निम्नलिखित गद्यांशों की (लगभग 150 शब्दों में) ससंदर्भ व्याख्या करते हुए उनके रचनात्मक सौंदर्य का उद्घाटन कीजिये:
(क) कला केवल उपकरण मात्र है, कला जीवन के लिये और उसकी पूर्ति में ही है। जीवन से विरत्ति और जीवन के उपकरण से अनुराग का क्या अर्थ?... किसी का जीवन अन्य की तृप्ति और जीवन की पूर्ति का साधन मात्र होकर रह जाय? वह जीवन सृष्टि में अपनी सार्थकता से सृष्टि में नारी के जीवन की मौलिक सार्थकता से वंचित रह जाय? जैसे सेवा के साधन दास का जीवन...भयंकर प्रवंचना।
(ख) प्रत्येेक परमाणु के मिलने में एक सम है, प्रत्येक हरी पत्ती के हिलने में एक लय है। मनुष्य ने अपना स्वर विकृत कर रखा है। इसी से तो उसका स्वर विश्व-वीणा में शीघ्र नहीं मिलता। पांडित्य के मारे जब देखो, जहाँ देखो बेताल-बेसुरा बोलेगा। पक्षियों को देखो, उनकी ‘चहचह’, ‘कल-कल’, ‘छलछल’ में, काकली में, रागिनी है।
27 Aug 2019 | रिवीज़न टेस्ट्स | हिंदी साहित्य(क)
संदर्भ: प्रस्तुत गद्यावतरण हिन्दी की प्रगतिवादी उपन्यास परंपरा के शिखर पुरुष ‘यशपाल’ द्वारा रचित प्रसिद्ध ऐतिहासिक उपन्यास ‘दिव्या’ से लिया गया है। 1945 में रचित इस उपन्यास का केंद्रीय विषय नारी एवं वंचित वर्ग की समस्याओं का विश्लेषण है जो तत्कालीन स्वाधीनता आंदोलन को सामाजिक स्वाधीनता की नई राह दिखलाता है।
प्रसंग: दिव्या रत्नप्रभा के साथ रहते हुए अंशुमाला के नाम से विख्यात को चुकी थी। ये पंक्तियाँ मारिश द्वारा दिव्या को समझाने के लिये कही हैं ताकि वह निराशा व आत्मप्रवंचना की दुनिया से बाहर निकालकर जीवन को सव्रिय रूप से जीने की कोशिश करें।
व्याख्या: मारिश कहता है कि कला साध्य नहीं साधन मात्र है। कला जीवन के लिये, और जीवन की पूर्ति में ही है न कि जीवन की विरक्ति में। अत: साध्य रूपी जीवन से विरक्ति तथा साधन रूपी कला से अनुराग का क्या तात्पर्य है। बल्कि अनुराग-कला के बजाय जीवन के प्रति होना चाहिये।
जो जीवन किसी अन्य की पूर्ति का साधन बनकर रह जाए उस जीवन की सार्थकता संदेहास्पद है। ऐसा जीवन मौलिक सार्थकता से वंचित रह जाता है, जैसे भयंकर अपवंचना युक्त दास का जीवन।
विशेष:
यशपाल ने मारिश के माध्यम से जीवन को साध्य व कला को जीवन का साधन माना है। जबकि कुछ विचारकों के अनुसार कला साध्य है।
कला के प्रति मार्क्सवादी व चार्वाक दर्शन का प्रतिपादन हुआ है।
इसमें ‘मानववादी’ दर्शन का सार भी व्यक्त हुआ है कि मानव ही साध्य है, मानव जीवन किसी अन्य के जीवन की पूर्ति का साधन नहीं होना चाहिये।
यशपाल की भाषा शैली में विचारों की स्पष्टता व भावों की सरलता व्याप्त है।
तत्समीपन भाषा में आतंक नहीं बल्कि पाठक को भावों से सम्बद्ध, रचनाकाल से सम्बद्ध करता है।
(ख)
संदर्भ: प्रस्तुत गद्यावतरण हिन्दी के पहले स्वच्छन्दतावादी नाटककार जयशंकर प्रसाद द्वारा 1928 में रचित प्रसिद्ध ऐतिहासिक नाटक ‘स्कंदगुप्त’ से उद्धृत है।
प्रसंग: ये पंक्तियाँ ‘स्कंदगुप्त’ के आरंभिक अंश से ली गई हैं। मालव में राजा बंधुवर्म्मा की बहन देवसेना तथा श्रेष्ठि कन्या विजया के मध्य वार्तालाप चल रहा है। इन पंक्तियों में देवसेना विजया को बता रही है कि जीवन में संगीत का कितना महत्त्व है।
व्याख्या: देवसेना कहती है कि भौतिक वस्तुओं के भीतर जितने परमाणु हैं, वे सभी एक निश्चित व्यवस्था में हैं। जब कोई पत्ती हिलती है तो वह भी एक व्यवस्था के तहत हिलती है क्योंकि परमतत्व अपनी ही वायवीय अभिव्यक्ति से उसे थिरकने को मजबूर करता है। पक्षियों की चहचहाहट, उनका गायन, उनकी हर ध्वनि प्राकृतिक व्यवस्था के अनुकूल है क्योंकि वह परमतत्त्व के मूक-संगीत की ही अभिव्यक्ति है। किंतु, मनुष्य इस संगीत से वंचित है। वह अहंकार का पुतला होने के कारण स्वयं को सारी सृष्टि से ऊँचा समझता है। इसलिए वह इस संगीत का आनंद नहीं ले पाता, इसमें व्यवधान ही उपस्थित करता है।
रचनात्मक सौंदर्य:
प्रासंगिकता: प्रसाद का यह विचार 1970 ई. के बाद पर्यावरण संकट की दृष्टि से दार्शनिक जगत में अत्यंत महत्त्वपूर्ण हो उठा है।