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  • 11 Aug 2019 रिवीज़न टेस्ट्स इतिहास

    ऋग्वैदिक युग के लोगों के सामाजिक जीवन का वर्णन कीजिये। उत्तर-वैदिक काल में सामाजिक संरचना में आने वाली कठोरता की चर्चा कीजिये।

    प्रश्न विच्छेद

    • पहला भाग ऋग्वैदिक युग के लोगों की सामाजिक संरचना के वर्णन से संबंधित है।

    • दूसरा भाग उत्तर-वैदिक काल में सामाजिक संरचना में आने वाली कठोरता से संबंधित है।

    हल करने का दृष्टिकोण

    • ऋग्वैदिक एवं उत्तर-वैदिक काल के विषय में संक्षिप्त उल्लेख के साथ परिचय लिखिये।

    • ऋग्वैदिक युग के लोगों की सामाजिक संरचना का वर्णन कीजिये।

    • उत्तर-वैदिक काल में सामाजिक संरचना में आने वाली कठोरता की चर्चा कीजिये।

    • उचित निष्कर्ष लिखिये।

    ऋग्वैदिक एवं उत्तर-वैदिक काल को क्रमश: 1500 ई.पू. से 1000 ई.पू. एवं 1000 ई.पू. से 600 ई.पू. के मध्य वर्गीकृत किया जाता है। ऋग्वैदिक एवं उत्तर-वैदिक काल के दौरान सामाजिक संरचना में होने वाले परिवर्तनों पर प्रमुख रूप से भौगोलिक, आर्थिक एवं तकनीकी गतिविधियों में आने वाली प्रगति का व्यापक प्रभाव परिलक्षित होता है।

    ऋग्वैदिक युग के लोगों की सामाजिक संरचना निम्नलिखित रूपों में वर्णित है-

    • सामाजिक वर्गीकरण में उत्तर-वैदिक काल जैसी कठोरता ऋग्वैदिक काल में नहीं दिखलाई पड़ती है। पत्नी ही घर-गृहस्थी की देखभाल करती थी एवं प्रमुख समारोहों में भाग लेती थी। महिलाओं को पुरुषों के समान उनके आध्यात्मिक एवं बौद्धिक विकास के लिये समान अवसर दिये जाते थे। पुरोहितों को दक्षिणा में मुख्य उप से दास दिये जाते थे जिनमें प्रमुख रूप से दासियाँ होती थीं।
    • ऋग्वैदिक समाज पितृसत्तात्मक था। समाज की आधारभूत इकाई परिवार या ग्राहम थी। परिवार के मुखिया को गृहपति कहा जाता था। एकल विवाह की प्रथा सामान्य तौर पर प्रचलित, थी जबकि बहु-विवाह की प्रथा शाही एवं कुलीन परिवारों में ही प्रचलित थी।
    • बाल विवाह एवं सती प्रथा अनुपस्थित थी। महिलाओं का लोकप्रिय सभाओं में भाग लेना एवं अपाला, घोषा, विस्वारा और लोपामुद्रा जैसी कवयित्रियों का उल्लेख महिलाओं की बेहतर स्थिति का सूचक है।
    • इस युग में समाज में कबायली तत्त्व प्रधान थे एवं मुख्य आर्थिक आधार पशुचारण था जिससे कर संग्रह और भूमि-सम्पदा के स्वामित्व पर आश्रित सामाजिक वर्गीकरण नहीं हुआ था। अत: समाज अब भी कबायली एवं काफी हद तक समतानिष्ठ था। व्यवसाय के आधार पर ही समाज में विभेदीकरण आरम्भ हुआ लेकिन उन दिनों यह बहुत कड़ा नहीं था।

    उत्तर-वैदिक काल की सामाजिक संरचना में आने वाली कठोरता निम्नलिखित रूपों में वर्णित है-

    • उत्तर-वैदिक काल के दौरान ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र वर्ण व्यवस्था को अच्छी तरह से स्थापित किया गया था। ब्राह्मण एवं क्षत्रिय दोनों ही उच्च वर्ग के लोगों ने उन विशेषाधिकारों का आनंद लिया जिनसे वैश्य एवं शूद्र को वंचित रखा गया था। ब्राह्मणों ने क्षत्रिय की तुलना में उच्च स्थिति पर कब्जा कर लिया था लेकिन समय-समय पर क्षत्रियों ने भी ब्राह्मणों से ऊँचे दर्जे का दावा किया। इस अवधि में व्यवसाय के आधार पर कई उप-जातियाँ प्रकट हुईं थीं।
    • उत्तर-वैदिक काल के दौरान पिता की शक्ति में वृद्धि हुई। महिलाओं ने सभाओं में भाग लेने के अपने राजनीतिक अधिकार खो दिये। महिलाओं की स्थिति में किसी भी प्रकार का सुधार नहीं हुआ। वे अभी भी पुरुषों के नीचे एवं अधीनस्थ मानी जाती थीं। ऐत्रेय ब्राह्मण के अनुसार एक बेटी को दु:ख का स्रोत बताया गया है। हालाँकि, शाही परिवार में महिलाओं ने कुछ विशेषाधिकारों का आनंद लिया।
    • गोत्र प्रथा के अंतर्गत गोत्र शब्द से अभिप्राय वह स्थान है जहाँ समूचे कुल का गोधन पाला जाता है। परवर्ती काल में इसका अर्थ एक ही पुरुष से उत्पन्न लोगों का समुदाय हो गया और फिर गोत्र के बाहर विवाह करने की प्रथा चल पड़ी एवं समान गोत्र या मूल पुरुष वाले लोगों के बीच विवाह निषिद्ध हो गया। इस काल में ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ आश्रमों का उल्लेख है। चतुर्थ आश्रम संन्यास ज्ञात था लेकिन सुप्रतिष्ठित नहीं हुआ था।
    • सामान्यत: उत्तर-वैदिककालीन ग्रंथों में तीन उच्च वर्णों एवं शूद्रों के मध्य विभाजक रेखा देखने को मिलती है। राज्याभिषेक संबंधी ऐसे कई अनुष्ठान होते थे जिनमें शूद्र शायद मूल आर्य जाति कबीलों के बचे हुए सदस्यों की हैसियत से भाग लेते थे। शिल्पियों में रथकार आदि का ऊँचा स्थान था जिन्हें यज्ञोपवीत धारण करने का अधिकार था। इस प्रकार दिखाई देता है कि उत्तर-वैदिक काल में भी वर्ण-भेद अधिक प्रखर नहीं हुआ था।

    वैदिक काल के दौरान सामाजिक संरचना में होने वाले परिवर्तन तत्कालीन समय में व्यवस्थागत अच्छाइयों के परिणाम की बजाय परिस्थितिवश प्रभाव प्रतीत होते हैं। उत्तर-वैदिक काल के दौरान सामाजिक संरचना में होने वाले परिवर्तन निश्चित रूप से ऋग्वैदिक काल की तुलना में ज़्यादा कठोरता लिये हुए हैं लेकिन उपर्युक्त वर्णनों से वर्ण-भेद की प्रखरता का वह स्तर अभी भी नदारद है जिसका स्वरूप हमें परवर्ती युगों में देखने को मिलता है।

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