नोएडा शाखा पर IAS GS फाउंडेशन का नया बैच 16 जनवरी से शुरू :   अभी कॉल करें
ध्यान दें:

Be Mains Ready

  • 15 Aug 2019 रिवीज़न टेस्ट्स हिंदी साहित्य

    ‘आषाढ़ का एक दिन’ नाटक की प्रासंगिकता पर विचार कीजिये।

    मोहन राकेश के शब्दों में ‘आषाढ़ का एक दिन’ नाटक ‘आज का’ तथा ‘आज के लिये’ है। इस नाटक के प्रासंगिक होने की मूल वजह इस नाटक की संवेदना का देश-काल की सीमा से परे होना है। इसमें उठायी गई समस्याएँ जितनी प्रासंगिक कालिदास के समय और इस नाटक को लिखे जाते समय थीं, उससे कहीं ज़्यादा आज हैं।

    रचना के मूल में जो व्यक्तित्व-विभाजन और विसंगतिपूर्ण जीवन की समस्याएँ हैं, वे आज के पूंजीवादी विकास के मॉडल में और भी विकराल रूप धारण कर चुकी हैं। औद्योगीकरण तथा शहरीकरण ने लोगों को गाँव से शहर की ओर जाने के लिये मज़बूर कर दिया है। ये सभी लोग शहर के अजनबीपन में आत्मनिर्वासित जीवन जीने को अभिशप्त हैं। 

    नाटक में सत्ता और सृजन के जिस द्वंद्व को उजागर किया गया है वह दरअसल हर युग में मौजूद रहा है। आधुनिक समय में भी ‘निराला’ और ‘मुक्तिबोध’ जैसे साहित्यकारों को सत्ता के चंगुल से अपनी सृजनशीलता को बचाए रखने के लिये संघर्ष करना पड़ा है। 

    मनुष्य और प्रकृति के संबंधों को लेकर इस नाटक में उठाया गया सवाल आज के पर्यावरणीय संकट के दौर में कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण हो गया है। ‘ग्लोबल वार्मिंग’ और ‘क्लाइमेट चेंज’ आज के विश्व के समक्ष उपस्थित सबसे बड़ी चुनौतियाँ हैं। इन समस्याओं का समाधान मनुष्य और प्रकृति के सह-अस्तित्व में छुपा है; राकेश ने कालिदास और मल्लिका के संवादों के माध्यम से इस ओर संकेत किया है। 

    इसके अतिरिक्त, अंबिका और मल्लिका का पीढ़ीगत अंतराल आज के सूचना-तकनीक प्रधान युग में खाई का रूप ले चुका है तथा सत्ता की संवेदना-शून्यता और जड़ता में भी समय के साथ बढ़ोत्तरी ही हुई है। साहित्यिक दृष्टि से, नाट्य भाषा के प्रयोग पर बल देना भी इस नाटक को प्रासंगिक बनाता है।

    वस्तुत: ‘आषाढ़ का एक दिन’ मोहन राकेश की रचनाशीलता का नायाब नमूना है। उन्होंने अपनी साहित्यिक सूझ-बूझ से इस नाटक को हमेशा के लिये प्रासंगिक बना दिया है।

close
एसएमएस अलर्ट
Share Page
images-2
images-2