‘हिन्दी सूफी काव्यधारा ने हिन्दुओं व मुसलमानों को साहचर्य व प्रेम में रहने की मानसिकता प्रदान की।’ इस मत का अनुशीलन कीजिये।
दृष्टिकोण / व्याख्या / उत्तर
सूफी काव्यधारा का सबसे महत्त्वपूर्ण योगदान सांस्कृतिक समन्वय की दृष्टि से माना जाता है। भारत की सामासिक संस्कृति या गंगा-जमुनी तहज़ीब के निर्माण में इस काव्यधारा का महत्त्वपूर्ण योगदान है। इसमें सांस्कृतिक समन्वय के तत्व कई स्तरों पर विद्यमान हैं, जो इस प्रकार हैं-
- सूफियों का दर्शन सांस्कृतिक समन्वय का प्रस्थान-बिंदु है। वे मूलत: इस्लामी एकेश्वरवाद को मानते थे किंतु उसमें खुदा एवं बंदे के एकत्व की अनुमति नहीं थी। उन्होंने प्लॉटिनस के नव्य-प्लेटोवाद तथा भारतीय औपनिषदिक चिन्तन में निहित ब्रह्म-जीव एकत्व (अहं ब्रह्मास्मि) की धारणाओं को आधार बनाकर ‘अन-अल-हक़’ की घोषणा की जिसका तात्पर्य है कि मैं ही खुदा हूँ। यह विचार भारतीय समाज के लिये चिर-परिचित था। इसलिये इसने दोनों धर्मों के मध्य संवाद का द्वार खोल दिया।
- सूफियों के समय हिंदू-मुस्लिम सांप्रदायिकता भारतीय समाज के समक्ष खड़ी सबसे बड़ी चुनौती थी। जायसी आदि कवियों ने हिंदुओं के घरों में प्रचलित प्रेम-कथाओं को आधार बनाकर अपने भावनात्मक रहस्यवाद को प्रस्तुत किया जिसमें प्रेम को मानवीय जीवन का सार तत्व माना गया था।
- सूफियों ने न सिर्प हिंदू घरों की कहानियों को प्रचलित किया बल्कि हिंदू धर्म के मिथकों को भी सम्मान दिया। सूफियों ने हिंदू देवी-देवताओं को अपनी कविताओं में सम्मानपूर्वक शामिल किया, जैसे-पद्मावत में शिव, पार्वती, हनुमान की उपस्थिति या कन्हावत में कृष्ण की कथा।
- सूफी साधक भावनात्मक रहस्यवाद में डूबकर भक्ति करते थे। जब वे भारत पहुँचे तो उन्हें यहाँ साधनात्मक रहस्यवाद मिला। सूफियों ने अपनी समन्वय चेष्टा के तहत साधनात्मक रहस्यवाद को भी अंशत: स्वीकार कर लिया।
- कई अन्य स्तरों पर भी सूफी काव्य में सांस्कृतिक समन्वय की चेष्टा दिखती है। सूफियों ने लिपि तो अरबी की ली किंतु भाषा ठेठ अवधी रखी। उन्होंने छंद भी अरबी-फारसी काव्य परंपरा से नहीं लिये, बल्कि दोहा और चौपाई की उस कड़वकबद्ध शैली को चुना जिसकी शुरुआत आदिकाल मेें स्वयभूं जैसे कवियों ने की थी और जो आगे चलकर रामचरितमानस में भी प्रयुक्त हुई। उन्होंने कथानक रूढ़ियाँ भी भारतीय साहित्य परंपरा से ही लीं, जैसे बारहमासा, षटऋतु वर्णन, ईश्वरीय हस्तक्षेप, आकाशवाणी, शुक-शुकी संवाद इत्यादि। इसके अतिरिक्त, सूफी काव्यों में लोकतत्व की ज़बरदस्त उपस्थिति है जिसके कारण हिंदुओं के दीवाली व होली जैसे त्यौहार व रीति-रिवाज़ इन कविताओं में लगातार नज़र आते हैं।
सांस्कृतिक समन्वय की चेतना यूँ तो भक्तिकाल की अन्य काव्यधाराओं में भी है किंतु इस दृष्टि से सूफियों का महत्त्व सबसे अधिक है। कबीर ने विषमताओं पर चोट तो की थी किंतु समन्वय हेतु कोई भावनात्मक चेष्टा उनमें नहीं दिखाई पड़ती। सूर की कविता समाज से उतना गहराई से जुड़ नहीं सकी। तुलसी समन्वय के सबसे बड़े कवि हैं किंतु उनकी समन्वय चेष्टा हिंदू-मुस्लिम संस्कृतियों के समन्वय में कम, हिंदू समाज के आंतरिक अन्तर्विरोधों के शमन में अधिक व्यक्त हुई। अत: यह कहने में कोई अतिशयोक्ति न होगी कि भारत की सामासिक संस्कृति के निर्माण में सूफी काव्यधारा का अप्रतिम योगदान है क्योंकि इसी परम्परा ने हिंदुओं व मुसलमानों को साहचर्य व प्रेम से रहने की मानसिकता प्रदान की।