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14 Aug 2019
सामान्य अध्ययन पेपर 3
अर्थव्यवस्था
वर्ष 1969 में हुए बैंकों के राष्ट्रीयकरण से भारत को लाभ कम और हानि अधिक हुई। आलोचनात्मक परीक्षण कीजिये। (250 शब्द)
उत्तर
हल करने का दृष्टिकोण
• परिचय में बैंकों के राष्ट्रीयकरण का इतिहास बताइये।
• भारतीय अर्थव्यवस्था के लिये इसके उद्देश्यों और लाभों का उल्लेख कीजिये ।
• इस निर्णय के नकारात्मक नतीजों का उल्लेख कीजिये।
• वर्तमान में चल रहे बैंकिंग सुधारों के संदर्भ में इसकी प्रासंगिकता का वर्णन कर निष्कर्ष दीजिये।
परिचय
19 जुलाई 1969 को इंदिरा गांधी की सरकार ने निजी क्षेत्र के 14 बड़े बैंकों के राष्ट्रीयकरण का निर्णय लिया। इसे भारत में बैंकिंग क्षेत्र के इतिहास में आमूलचूल परिवर्तन माना जाता है।
1960-70 के दशक में कई बड़ी घटनाएँ हुईं, जैसे दो युद्ध- एक चीन के साथ 1962 में और दूसरा पाकिस्तान के साथ 1965 में; साथ ही लगातार दो वर्षों तक सूखा भी पड़ा। संपूर्ण अर्थव्यवस्था बदहाल स्थिति में थी। इसी पृष्ठभूमि में बैंकों के राष्ट्रीयकरण का निर्णय लिया गया था।
ढाँचा/संरचना
बैंकों के राष्ट्रीयकरण के प्रमुख कारण व उद्देश्य इस प्रकार थे:
- वित्तीय समावेशन: भारतीय ग्रामीण वित्तीय प्रणाली में धनी जमींदारों, साहूकारों और व्यापारियों का वर्चस्व था। 93% घरेलू ऋण गैर-संस्थागत स्रोतों से आया करता था।
- सामाजिक कल्याण: ग्रामीण क्षेत्रों में सामाजिक सुरक्षा का अभाव था, जैसे- बीमा सुविधा, वृद्धावस्था के लिए निवेश के विकल्प आदि मौजूद नहीं थे।
- निजी एकाधिकार को नियंत्रित करना: निजी बैंकों का स्वामित्व सीमित संख्या में ऐसे लोगों के पास था जिनका ऋण (क्रेडिट) बाज़ार में वर्चस्व था।
समाज के निम्न वर्ग के लोगों के जीवन पर इसका महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ा। बैंकों के राष्ट्रीयकरण के प्रमुख लाभ इस प्रकार हैं:
- भारत में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की शाखाओं जमा होने वाले धन में लगभग 800% तक वृद्धि हुई तथा अग्रिम व उधार देने में 11,000% की भारी वृद्धि हुई।
- सरकारी स्वामित्व के चलते बैंकों की स्थिरता को लेकर जनता में विश्वास और आत्मविश्वास बढ़ा।
- लीड बैंक योजना के माध्यम से भारतीय बैंकिंग प्रणाली देश के सबसे दूरस्थ कोनों में पहुँच गई। इसमें प्रमुख बैंकों को एक ज़िले में अपनी शाखाओं का विस्तार और संचालन करने की अनुमति दी गई थी।
- इसका व्यापक प्रभाव देखने को मिला, यहाँ तक कि हरित क्रांति में सफलता भी इसी वज़ह से मिली। कृषि के क्षेत्र में तीव्र वृद्धि,लघु उद्योगों, पिछड़े क्षेत्र के उद्यमियों को प्रोत्साहन आदि को भी इसने आगे बढ़ने के लिये प्रेरित किया।
हालाँकि, कई राजनीतिक विश्लेषकों का तर्क है कि यह कदम उस समय राजनीतिक लाभ के लिये उठाया गया था , जिसका उद्देश्य 'गरीबी हटाओ' के नारे के साथ भारत के समाजवादी रुझान को दिखाना था। इसकी वज़ह से उस समय पहले से ही संकटग्रस्त अर्थव्यवस्था पर निम्नलिखित नकारात्मक प्रभाव पड़े:
- इसने वर्ष 2012 से सामने आए एन.पी.ए. संकट को उत्पन्न किया। राजनीतिक संरक्षण के तहत पला-बढ़ा क्रेडिट बुलबुला (बबल) सरकार के नियंत्रण से बाहर हो गया।
- इसने विभिन्न प्रकार के ऋणों के लिये सैकड़ों ब्याज दरों के साथ एक अविश्वसनीय रूप से जटिल ब्याज दर संरचना को आगे बढ़ाया। इसने भ्रष्टाचार, नौकरशाही की उदासीनता और लाइसेंस राज को बढ़ावा दिया, ताकि ऋण कभी ज़रूरतमंदों तक न पहुँचे।
- यह कदम बाज़ार की बुनियादी धारणाओं के खिलाफ था। इसने बैंकों के बीच प्रतिस्पर्द्धा को कम कर दिया क्योंकि उन्हें प्राथमिकता क्षेत्र के ऋण मानदंडों के अनुसार ऋण देने के लिये विवश किया गया था ।
- आधारभूत उद्योगों के लिये धन या ऋण की कमी की वज़ह से अन्य क्षेत्रों में भी विकास में कमी देखी गई।
निष्कर्ष
भारतीय रिज़र्व बैंक के पूर्व गवर्नर एम. नरसिम्हन (1990 के दशक की शुरुआत में) और कुछ समय पूर्व रघुराम राजन और हालिया समय में उर्जित पटेल ने प्रशासनिक सुधारों की बात कही कि यदि सभी बैंकों पर से नहीं तो सरकार को कुछ बैंकों से अपना नियंत्रण हटा लेना चाहिये। इसलिए सामाजिक उद्देश्यों को पूरा करने के लिये सरकारी स्वामित्व वाले कुछ ही बैंक बनाने पर पर विचार करना चाहिये, जबकि शेष बैंकों को धीरे-धीरे सरकारी नियंत्रण से बाहर कर देना चाहिये।
भारत के वर्ष 2024 तक 5 ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था बनने का लक्ष्य तभी हासिल किया जा सकता है जब वर्तमान में चल रही एन.पी.ए. की समस्या का समाधान किया जाए, सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में अंतर्निहित खामियों ,गैर वित्तीय कंपनियों की संरचना में बदलाव और लघु एवं मध्यम उद्यमों से जुड़ी समस्याओं को हल करने के लिये प्रयास किये जाएं।