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हिन्दी साहित्येतिहास-लेखन परंपरा में ‘शिवसिंह सरोज’ की सीमाओं एवं महत्त्व पर प्रकाश डालिये।

10 Aug 2019 | रिवीज़न टेस्ट्स | हिंदी साहित्य

दृष्टिकोण / व्याख्या / उत्तर

हिन्दी साहित्येतिहास-लेखन के आरंभिक ग्रंथों में शिवसिंह सेंगर के ग्रंथ ‘शिवसिंह सरोज’ का महत्त्वपूर्ण स्थान है। 1878 ई. प्रकाशित और 1883 ई. में संशोधन के साथ पुन: प्रकाशित यह ग्रंथ ऐतिहासिक दृष्टि से हिंदी के कवियों के जीवनवृत्त का और उनकी कृतियों के अनुशीलन का प्रथम प्रयास था।

किंतु साहित्येतिहास-लेखन की दृष्टि से इस ग्रंथ में कई कमियाँ दिखाई देती हैं जिनमें मुख्य निम्नलिखित हैं:

  1. प्रधानत: यह ग्रंथ कविवृत्त-संग्रह है, न कि इतिहास। कई विद्वान तो इसे कविवृत्तसंग्रह भी नहीं मानते।
  2. इस ग्रंथ में कई रचनाकारों से संबंधित तथ्य प्रामाणिक नहीं हैं। काव्यसंग्रह की पूर्व परंपरा का उन पर अधिक प्रभाव है और कवियों से संबंधित ऐतिहासिक तथ्यों के संग्रहण और परीक्षण पर उन्होंने कम ध्यान दिया है।
  3. कवियों के जन्मकाल, जन्मस्थान आदि से संबंधित जानकारियाँ अत्यन्त संक्षिप्त और बहुधा अनुमानित हैं। कई स्थलों पर उनकी ऐतिहासिक चेतना पर किवदंतियाँ और धार्मिक विश्वास हावी हो गए हैं।
  4. इसमें आकारादि का क्रम अपनाया है न कि कालक्रमिकता का जो इतिहास-लेखन की अनिवार्य शर्त है।

कुल मिलाकर इस ग्रंथ में इतिहासबोध का अभाव इसकी बड़ी सीमा है।

किन्तु, इन सीमाओं के बावजूद भी ‘शिवसिंह सरोज’ का हिन्दी साहित्येतिहास-लेखन परंपरा में महत्त्वपूर्ण स्थान है। इस महत्त्व का एक प्रमुख कारण तो इसकी प्राचीनता है और दूसरा परिमाण। इस ग्रंथ में लगभग एक हजार कवियों का वर्णन है।

महत्त्व का एक कारण यह भी है कि भले ही ऐतिहासिक-लेखन की कसौटियों पर यह ग्रंथ खरा न उतरता हो, किन्तु ऐतिहासिक दृष्टि अपनाने का प्रयत्न ‘शिवसिंह सरोज’ में दिखाई पड़ता है। वे हिन्दी के पहले विद्वान हैं जिन्होंने हिंदी साहित्य में परंपरा की निरन्तरता की ओर संकेत किया है।

इस ग्रंथ के महत्त्व का एक बड़ा कारण यह है कि परवर्ती इतिहास-लेखन में यह ग्रंथ बहुत सहायक सिद्ध हुआ है। ग्रियर्सन ने अपने ग्रंथ के लेखन में इसके योगदान को स्पष्ट शब्दों में स्वीकार किया है।