निम्नलिखित पद्यांशों की लगभग 150 शब्दों में ससंदर्भ व्याख्या कीजिये:
(क) सतगुरु लई कमाँण करि बाँहण लागा तीर।
एक जु बाह्या प्रीति सूँ भीतरि रह्या सरीर।।
(ख) यहु तन जालौं मसि करुं, ज्यूं धुंवां जाई सरग्गि।
मति वै राम दया करै, बरसि बुझावै अग्गि।
19 Jun 2019 | रिवीज़न टेस्ट्स | हिंदी साहित्य(क)
संदर्भ एवं प्रसंग: प्रस्तुत साखी श्यामसुंदर दास द्वारा संकलित कबीर-गंथावली के गुरुदेव कौ अंग से उद्धृत है। इस अंग में कबीर ने गुरु के प्रति अनंत कृतज्ञता की भावना ज्ञापित की है। इस साखी में भी अपनी इसी भावना का विस्तार करते हुए कबीर कह रहे हैं कि-
भावार्थ: सद्गुरु ने मुझे धनुष की प्रत्यंचा बनाकर ग्रहण कर लिया और मुझ पर ही तीर चलाने लगे। उनमें से उन्होंने एक तीर प्रेम का ऐसा चलाया जो मेरे शरीर के भीतर ही रह गया। कबीर के कहने का तात्पर्य यह है कि गुरु ने उनके भीतर ब्रह्म-प्रेम का भाव जागृत कर दिया।
शिष्य का कमान होना, गुरु के प्रति विनम्रता की भी व्यंजना करता है। इसके अभाव में गुरु शिष्य का कल्याण नहीं कर सकता। साथ ही गुरु के पास भी तराशे हुए तीरों का होना अर्थात् उसका ज्ञान-संपन्न होना ज़रूरी है। अन्यत्र कबीर ने कहा है-
‘‘पहिरे जड़तन बखतरी, चुभै न एकौ तीर।।’’
साखी में कबीर ने रूपाकातिशयोक्ति अलंकार का कुशल प्रयोग किया है। इसमें माध्यम से उन्होंने सद्गुरु की दीक्षा विधि और शिष्य द्वारा उसके ग्रहण की सधी व्यंजना की है।
(ख)
संदर्भ एवं प्रसंग: प्रस्तुत दोहा श्यामसुन्दर दास द्वारा संपादित कबीर की वाणियों के संग्रह कबीर-ग्रंथावली के ‘विरह कौ अंग’ से उद्धृत है।
भावार्थ: कबीर की इस साखी में विरह-अग्नि में तप्त विरहिणी अपने को जलाकर राख करने के लिये तत्पर हो जाती है,। वह कहती है कि प्रिय राम की करुणा-प्राप्ति के लिये मेरी कामना यहाँ तक है कि मैं अपनी देह को विरह की आग में जला-जलाकर राख कर दूँ। मेरे जलने से निकला धुँआ ऊपर आकाश में छा जाए। संभव है उस धुएँ को देखकर, अपनी जीवात्मा प्रिया को विरह में जलता हुआ जानकर प्रिय राम करुणा की बारिश से उस विरह-अग्नि को बुझाकर शांत कर दें। इस प्रकार विरहाग्नि से मुक्ति दिला दें।
विशेष:
यह तन जारि मसि करुँ, घूवाँ जाइ सरग्गि।
मुझ-प्रिय बद्दल होइ करि, बरसि बुझावै अग्गि।।