‘‘गुप्त काल में भूमिदान शासनपत्र की भूमिका दोधारी तलवार जैसी प्रतीत होती है।’’ आलोचनात्मक मूल्यांकन कीजिये।
दृष्टिकोण / व्याख्या / उत्तर
प्रश्न विच्छेद
• कथन गुप्त काल में भूमिदान शासनपत्र की सकारात्मक एवं नकारात्मक भूमिका से जुड़ा हुआ है।
हल करने का दृष्टिकोण
• गुप्त काल में भूमिदान शासनपत्र के विषय में संक्षिप्त उल्लेख के साथ परिचय लिखिये।
• गुप्त काल में भूमिदान शासनपत्र की सकारात्मक एवं नकारात्मक भूमिका का उल्लेख कीजिये।
• उचित निष्कर्ष लिखिये।
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भूमिदान का सबसे प्राचीन अभिलेखीय प्रमाण पहली शती के एक सातवाहन अभिलेख में मिलता है जिसे गुप्त युग में राजा का कर्तव्य समझा जाने लगा। कुछ विद्वानों का मानना है कि इस युग में राज्य कर्मचारियों को वेतन के बदले में भूमिदान की प्रथा भी चल पड़ी थी जिससे प्राप्त आय ही उनका वेतन बन जाता था।
गुप्त काल में भूमिदान शासनपत्र की सकारात्मक एवं नकारात्मक भूमिका निम्नलिखित रूपों में वर्णित है-
सकारात्मक:
- भूमिदान से राजा को राजस्व, आतंरिक सुरक्षा एवं प्रशासनिक व्यवस्था के प्रबंध के लिये प्रत्यक्ष रूप से चिंतित नहीं होना पड़ता था।
- मध्य भारत के जनजातीय क्षेत्रों में भूमिदान प्राप्त ब्राह्मण पुरोहितों ने बहुत सारी परती ज़मीन को आबाद कराया और खेती की अच्छी जानकारी प्रचलित की।
- गुप्त युग में जब कोई ज़मीन खरीदता था या दान में देता था तो उस भूमि की नाप-जोख, सीमा रेखा बहुत स्पष्ट शब्दों में व्यक्त की जाती थी।
- सामंत लोग सामान्यत: राजा को आवश्यकता पड़ने पर सेना भी उपलब्ध कराते थे, अत: राजा अन्य क्षेत्रों के विकास पर महत्त्वपूर्ण ढंग से ध्यान दे सकता था।
- सामंतों द्वारा अपने-अपने क्षेत्र के शासन, प्रशासन, शांति व व्यवस्था इत्यादि के प्रबंध से गुप्त शासकों को मौर्यों जैसी विशाल नौकरशाही की आवश्यकता नहीं पड़ी होगी।
नकारात्मक:
- भूमिदान के अंतर्गत ब्राह्मणों या उच्चाधिकारियों को ज़मीन दान में देने से राजा वहाँ की जनता की सुरक्षा का दायित्व भी त्याग देता था जिससे उन्हें स्थानीय भूमिपतियों के शोषण का शिकार होना पड़ता था।
- भूमिदान पत्रों में शिल्पी, व्यापारी आदि विभिन्न समुदायों के लोग ग्रहीत भूमि छोड़कर नहीं जा सकते थे। यह स्थिति समृद्ध व्यापार के आगे प्रश्नचिह्न है।
- भूमिदान से राजा की निर्भरता राजस्व, आतंरिक सुरक्षा, शांति एवं व्यवस्था इत्यादि मामलों में सामंतों पर हो जाती थी। इसका वीभत्स रूप केंद्र के कमज़ोर होने पर सामंतों द्वारा अपने आप को स्वतंत्र घोषित करने के रूप में देखने को मिलता है।
- धार्मिक एवं अन्य उद्देश्यों से भूमिदान करने की परिपाटी के ज़ोर पकड़ने से आमदनी बहुत घट गई जिससे गुप्त राज्य को विशाल वेतनभोगी सेना के रख-रखाव में कठिनाई होने लगी।
भूमिदान की प्रथा के अध्ययन से स्पष्ट होता है कि केंद्र के सशक्त होने तक ही यह प्रथा सुचारु रूप से कार्य कर सकती थी। इस प्रथा में अन्तर्निहित कमियाँ भी कम नहीं थीं जिन्होंने गुप्तकालीन अर्थव्यवस्था के साथ-साथ अन्य पक्षों को भी गंभीर रूप से प्रभावित किया। मध्ययुगीन भारत में दृष्टिगोचर होने वाली राजनीतिक एवं सामाजिक दुर्बलताओं की नींव इसी युग में पड़ चुकी थी।