महासागरीय धाराओं को प्रभावित करने वाले कारकों की चर्चा करते हुए उत्तरी हिन्द महासागर की धाराओं की विवेचना कीजिये।
30 Aug 2019 | रिवीज़न टेस्ट्स | भूगोल
प्रश्न विच्छेद • महासागरीय धाराओं को प्रभावित करने वाले कारकों तथा उत्तरी हिन्द महासागर की धाराओं को बताएँ। हल करने का दृष्टिकोण • महासागरीय धारा का आशय स्पष्ट करें। • इसे प्रभावित करने वाले कारकों को स्पष्ट करें। • उत्तरी हिन्द महासागर की धाराओं की चर्चा करें। |
जब महासागरीय जल पृथ्वी के ज्यामितीय आकृति एवं जलवायु संबंधी तत्त्वों के प्रभाव से एक निश्चित सीमा तथा एक निश्चित दिशा में निरंतर तीव्र गति से प्रवाहित होता है तो इसे महासागरीय धारा कहते हैं। महासागरीय धाराएँ उच्च जल-तल से निम्न जल-तल की ओर प्रवाहित होती हैं।
महासागरीय धारा की उत्पत्ति एवं उनकी गति को प्रभावित करने वाले कारक:
महासागरीय धाराएँ दो बलों, प्राथमिक एवं द्वितीयक से प्रभावित होती हैं। प्राथमिक बल में सौर ऊर्जा, वायु, गुरुत्वाकर्षण एवं कोरियालिस बल आते हैं। जल सौर ऊर्जा से गर्म होकर फैलता है तथा ऊपर उठता है। इस कम प्रवणता वाले सागरीय जल का ढाल से नीचे की ओर बहाव होता है। इसी प्रकार सागरों के ऊपर चलने वाली वायु घर्षण के कारण सागरीय जल में गति पैदा करती है। गुरुत्वाकर्षण बल के कारण जल नीचे बैठता है तथा जल दाब प्रवणता में भिन्नता लाता है। कोरियालिस बल के कारण उत्तरी एवं दक्षिणी गोलार्द्ध में जल के गति की दिशा क्रमश: दाहिनी एवं बायीं तरफ होती है। इन सभी के सम्मिलित प्रभाव से महासागरीय धाराओं की उत्पत्ति होती है।
महासागरीय धाराओं को प्रभावित करने वाले द्वितीयक बल में तापमान, लवणता, घनत्व, वायुदाब, वाष्पीकरण एवं वर्षा आते हैं। अधिक वर्षण तथा अधिक सूर्यातप प्राप्त करने वाले महासागरीय क्षेत्रों का जल-तल ऊँचा होता है, जबकि जिन क्षेत्रों में वाष्पोत्सर्जन अधिक होता है वहाँ पर जल-तल नीचा होता है। व्यापारिक पवनों के प्रभाव से उत्तरी और दक्षिणी विषुवतरेखीय जलधारा पश्चिम की ओर प्रवाहित होती हैं, जबकि पछुआ पवन के प्रभाव से महासागरीय जलधाराएँ पूर्व की ओर प्रवाहित होती हैं। उच्च वायुदाब वाले सागरीय क्षेत्रों में जल-तल नीचा होता है, जबकि निम्न वायुदाब वाले क्षेत्र में जल-तल ऊँचा होता है। अधिक लवणता वाले सागरों का घनत्व भी अधिक होता है, जिसके कारण जल-तल नीचा होता है। उच्च तापमान वाले क्षेत्रों का जल-तल ऊँचा होता है। ध्रुवीय क्षेत्रों में बर्प के पिघलने से जल की आपूर्ति होती है जिससे जल-तल ऊँचा रहता है। उक्त सभी के प्रभाव से धाराओं की उत्पत्ति होती है।
उत्तरी हिन्द महासागर की धाराएँ:
हिन्द महासागर के उत्तरी भाग की धाराएँ महासागरीय धाराओं के संचरण की सामान्य व्यवस्था का एकमात्र अपवाद है। यहाँ धाराएँ मानसून पवनों से प्रवाहित होती हैं। यहाँ की धाराएँ 6 महीने दक्षिण-पश्चिमी मानसूनी पवनों के प्रभाव में और अगले 6 महीने उत्तर-पूर्वी मानसून के प्रभाव में तट रेखा का अनुसरण करती हैं।
उत्तर-पूर्वी मानसूनी धारा: शीत ऋतु में उत्तरी हिन्द महासागर में प्रचलित व्यापारिक पवनों के प्रभाव से उत्तर-पूर्वी मानसूनी धारा की उत्पत्ति होती है। इसके अतिरिक्त बंगाल की खाड़ी एवं अरब सागर में कुछ स्वतंत्र धाराओं की उत्पत्ति होती है जो दक्षिण-पश्चिम दिशा में प्रवाहित होती हैं।
दक्षिण-पश्चिमी मानसूनी धारा: ग्रीष्म ऋतु में मानसूनी धाराओं की दिशा में पूरी तरह परिवर्तन हो जाता है। उत्तर-पूर्वी मानसूनी धारा की जगह दक्षिण-पश्चिमी मानसूनी धारा का प्रवाह हो जाता है। उत्तर-पूर्वी व्यापारिक पवनों की अनुपस्थिति एवं दक्षिण-पश्चिमी मानसून के कारण धाराओं की दिशा पश्चिम से पूर्व होती है। इस समय प्रति विषुवतीय धारा का पूर्णत: लोप हो जाता है।
प्रति विषुवतीय धारा: शीत ऋतु में प्रचलित व्यापारिक पवनों के प्रभाव से उत्तरी विषुवतीय धारा और दक्षिणी विषुवतीय धारा का
पूर्व से पश्चिम की ओर प्रवाह शुरू हो जाता है जो पश्चिमी हिन्द महासागर के जल को ऊपर उठा देता है और इससे प्रति विषुवतीय धारा की उत्पत्ति होती है।