‘‘आध्यात्मिक रंग के चश्मे आजकल बहुत सस्ते हो गए हैं। उन्हें चढ़ाकर जैसे कुछ लोगों ने गीतगोविन्द को आध्यात्मिक संकेत बताया है, वैसे ही विद्यापति के इन पदों को भी।’’ इस मत के आलोक में विद्यापति-पदावली के पदों की मूल चेतना पर प्रकाश डालिये।
24 Aug 2019 | रिवीज़न टेस्ट्स | हिंदी साहित्यविद्यापति के ग्रंथ ‘विद्यापति-पदावली’ के संबंध में एक महत्त्वपूर्ण विवाद यह है कि इसमें शामिल पदों को भक्तिपरक माना जाए या शृंगारपरक? कुछ विद्वानों तथा आलोचकों का दावा है कि ये भक्ति के पद हैं तो कुछ इन्हें शृंगारिक ही मानते हैं। जिन आलोचकों ने इन पदों को शृंगारिक माना उनमें सबसे महत्त्वपूर्ण हैं- आचार्य रामचंद्र शुक्ल। उन्होंने लिखा है कि- ‘‘आध्यात्मिक रंग के चश्मे आजकल बहुत सस्ते हो गए हैं। उन्हें चढ़ाकर जैसे कुछ लोगों ने गीतगोविन्द को आध्यात्मिक संकेत बताया है, वैसे ही विद्यापति के इन पदों को भी।’’ रामकुमार वर्मा, बाबूराम सक्सेना, हरप्रसाद शास्त्री, बच्चन सिंह तथा निराला ने भी इन्हें शृंगारिक माना है।
इन पदों को शृंगारिक मानने का मूल तर्क यह है कि यदि यह भक्ति की रचना होती तो इसमें सिर्प संयोग वर्णन पर ही बल क्यों दिया जाता? पुन: ईश्वर का अश्लील वर्णन करना किस प्रकार की भक्ति है? दूसरा तर्क यह है कि विद्यापति मूलत: शैव थे, वैष्णव नहीं। इसलिए यदि उन्हें भक्ति ही करनी होती तो वे शिव पार्वती की करते, न कि कृष्ण राधा की। तीसरा तर्क यह है कि राधा-कृष्ण प्रेम के बहुत से पदों में अन्तिम वाक्य ‘‘राजा शिवसिंह रूपनारायण लखिमादेई पति भाने’’ आता है जिससे सिद्ध होता है कि रचना के केन्द्र में प्रतीकात्मक रूप से वस्तुत: शिवसिंह ही हैं, राधा व कृष्ण का तो बहाना मात्र है। ग्रियर्सन, बाबू श्यामसुन्दर दास, बाबू ब्रजनन्दन सहाय इत्यादि ने विद्यापति को भक्त कवि माना है। इनका तर्क यह है कि यदि विद्यापति के गीत शृंगारिक या अश्लील होते तो इन्हें मन्दिरों में क्यों गाया जाता? दूसरा तर्क यह है कि बाद के बहुत से भक्तों ने, जैसे कृष्णदास और गोविंद दास ने विद्यापति को भक्त के रूप में ही स्मरण किया है। एक तर्क यह भी है कि राधा व कृष्ण के संयोग का महाकाव्यात्मक वर्णन करने के बावजूद यदि सूरदास को भक्त माना जाता है तो विद्यापति को क्यों नहीं माना जा सकता है?
वस्तुत: इस विवाद का कोई सर्वमान्य हल निकल सके-यह संभव नहीं। ये पद शृंगार व भक्ति के समन्वित रूप हैं और ऐसा होने का एक मूल कारण यह भी है कि शृंगार तथा भक्ति के स्थायी भाव ‘रति’ तथा ‘ईश्वरविषयक रति’ इतने निकट हैं कि इनके परस्पर मिश्रित होने की संभावना बनी ही रहती है। बेहतर यही होगा कि इन पदों को शृंगार समन्वित भक्ति के पद मान लिया जाए।