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मानवता के खिलाफ अपराध पर एक अलग संधि के लिये वार्ता को लेकर भारत की अनिच्छा मानव अधिकारों के चैंपियन के रूप में भारत की छवि के लिये ठीक नहीं है। विश्लेषण कीजिये। (250 शब्द)

15 Aug 2019 | सामान्य अध्ययन पेपर 2 | अंतर्राष्ट्रीय संबंध

दृष्टिकोण / व्याख्या / उत्तर

हल करने का दृष्टिकोण

• परिचय के रूप में मानवता के खिलाफ अपराध की अवधारणा की व्याख्या कीजिये।

• इस विषय पर एक अलग संधि के लिये वार्ता के संबंध में भारत की अनिच्छा की वज़हों की व्याख्या कीजिये।

• कारण देते हुए निष्कर्ष लिखिये कि भारत को संधि के लिये वार्ता में क्यों शामिल होना चाहिये।

परिचय

  • मानवता के खिलाफ अपराध कुछ ऐसे कृत्य हैं जो जानबूझकर किसी नागरिक या नागरिकों के एक हिस्से, जिसकी पहचान की जा सकती है, के खिलाफ निर्देशित व्यापक या व्यवस्थित हमले के हिस्से के रूप में किये जाते हैं।
  • अंतर्राष्ट्रीय आपराधिक कानून में इसे एक अपराध माना जाता है, और यह अंतर्राष्ट्रीय अपराध न्यायालय के रोम संविदा का भी हिस्सा है।
  • सामान्यतः वैश्विक गरीबी, मानव निर्मित पर्यावरणीय आपदाओं और आतंकवादी हमलों को मानवता के खिलाफ अपराध के रूप में वर्णित किया जाता है।

ढाँचा/संरचना

  • राज्य बनाम सज्जन कुमार (2018) के मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय ने 1984 के सिख विरोधी दंगों के संदर्भ में कहा कि न तो 'मानवता के खिलाफ अपराध' और न ही 'नरसंहार' को अब तक भारत के आपराधिक कानून का हिस्सा बनाया गया है, यह एक ऐसा कमी है जिसे तत्काल दूर करने की आवश्यकता है।
  • अदालत ने स्पष्ट रूप से कहा कि "कानून प्रवर्तन एजेंसियों की सहायता से राजनीतिक अभिकर्त्ताओं द्वारा निर्देशित" इस प्रकार के सामूहिक अपराध मानवता के खिलाफ अपराधों की श्रेणी में आते हैं।

भारत ने अब तक रोम संविदा पर हस्ताक्षर नहीं किये हैं, जिसका अर्थ है कि अभी भारत के लिये मानवता के खिलाफ अपराधों के लिये अलग कानून बनाना अनिवार्य नहीं है। इस संदर्भ में एक अलग संधि के लिये वार्ता पर भारत की अनिच्छा के निम्नलिखित कारण हैं;

  • अंतर्राष्ट्रीय विधि आयोग में होने वाली वार्ताएँ “मानवता के खिलाफ अपराध“ की रोम संविदा में दी गई परिभाषा को ही अपनाना चाहती है।
    • भारत इस कदम के पक्ष में नहीं है, वह चाहता है कि इस परिभाषा में “व्यापक या व्यवस्थित” के स्थान पर “व्यापक और व्यवस्थित” को प्राथमिकता दी जाए, जिसके लिए उच्च सीमा के प्रमाण की आवश्यकता होगी।
  • दूसरा, भारत अंतर्राष्ट्रीय और आंतरिक सशस्त्र संघर्षों के मध्य अंतर स्थापित करना चाहता है।
    • नक्सलियों तथा कश्मीर और पूर्वोत्तर जैसे क्षेत्रों में अन्य गैर-राज्य अभिकर्त्ताओं के साथ भारत के आंतरिक संघर्ष इस अपराध के दायरे में आ सकते हैं।
  • तीसरी आपत्ति मानवता के प्रति अपराध के तहत व्यक्तियों को ज़बरन लापता किये जाने से संबंधित है, जो तब होती है जब किसी व्यक्ति को राज्य या तीसरे पक्ष द्वारा राज्य की सहमति से गुप्त रूप से अपहृत या कैद किया जाता है।
  • भारत ने संयुक्त राष्ट्र के इंटरनेशनल कन्वेंशन फॉर द प्रोटेक्शन ऑफ़ आल पर्सन्स फ्रॉम एन्फोर्सड डिसअपीयरेंस पर हस्ताक्षर तो किये हैं, लेकिन अभी तक इसके प्रावधानों का अनुमोदन नहीं किया है। इसलिये, घरेलू कानून के माध्यम से इसका अपराधीकरण करने के लिये बाध्य नहीं है।

इस प्रकार, भारत की घरेलू स्थितियाँ उसे अंतर्राष्ट्रीय विधि आयोग में होने वाली वार्ताओं में शामिल नहीं होने के लिये विवश करती हैं।

हालाँकि, कानून के नियम के संवैधानिक सिद्धांत का पालन करने के लिये भारत को मानवाधिकारों के चैंपियन के रूप में अपनी छवि को ध्यान में रखना चाहिये। इस तरह मानवता के खिलाफ हो रहे अपराधों पर आँखें मूंद लेना लोकतंत्र के रूप में भारत की स्थिति पर विपरीत प्रभाव डालता है।

अतः भारत को राजनीतिक इच्छाशक्ति दिखाते हुए अंतर्राष्ट्रीय विधि आयोग की वार्ताओं में शामिल होना चाहिये और इस प्रक्रिया में अंतर्राष्ट्रीय विधि आयोग को भी घरेलू आपराधिक न्याय प्रणाली की अपनी खामियों को दूर करने का प्रयास करना चाहिये।

निष्कर्ष

  • भारत की नीति निर्धारण प्रक्रिया आदर्श वाक्य - 'वैश्विक स्तर पर सोचें, स्थानीय रूप से कार्य करें' से प्रेरित है, लेकिन मानवता के प्रति अपराध के मामले में भारत को 'स्थानीय रूप से कार्य करें, वैश्विक स्तर पर प्रेरित करें' की नीति का अनुसरण करना चाहिये।
  • इसलिये अंतर्राष्ट्रीय आपराधिक न्यायालय और रोम संधि का पालन करना भारतीय शासन के मानवाधिकार-उन्मुख तरीकों के पुनर्जागरण के लिये एक मार्ग के रूप में कार्य करेगा।
  • भारत का यह कदम सत्ता को और अधिक जवाबदेह, शासन को और अधिक न्यायसंगत तथा राज्य को अधिक नीतिपरक बनाने के रूप में देखा जाएगा।