज्य द्वारा सभी प्रकार की सामाजिक संरचनाओं में बच्चों के लिये सीखने और विकसित होने के अवसर की समानता को सुनिश्चित किया जा सके।

    अधिनियम का महत्व:

    • खर्च को कम करना: इस अधिनियम के तहत प्रदान की जाने वाली मुफ्त स्कूली शिक्षा में अन्य सभी खर्चों जैसे- यूनिफॉर्म, स्टेशनरी, विकलांग बच्चों के लिये विशेष शैक्षणिक सामग्री का भी ध्यान रखा गया है।
    • परिणाम-उन्मुख प्रक्रिया: शिक्षण कार्य एवं सीखने को एक सतत् प्रक्रिया माना जाता है और इस अधिनियम के प्रावधान इसके कार्यान्वयन के परिणामों पर ध्यान केंद्रित करते हैं।
    • शिक्षा- एक मौलिक अधिकार: यह लोगों के प्रति सरकार के कर्तव्य एवं दायित्त्व को सुनिश्चित करता है तथा देश में समावेशी विकास के एजेंट के रूप में कार्य करता है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद-45 अर्थात् नीति निर्देशक तत्त्वों (DPSP) से उठाकर भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21A के अंतर्गत मूल अधिकार के रूप में उल्लेखित किया गया है।
    • पारदर्शिता: इस अधिनियम के कार्यान्वयन की निगरानी में पारदर्शिता और जवाबदेही को सुनिश्चित करने के लिये एक बाह्य संवैधानिक निकाय (External Constitutional Body) की आवश्यकता पर बल दिया गया है।
    • समग्र विकास: यह अधिनियम बच्चों के मनोवैज्ञानिक एवं भावनात्मक मुद्दों को संबोधित करते हुए उन्हें एक बेहतर सामाजिक अवसंरचना प्रदान करता है जो बच्चों को एक स्तर तक विकसित होने और कार्य करने का अवसर प्रदान करता है।

    इस अधिनियम की खामियांँ जिनमें सुधार किये जाने की ज़रूरत है:

    • कार्यान्वयन से संबंधित मुद्दे: वंचित वर्ग के बच्चों के संबंध में निजी स्कूलों में बड़े पैमाने पर नामांकन की एक अप्रयुक्त प्रक्रिया बनी हुई है। निजी स्कूलों द्वारा इन छात्रों को दाखिला देने से इंकार करने का एक मुख्य कारण राज्य द्वारा स्कूलों को बकाया राशि का भुगतान न करना या करने में देरी करना है।
      • शिक्षकों की कमी RTE द्वारा निर्धारित अनिवार्य छात्र-शिक्षक अनुपात को प्रभावित करती है जिससे शिक्षण की गुणवत्ता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
      • निगरानी से संबंधित मुद्दे: इस अधिनियम के कार्यान्वयन की समय-सीमा पर निगरानी नहीं की जा रही है। परिणामतः शिक्षकों की भर्ती में अवमानक योग्यता के साथ भ्रष्टाचार की प्रवृत्ति देखने को मिलती है।
    • सार्वजनिक व्यय में कमी: सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी के माध्यम से शिक्षा के क्षेत्र में असमानताओं को कम करने के लिये अधिक सार्वजनिक निवेश करने की आवश्यकता है, विशेष रूप से शैक्षिक रूप से पिछड़े ब्लॉकों में।
    • सभी के लिये एक कार्यक्रम: ‘सभी के लिये शिक्षा’ जैसे उद्देश्य अभी भी अपने लक्ष्य से दूर हैं जो नवाचार की असफलता हो प्रतिबिंबित करता है। इस अधिनियम में स्थानीय समस्याओं के स्थानीय समाधानों को प्रोत्साहित करने के लिये शैक्षणिक दृष्टिकोण में विविधता पर भी ध्यान दिये जाने की आवश्यकता है।

    शिक्षा के सार्वभौमिक सुधार के लिये आवश्यक उपाय या प्रयास:

    नई शिक्षा नीति वर्ष 2030 तक स्कूली शिक्षा में 100% सकल नामांकन अनुपात (GER) के साथ प्री-स्कूल से माध्यमिक स्तर तक की शिक्षा के सार्वभौमिकरण उद्देश्य को प्राप्त करने में कारगर साबित हो सकती है। नई शिक्षा नीति के कुछ महत्त्वपूर्ण प्रावधान इस प्रकार है:

    • ‘ओपन स्कूलिंग प्रणाली’ के माध्यम से 2 करोड़ स्कूली बच्चों को मुख्यधारा में वापस लाना।
    • वर्तमान 10+2 प्रणाली को क्रमशः 3-8, 8-11, 11-14 और 14-18 वर्ष की आयु के अनुसार एक नया 5 + 3 + 3 + 4 पाठ्यक्रम संरचना द्वारा प्रतिस्थापित किया जाना।
      • इसके अंतर्गत 3-6 वर्ष के अनियोजित आयु समूह को स्कूली पाठ्यक्रम के अंतर्गत शामिल किया जाना है, जिसे वैश्विक स्तर पर एक बच्चे के मानसिक संकायों के विकास के लिये महत्त्वपूर्ण चरण के रूप में मान्यता दी गई है।
      • इसमें तीन वर्ष की आंगनवाड़ी/प्री स्कूलिंग के साथ 12 वर्ष की स्कूली शिक्षा भी शामिल होगी।
    • नई शिक्षा नीति में मूलभूत साक्षरता और संख्यात्मकता पर बल देते हुए स्कूलों में शैक्षणिक धाराओं, पाठ्येत्तर, व्यावसायिक धाराओं के बीच कोई कठोर अलगाव नहीं किया गया है।
    • कम-से-कम ग्रेड 5 तक मातृभाषा/क्षेत्रीय भाषा में शिक्षा प्रदान करना। किसी भी छात्र पर कोई निश्चित भाषा में पढने के लिये बाध्यता नहीं है।

    निष्कर्ष:

    • इस प्रकार भारत को वैश्विक क्षेत्र में प्रतिस्पर्द्धात्मक बने रहने के लिये शिक्षा में गुणात्मक सुधार करने की आवश्यक है। नई शिक्षा नीति में इस बात को स्वीकार करने की आवश्यकता है कि स्कूली प्रणाली की गुणवत्ता, वित्तीय क्षमताएँ, शिक्षकों की एकीकृत कार्यप्रणाली इत्यादि मौजूदा शिक्षक क्षमताओं के साथ सभी राज्यों में एक विस्तृत श्रृंखला के रूप में भिन्न-भिन्न तरीके से विद्यमान है।
    • RTE, कौशल विकास की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम है जिसके माध्यम से रोज़गार और समावेशी विकास के साथ समान आधार को बढ़ावा देने के लिये ग्रामीण एवं शिक्षा की मुख्य धारा से वंचित छात्रों के सीखने के स्तर को बढ़ावा देने के लिये ठोस उपायों को किये जाने की ज़रूरत है।
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